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भक्ति आंदोलनऔर सामाजिक समरसता के प्रकाशपुंज गुरु नानक देव जी

आचार्य ललित मुनि

भारतीय इतिहास के उस स्वर्णिम काल में, जब भक्ति की लहरें संपूर्ण भारतवर्ष को आस्था, प्रेम और श्रद्धा से सराबोर कर रही थीं, तब एक विभूति अवतरित हुई, वह विभूति थीं गुरु नानक देव जी।  सिख धर्म के संस्थापक, महान संत, और सामाजिक समरसता के प्रवर्तक। उन्होंने भक्ति को केवल ईश्वर की साधना नहीं, बल्कि सेवा, समानता और प्रेम का प्रतीक बनाया। उनका जीवन संदेश आज भी उतना ही सार्थक है जितना पाँच सौ वर्ष पूर्व था, जब उन्होंने मानव समाज को विभेद, ऊँच-नीच, अंधविश्वास और पाखंड से मुक्त करने का बीड़ा उठाया।

भक्ति आंदोलन के उस युग में, जब संत कबीर, रैदास, नामदेव और मीराबाई जैसे संत समाज में आध्यात्मिक जागरण फैला रहे थे, गुरु नानक देव जी ने भक्ति को एक नई दिशा दी। उन्होंने कहा – “इक ओंकार सतनाम करता पुरख निर्भउ निर्वैर।” यह केवल एक वाक्य नहीं, बल्कि एक दर्शन था, जिसमें उन्होंने ईश्वर की एकता, सत्य और निष्पक्षता को परिभाषित किया। उनके अनुसार, भक्ति केवल मनन नहीं, बल्कि जीवन जीने का तरीका है  “नाम जपो, कीरत करो, वंड छको।” अर्थात, ईश्वर को स्मरण करो, ईमानदारी से श्रम करो और अपनी कमाई का हिस्सा दूसरों के साथ बाँटो।

मध्यकालीन भारत में समाज जाति-भेद और ऊँच-नीच की गहरी खाई में बँटा हुआ था। ऐसे समय में गुरु नानक देव जी ने सबको समान दृष्टि से देखने का संदेश दिया। उन्होंने कहा – “सबना जीआ का इक दाता, सोई ना विरला करे वीचार।” अर्थात, सभी जीवों का दाता एक ही ईश्वर है, पर विरले ही इस सत्य का चिंतन करते हैं। इस वाणी ने जाति और धर्म की दीवारों को तोड़कर भक्ति को मानवता का मार्ग बना दिया।

उनकी साखियाँ इस दर्शन की सजीव झलक हैं। सुल्तानपुर लोधी की प्रसिद्ध ‘भाई लालो और भगता साखी’ इस बात का सुंदर उदाहरण है। वहाँ एक अमीर व्यापारी भगता अपने धन और दान का प्रदर्शन करता था, जबकि एक गरीब बढ़ई भाई लालो अपनी मेहनत की कमाई से सादा जीवन जीता था। गुरु नानक जी ने दोनों के घरों का भोजन ग्रहण किया। सभा में जब उन्होंने दोनों की रोटी निचोड़ी, तो लालो की रोटी से दूध और भगता की रोटी से खून निकला। गुरु बोले- “लालो का खून साफ है, भगता का दूध गंदा।” इस साखी का गहरा अर्थ यह है कि धर्म और भक्ति का मूल्य धन से नहीं, बल्कि सच्चे श्रम और निष्कपटता से आँका जाना चाहिए। यही विचार आगे चलकर लंगर प्रथा की नींव बना, जहाँ सब लोग बिना भेदभाव के एक साथ बैठकर भोजन करते हैं। यह व्यवस्था आज भी गुरुद्वारों में जीवित है, और विश्वभर में समानता और सेवा का प्रतीक बन चुकी है।

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गुरु नानक देव जी ने अपने जीवन में भक्ति को सीमाओं से परे जाकर देखा। उनकी चार उदासियाँ इस दृष्टिकोण का प्रमाण हैं। पहली उदासी में वे पूर्वी भारत, दूसरी में दक्षिण, तीसरी में उत्तर भारत और चौथी में पश्चिम एशिया तक गए। चौथी उदासी के दौरान उनका मक्का जाना इतिहास में विशेष रूप से उल्लेखनीय है। मीहरबान जनमसाखी में इसका सुंदर वर्णन मिलता है। कहा गया है कि जब वे मक्का में विश्राम कर रहे थे, उनके पैर काबे की दिशा में थे। एक काजी ने नाराज होकर कहा, “तुमने अपने पैर ईश्वर की दिशा में कर दिए।” इस पर गुरु नानक मुस्कुराए और बोले, “मेरे पैर उस दिशा में कर दो जहाँ ईश्वर नहीं है।” जब काजी ने उनके पैर घुमाने चाहे, तो काबा भी घूम गया। यह साखी सिखाती है कि ईश्वर किसी दिशा, धर्म या स्थान तक सीमित नहीं। वह सर्वव्यापी है, हर दिशा, हर हृदय और हर जीवन में।

