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रानी दुर्गावती और गोंडवाना साम्राज्य का स्वर्ण युग : पुण्य स्मरण

आचार्य ललित मुनि

भारतीय इतिहास में एक ऐसा नाम जिनका शौर्य, पराक्रम, और देशभक्ति विश्व की अन्य महान वीरांगनाओं के समक्ष अद्वितीय है। वे हैं गोंडवाना साम्राज्य की राजमाता वीरांगना रानी दुर्गावती। रानी दुर्गावती ने 16 वर्षों तक गोंडवाना साम्राज्य पर शासन किया, और इस दौरान उन्होंने न केवल एक विशाल साम्राज्य का कुशलतापूर्वक संचालन किया, बल्कि अपनी नीतियों, युद्ध कौशल, और नारी सशक्तिकरण के प्रयासों से इतिहास में अमर हो गईं।

गोंडवाना साम्राज्य का चरमोत्कर्ष 15वीं शताब्दी के अंत में गोंड वंश के महान राजा संग्रामशाह के शासनकाल में प्रारंभ हुआ।  जिन्होंने 52 गढ़ों पर विजय प्राप्त कर गोंडवाना साम्राज्य को एक विशाल और शक्तिशाली साम्राज्य में परिवर्तित किया। दमोह के पास ठर्रका ग्राम में प्राप्त शिलालेख और रामनगर प्रशस्ति में उनके पराक्रम का उल्लेख है, जिसमें कहा गया है कि उनके शत्रु उनके तेज के सामने नष्ट हो गए, और मध्यकाल का सूर्य भी उनके प्रताप के सामने धूमिल पड़ गया। गोंडवाना के गढ़ जबलपुर, सागर, दमोह, सिवनी, मंडला, नरसिंहपुर, छिंदवाड़ा, नागपुर, होशंगाबाद, भोपाल, और बिलासपुर तक फैले हुए थे।

उत्तर भारत में उस समय मुगल शासक हुमायूँ को शेरशाह सूरी ने बिलग्राम (कन्नौज) के युद्ध में परास्त कर भारत से बाहर खदेड़ दिया था। शेरशाह की विस्तारवादी नीतियों से चिंतित कालिंजर के राजा कीरत सिंह ने संग्रामशाह से मित्रता का प्रस्ताव रखा, जो एक वैवाहिक संबंध के रूप में फलीभूत हुआ। इस मित्रता ने गोंडवाना और कालिंजर के बीच एक मजबूत गठबंधन स्थापित किया, जिसने आगे चलकर रानी दुर्गावती के उदय का मार्ग प्रशस्त किया।

रानी दुर्गावती का जन्म 5 अक्टूबर 1524 को कालिंजर के किले में राजा कीरत सिंह और उनकी पत्नी कमलावती के यहाँ दुर्गाष्टमी के दिन हुआ था। उनके जन्म का समय और स्थान उनके भविष्य के शौर्य और नेतृत्व का प्रतीक था। राजा संग्रामशाह और उनके पुत्र दलपतिशाह, रानी दुर्गावती के सौंदर्य, शिष्टता, और पराक्रम से अत्यंत प्रभावित थे। संग्रामशाह ने कीरत सिंह से अपनी पुत्री का विवाह दलपतिशाह से करने का प्रस्ताव रखा, जो स्वीकार कर लिया गया। 1541 में संग्रामशाह का निधन हो गया, लेकिन कीरत सिंह ने अपना वचन निभाया और 1542 में रानी दुर्गावती का विवाह दलपतिशाह से कर दिया। यह विवाह सामाजिक समरसता का एक अनूठा उदाहरण था, जो भारतीय संस्कृति में जातिवाद और वर्ण व्यवस्था के दुष्प्रचार का खंडन करता है।

1545 में शेरशाह ने कालिंजर पर आक्रमण किया, जिसमें रानी दुर्गावती ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस युद्ध में शेरशाह मारा गया और कीरत सिंह का भी बलिदान हुआ। 1548 में दलपतिशाह की आकस्मिक मृत्यु ने रानी दुर्गावती पर वज्रपात किया, लेकिन उन्होंने साहस और दृढ़ता के साथ अपने पांच वर्षीय पुत्र वीर नारायण की ओर से गोंडवाना साम्राज्य की बागडोर संभाली। इस प्रकार, रानी दुर्गावती का एक महान साम्राज्ञी के रूप में उदय हुआ।

रानी दुर्गावती ने 16 वर्षों तक गोंडवाना साम्राज्य पर शासन किया, और यह काल गोंडवाना का स्वर्ण युग था। उनके शासन में साम्राज्य राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, कला, और साहित्य के क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति की। रानी ने एक ऐसी कर प्रणाली लागू की, जो आधुनिक जीएसटी के समान थी। इस प्रणाली के कारण गोंडवाना भारत का एकमात्र राज्य था, जहां जनता कर स्वर्ण मुद्राओं और हाथियों में चुकाती थी। इस समृद्धि का उल्लेख अकबर के दरबारी लेखक अबुल फजल ने अपनी रचना “आईन-ए-अकबरी” में किया है। कर्नल स्लीमन ने भी अपनी जीवनी में रानी दुर्गावती के शासन और उनकी उपलब्धियों की प्रशंसा की है।

रानी दुर्गावती की जल प्रबंधन और पर्यावरण संरक्षण की योजनाएं आज भी प्रासंगिक हैं। उन्होंने अपने साम्राज्य में 1000 तालाब और 500 बावलियों का निर्माण कराया। जबलपुर में 52 सरोवर और 40 बावलियों का निर्माण एक अद्भुत प्रबंधन का उदाहरण था। ये सरोवर तीन प्रकार के थे: शिखर सरोवर (वनस्पतियों और वन्य जीवों की रक्षा के लिए), तराई सरोवर (जल संग्रहण के लिए), और नगरीय सरोवर। ये सभी भूमिगत नहरों द्वारा एक-दूसरे से जुड़े थे, जिसे पंचासर योजना के नाम से जाना जाता था। इस योजना की शुरुआत संग्राम सागर से हुई, जो सगड़ा ताल, बाल सागर, कोलाताल, देवताल, और सूपाताल से जुड़ा था। जल शोधन और प्रबंधन के लिए भूजल विशेषज्ञ कीकर सिंह पानीकार का योगदान उल्लेखनीय था।

रानी दुर्गावती ने धार्मिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। गोंडवाना उस समय उत्तर-मध्य भारत का हिंदुओं का धार्मिक केंद्र था, जहां कोई भी हिंदू अपनी इच्छानुसार धार्मिक अनुष्ठान कर सकता था। रानी के आग्रह पर श्रीमद् वल्लभाचार्य के पुत्र गोस्वामी विट्ठलनाथ ने तीन वर्ष तक गढ़ा में प्रवास किया और बैठकजी के मंदिर का निर्माण कराया, जहां शुद्धाद्वैत नियमों से पूजा होती थी। इस स्थान को “लघु काशी-वृंदावन” कहा जाता था। राधा-वल्लभ संप्रदाय का विकास भी रानी के शासनकाल में हुआ। माला देवी के मंदिर का जीर्णोद्धार, त्रिपुर सुंदरी, बूढ़ी खेरदाई, बड़ी खेरमाई, और शारदा देवी के मंदिरों का निर्माण और संरक्षण रानी की धार्मिक सहिष्णुता और भक्ति का प्रतीक था।

रानी दुर्गावती ने नारी सशक्तिकरण के लिए अभूतपूर्व कार्य किए। उन्होंने गढ़ा में स्वामी विट्ठलनाथ के प्रवास के दौरान पचमठा में महिलाओं के लिए प्रथम गुरुकुल स्थापित किया, जहां स्वयं विट्ठलनाथ ने महिलाओं को शिक्षा प्रदान की। इस गुरुकुल में दामोदर ठाकुर, अधार सिंह, कीकर सिंह पानीकार, पद्मनाभ भट्टाचार्य, और लोंगाक्षि जैसे विद्वानों ने अध्यापन किया। महिलाओं के लिए सैन्य पाठशाला और कौशल विकास केंद्र भी स्थापित किए गए, जहां उद्यमिता और कुटीर उद्योगों की शिक्षा दी थी। रानी ने भेड़ाघाट में कलचुरि कालीन तांत्रिक विश्वविद्यालय गोलकी मठ का जीर्णोद्धार कराया, जहां संस्कृत, प्राकृत, और पालि भाषाओं में शिक्षा दी जाती थी।

