\

गुरूपूर्णिमा पर राष्ट्र के प्रति समर्पण ही है सच्ची दक्षिणा

उमेश चौरसिया

गीता में कहा है कि ‘निवर्तयत्यन्यजनं प्रमादतः, स्वयं च निष्पापपथे प्रवर्तते । गुणाति तत्त्वं हितमिच्छुरंगिनाम् शिवार्थिनां यः स गुरूर्निगद्यते ।।’ अर्थात जो दूसरों को प्रमाद करने से रोकते हैं, स्वयं निष्पाप मार्ग पर चलते हैं। हित और कल्याण की कामना रखने वाले को तत्त्वबोध कराते हैं, उन्हें ही गुरू कहते हैं। ‘गुरू पूर्णिमा’ ऐसे ही गुरू के मनःपूर्वक पूजन और गुरूदक्षिणा स्वरूप समर्पण का पर्व है। प्रत्येक वर्ष भारतीय पंचांग के अनुसार आषाढ़ माह की पूर्णिमा को वेदों को संकलित करते हुए गुरू-शिष्य परंपरा को समाज में स्थापित करने वाले और महान ग्रंथ महाभारत के रचचिता महर्षि वेदव्यास की जयंती पर गुरु पूर्णिमा उत्सव मनाया जाता है। इस दिन को व्यास पूर्णिमा भी कहा जाता है।

ज्ञान, बुद्धि, कौशल अर्जित करते हुए सार्थक जीवन लक्ष्य प्राप्ति का मार्ग गुरू के माध्यम से ही मिलता है। इसीलिए शिष्य अपने गुरू के प्रति श्रद्धा, सम्मान और समर्पण भाव से यथाक्षमता दक्षिणा भेंट करने का प्रयत्न करता है। स्वामी विवेकानन्द ने श्रीरामकृष्ण परमहंस से मार्गदर्शन प्राप्त करते हुए ही विश्वभर में सनातन संस्कृति को स्थापित किया । छत्रपति शिवाजी ने समर्थ गुरू रामदास के चरणों में सम्पूर्ण मराठा साम्राज्य को आततायी मुगलों से मुक्त करवाकर अर्पित कर दिया। गुरू चाणक्य ने चन्द्रगुप्त मौर्य के माध्यम से नवभारत की स्थापना का संकल्प सिद्ध किया। ऐसे अनेक उदाहरण भारतीय इतिहास में प्रत्यक्ष हैं । विविध धर्म, संप्रदाय, वर्ग, विचार से जुड़े श्रद्धालु अपने – अपने सिद्ध गुरूओं के प्रति आदरभाव अभिव्यक्त करते हुए उनका पूजन और दक्षिणा अर्पण करते हैं।

विश्व का सबसे बड़े सामाजिक संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इस अवसर पर प्रतिवर्ष राष्ट्रीय चेतना के सर्वोच्च गुरू भगवद्ध्वज का श्रद्धापूर्वक पूजन करते हुए यथाक्षम अर्थार्पण करने के संकल्प का निर्वहन करता है । भारतवर्ष के सम्पूर्ण राष्ट्रजीवन के भाव, दिव्य भास्कर के उदय की प्रथम रणभेरी भारतीय संस्कृति की पहचान और भारतीय इतिहास के वैभव, संघर्ष और उत्थान के कालखण्डों का प्रत्यक्षदर्शी रहा है। इसीलिए संघ किसी भी व्यक्ति के स्थान पर भारत के परमवैभव श्रीभगवद्ध्वज को ही अपना गुरू मानकर राष्ट्रसेवा के संकल्प के प्रति कटिबद्ध है।

संघ के संस्थापक डॉ केशव बलिराम हेडगेवार की बायोग्राफी लिखने वाले एन. एच. पल्हीकर बताते हैं कि संघ के सभी जन तत्समय डॉ हेडगेवार को गुरू के रूप में मान्यता देना चाहते थे, किन्तु स्वयं डॉ साहब ने इस आग्रह को अस्वीकार करते हुए कहा कि कोई भी व्यक्ति पूर्ण नहीं होता, इसलिए उन्होंने भारतीय संस्कृति, ज्ञान, त्याग, शौर्य, बलिदान, राष्ट्रभक्ति और अध्यात्म के प्रतीक परमपूज्य श्रीभगवद्ध्वज को ही सर्वमान्य गुरू के रूप में प्रतिष्ठित करने का निर्णय लिया । निश्चित रूप से यह विश्व के समकालीन इतिहास की अनूठी पहल है।