गुरु नानक देव जी का जीवन केवल धर्म का नहीं, बल्कि सामाजिक समरसता का भी प्रतीक था। उन्होंने हर व्यक्ति में ईश्वर का अंश देखा। उनकी वाणी “ना को हिन्दू, ना को मुसलमान” यह बताती है कि मनुष्य का असली धर्म मानवता है। उन्होंने सिखाया कि यदि कोई व्यक्ति सच्चे मन से कर्म करता है, दूसरों की सेवा करता है और ईश्वर को अपने हर कार्य में याद रखता है, तो वही सच्चा भक्त है।

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उनकी एक अन्य साखी “सिद्ध गोष्ठी” आध्यात्मिकता और व्यवहार का सुंदर संगम है। सिद्धों ने उनसे पूछा, “आप संसार में रहकर भी निर्वैराग्य कैसे हैं?” गुरु ने कहा, “संसार में रहो, पर मन को वश में रखो; कर्म करो, पर आसक्ति मत रखो।” इस साखी का मर्म यह है कि भक्ति का अर्थ संसार त्यागना नहीं, बल्कि संसार में रहते हुए भी आत्मिक संतुलन बनाना है। यही दृष्टिकोण उन्हें अन्य संतों से अलग करता है।

गुरु नानक देव जी ने नारी के प्रति सम्मान की भावना को भी समाज में प्रतिष्ठित किया। उस समय स्त्रियों को अशुभ माना जाता था, सती प्रथा और पर्दा प्रणाली प्रचलित थी। उन्होंने इसका विरोध किया और स्पष्ट कहा – “सो क्यों मंदा आखिए जितु जम्मे राजान।” अर्थात, स्त्री को क्यों नीचा कहा जाए, जिससे राजा तक जन्म लेते हैं। यह पंक्ति केवल स्त्री के सम्मान की नहीं, बल्कि समानता के उस अधिकार की बात करती है जो मानवता की नींव है।

बाल जनमसाखी में वर्णित ‘कंभन साखी’ में यह भाव और स्पष्ट होता है। गुरु नानक देव जी ने कहा, “स्त्री ही जीवन देती है, फिर वह अशुभ कैसे?” उनका यह विचार उस समय के सामाजिक ढांचे के लिए क्रांतिकारी था।

उनकी माता तृप्ता देवी से जुड़ी साखी भी अत्यंत प्रेरणादायक है। जब परिवार ने विवाह के लिए आग्रह किया, तो गुरु नानक ने कहा, “गृहस्थ जीवन में रहकर भी भक्ति की जा सकती है, बस मन संयमित होना चाहिए।” यह सिखाता है कि धर्म केवल सन्यासियों का नहीं, बल्कि हर गृहस्थ का भी मार्ग हो सकता है। यही कारण है कि सिख धर्म में गृहस्थ जीवन को सर्वोच्च माना गया।

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गुरु नानक देव जी के विचार केवल सामाजिक ही नहीं, बल्कि पर्यावरणीय दृष्टि से भी अग्रगामी थे। उन्होंने कहा – “पवण गुरु, पानी पिता, माता धरति महत।” इसमें उन्होंने प्रकृति को गुरु, पिता और माता के रूप में देखा। उन्होंने सिखाया कि जो व्यक्ति प्रकृति का आदर करता है, वही सच्चे अर्थों में ईश्वर की पूजा करता है। जब आज का संसार पर्यावरण संकट से जूझ रहा है, नानक की यह वाणी हमें प्रकृति के प्रति श्रद्धा और जिम्मेदारी का बोध कराती है।

उन्होंने श्रम की गरिमा और आर्थिक समानता पर भी बल दिया। उनका सिद्धांत “किरत करो, नाम जपो, वंड छको” आज के दौर में भी उतना ही उपयोगी है। यह हमें याद दिलाता है कि सच्ची समृद्धि वही है जो परिश्रम, ईमानदारी और साझेदारी से आती है। यही भावना आज की सामाजिक जिम्मेदारी और नैतिकता का आधार बन सकती है।

गुरु नानक देव जी का जीवन, उनकी वाणी और साखियाँ भक्ति आंदोलन का वह उज्ज्वल अध्याय हैं जिसने धर्म को मानवता के साथ जोड़ा। उन्होंने सिखाया कि भक्ति का सार कर्म, प्रेम और करुणा में है। आज जब समाज विभाजन, असमानता और हिंसा की ओर झुक रहा है, तब उनकी वाणी एक बार फिर स्मरण कराती है- “मन जीतै जग जीत।” जिसने अपने मन को जीत लिया, उसने संसार को जीत लिया।

गुरु नानक देव जी का जीवन केवल एक धार्मिक व्यक्तित्व की गाथा नहीं, बल्कि मानव सभ्यता के लिए नैतिक मार्गदर्शन है। उनकी साखियाँ हमें यह सिखाती हैं कि ईश्वर वहीं है जहाँ मानवता जीवित है। उनके उपदेश आज भी उतने ही प्रभावी हैं जितने सैकड़ों वर्ष पूर्व थे। भक्ति को उन्होंने कर्म से जोड़ा, और भक्ति आंदोलन को सामाजिक परिवर्तन का रूप दे दिया। उनका संदेश युगों-युगों तक हमें यह याद दिलाता रहेगा कि सच्ची भक्ति वही है जो सभी में ईश्वर को देख सके और सबको प्रेम कर सके।