रानी दुर्गावती की युद्ध नीति और कूटनीति विश्व की अन्य वीरांगनाओं, जैसे काकतीय वंश की रुद्रमा देवी और फ्रांस की जोन ऑफ आर्क को छोड़कर, किसी से तुलना नहीं की जा सकती। वे दोनों हाथों से तीर और तलवार चलाने में निपुण थीं और अकस्मात् आक्रमण की रणनीति में माहिर थीं। उनकी सेना में 20,000 अश्वारोही, 1,000 हाथी, और प्रचुर संख्या में पदाति थे। गोंडवाना भारत का पहला साम्राज्य था, जहां महिला सैन्य दस्ता था, जिसकी कमान रानी की बहन कमलावती और पुरागढ़ की राजकुमारी संभालती थीं।

रानी ने अपने जीवनकाल में 16 बड़े युद्ध लड़े, जिनमें से 15 में उन्हें विजय प्राप्त हुई। इनमें 12 युद्ध मुस्लिम आक्रांताओं के खिलाफ और 6 मुगलों के खिलाफ लड़े गए। गोंडवाना में प्रचलित कथाओं के अनुसार, उन्होंने छोटे-बड़े कुल 52 युद्ध लड़े, जिनमें 51 में विजय प्राप्त की। मांडू के शासक बाजबहादुर को दो बार परास्त किया, और मुगल शासक अकबर के सेनापति आसफ खान को सिंगौरगढ़ और गौर नदी के युद्धों में मात दी।

1564 में गौर नदी का युद्ध रानी दुर्गावती के जीवन का अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण युद्ध था। अकबर ने गोंडवाना की समृद्धि की चर्चा सुनकर आसफ खान को आक्रमण के लिए भेजा। रानी ने सिंगौरगढ़ में तीन युद्ध लड़े, जिनमें मुगलों को परास्त किया। चंडाल भाटा और गौर नदी के युद्धों में रानी ने अपनी रणनीति से मुगल सेना को तितर-बितर कर दिया। 23 जून 1564 को नर्रई में प्रथम मुठभेड़ में रानी ने मुगलों को खदेड़ दिया, लेकिन 24 जून को अंतिम युद्ध में एक षड्यंत्र के कारण स्थिति बदल गई। सामंत बदन सिंह ने मुगलों को रानी की रणनीति बताई, जिसके कारण नर्रई नाले में बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हुई। रानी घिर गईं, और युद्ध में उनके पुत्र वीर नारायण घायल हो गए। आंख और गर्दन में तीर लगने के बावजूद रानी ने युद्ध जारी रखा। अंततः, उन्होंने अपनी कटार से प्राणोत्सर्ग किया, लेकिन 150 मुगल सैनिकों का वध करते हुए वीरगति प्राप्त की। उनके सेनापतियों ने युद्ध जारी रखा और वीर नारायण को सुरक्षित निकाला।

रानी दुर्गावती का व्यक्तित्व और कृतित्व सनातन धर्म में नारी शक्ति का पर्याय है। वे राष्ट्र को एकजुट करने और ऐश्वर्य प्रदान करने वाली शक्ति थीं। उनके शासनकाल में गोंडवाना साम्राज्य ने आर्थिक, सामाजिक, और सांस्कृतिक क्षेत्रों में अभूतपूर्व प्रगति की। उनकी युद्ध नीति, जल प्रबंधन, और नारी सशक्तिकरण की योजनाएं आज भी प्रासंगिक हैं। रानी दुर्गावती का बलिदान स्वाभिमान, स्वतंत्रता, और शौर्य का प्रतीक है। वे हिंदू धर्म में मातृशक्ति की अवतार थीं, जिन्होंने एक बेटी के जन्म को शक्ति के रूप में चरितार्थ किया। उनकी अमर गाथा भावी पीढ़ियों को राष्ट्रवाद और गौरव की प्रेरणा देती रहेगी।

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