संघ के पूर्व सरकार्यवाह प्रख्यात विचारक एच. वी. शेषाद्रि ने अपनी पुस्तक में लिखा है – ‘भगवा ध्वज सदियों से भारतीय संस्कृति और परंपरा का श्रद्धेय प्रतीक रहा है। जब डॉ हेडगेवार ने संघ का शुभारंभ किया, तभी से उन्होंने भगवद्ध्वज को स्वयंसेवकों के सामने समस्त राष्ट्रीय आदर्शों के सर्वोच्च प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया और बाद में व्यास पूर्णिमा के दिन गुरू के रूप में भगवा ध्वज के पूजन की परंपरा आरंभ की।’ संघ विचारक दिलीप देवधर बताते हैं कि संघ में प्रथमतः मन, फिर तन और अन्ततः धन को समर्पित करने की परम्परा स्थापित है। यही संघ के स्वयंसेवक का परिचय भी है।

सार्थक जीवनलक्ष्य की अग्रसर रहते हुए संघ स्वयंसेवक की प्राथमिकता मनपूर्वक, पूर्ण शरीरिक क्षमता से भारत की सेवा में समर्पित होकर कार्य करना ही है । इस प्रकार अन्ततः जब श्रीगुरु भगवद्ध्वज के समक्ष सर्वस्व समर्पण का भाव रहता है तो अर्थार्पण भी स्वेच्छा से ही होता है। 1925 में स्थापित संघ में 1928 से गुरूपूजन का शुभारंभ हुआ। गुरू पूजन के माध्यम से एकत्रित समस्त राशि का सदुपयोग देशसेवा हेतु संकल्पित प्रचारकों की कुशलक्षेम, अनाथ बच्चों के लालन-पालन, आदिवासी क्षेत्रों में शिक्षा के प्रसार और विद्यालयों की स्थापना, आपदा-विपदा के समय त्वरित सहायता जैसे जनकल्याण के कार्यों में किया जाता है।

इसी प्रकार अध्यात्म प्रेतित संगठन विवेकानन्द केन्द्र प्रणवमंत्र ‘ॐ’ को गुरू मानकर राष्ट्रसेवा की प्रेरणा लेता है । प्रणव का अर्थ है जो हमारे जीवन में व्याप्त है और हमारे प्राण या श्वास के माध्यम से सदैव प्रवाहित रहता है । कठोपनिषद में कहा है- ‘वह लक्ष्य जिसकी घोषणा सभी वेदों में की गई है, जिसे सभी तप जिसे प्राप्त करना चाहते हैं और मनुष्य संयमित जीवन व्यतीत करते हुए जिसकी सदैव कामना करता है वह है ‘ऊँ’ ।’ यह अक्षर वास्तव में परमब्रह्म है। जो कोई इस अक्षर को जानता – समझता है उसकी समस्त इच्छाएं पूर्ण हो जाती हैं।

यह एकाक्षर ही हिंदूधर्म सर्वव्यापी, सर्वोत्तम और सर्वोच्च आधार है, सभी प्रकट अस्तित्व का स्रोत है। माण्डूक्य उपनिषद के अनुसार – ‘ऊँ’ एक शाश्वत अक्षर है, भूत, वर्तमान और भविष्य सभी इस एक ध्वनि में समाहित हैं, तीनों कालरूपों से परे जो कुछ भी विद्यमान है वह सभी इस एकाक्षर में समाहित है । वैदिक चिंतन में ‘ऊँ’ को ईश्वर के सभी रूपों का प्रतीक कहा है । इसीलिए विवेकानन्द केन्द्र के कार्यकर्ता ‘ऊँ’ को ही गुरू मानकर प्रतिवर्ष गुरूपूर्णिमा पर्व पर पूजन-ध्यान करते हुए राष्ट्रधर्म के प्रति अपने दायित्व को अंगीकार करने का संकल्प लेते हैं ।

– उमेश कुमार चौरसिया, साहित्यसाधक एवं संस्कृतिकर्मी

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *