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छत्तीसगढ़ का प्रमुख लोकपर्व गौरी गौरा पूजन

छत्तीसगढ़ सत्ताइस जिलों से बना नया राज्य, छत्तीसगढ़। राज्य नया है, किन्तु इसकी लोक संस्कृति का उद्गम आदिम युग से जुड़ा हुआ है, जो आज भी यहाँ के लोक जीवन में सतत् प्रवाहमान है। यहाँ तीज-त्यौहारों और पर्वों की बहुलता है। ये तीज-त्यौहार और पर्व यहाँ के जनमानस में रची-बसी आस्था को आलोकित करते हैं और लोक को ऊर्जावान बनाते हैं।

हाँ, वही छत्तीसगढ़, जहाँ लोक साहित्य का आकाशीय विस्तार है। जहाँ लोक संस्कृति की जड़ें अत्यंत गहरी हैं। जहाँ पसीने की गंध के साथ हवा में लोकगीतों की स्वर लहरी तैरती है। जहाँ का लोक मानस बड़ी आस्था और श्रद्धा के साथ अपने लोक पर्वों में नाचता-गाता है और अपने लोक विश्वासों को जगाता है। ऐसा ही लोकपर्व है-‘गौरी गौरा’ ।

बारे डड़ैया मोर बड़ रंगरेला, चढ़े ओ लिमुन कई डार

लिमुवा के डारा टूटी-फूटी जइहैं, तिरनी गये छरियाय

कौन सकेले मोर नव मन तिरनी, कौन सकेले लमकेस

भईया सकेले नव मन तिरनी, भौजी सकेले लमकेस

कहाँ सरोबो नव मन तिरनी, कहाँ धोवइबो लमकेस

बउली सरोबो नव मन तिरनी, सगरी धोवइबो लमकेस ।

‘लोक’ आडम्बरहीन होता है। लोक जीवन सीधा-सादा ओर सरल होता है। इसलिए उसके आचार-विचार, कार्य और व्यवहार भी सीधे-सहज और सरल होते हैं। लोक के देवी-देवता और उसकी पूजा प्रार्थना भी लोक सम्मत होते हैं। जहाँ पार्वती, गौरी और शिव गौरा के रूप में लोक पूजित और लोक प्रतिष्ठित हैं ।

शिव लोक जीवन के सर्वाधिक समीप हैं। इसलिए लोक शिव को अपनी संस्कृति के अनुरूप रचता है और उनकी पूजा-प्रतिष्ठा भी लोक के अनुरूप करता है। गौरी गौरा का पर्व लोकरूप में पार्वती व शंकर का विवाह ही है। जहाँ लोक अपने रीति-रिवाज ओर परम्परा के अनुसार उनके विवाह की प्रक्रिया पूरी करता है-

बारह भंजन के अंगना बने, बगरे हे पोथी पुराने ओ दीदी

बिन्दाबन ले पंडित बुलइले ओ, बांचथे पोथी पुराने ओ दीदी

नवमी के उचटे दशहरा लगिन हे, आधा कातिक में रचेंव बिहावे

करथे इसर राजा अपने बिहावे, जंहवा के बाजा बाजथे दीदी।

छत्तीसगढ़ के लोक समाज में शिव के विभिन्न रूप सहज श्रद्धा और विश्वास के साथ पूजित हैं। इन लोकरूपों में बूढ़ादेव, बड़ादेव व गौरा प्रमुख हैं। गौरी-गौरा का पर्व वस्तुतः लोक द्वारा सम्पन्न शिव-पार्वती अर्थात् सत्यम् शिवम सुन्दरम की भावना को जगाया जाता है। उनके विवाह के लिए वो सारी तैयारियाँ और औपचारिकताएँ पूरी की जाती हैं जो सामान्यतः विवाह के लिए आवश्यक हैं। गंड़वा बाजा की अह्वादकारी गूंज और ग्रामीण महिलाओं के कंठों से झरते लोकगीत एक अलौकिक आनंद का सृजन करते हैं। अपने गृह कार्यों से मुक्त होकर ये महिलायें ‘फूल कुचरने’ की क्रिया के साथ गौरी गौरा के प्रति अपनी लोक आस्था और लोक विश्वास को अभिव्यक्ति देते हैं। जिसका केन्द्र होता है गौरा गुड़ी-

जोहर जोहर मौर गउरी गउरा हो, सेवरी लागव मैं तोर

गउरी गउरा के मड़वा छवाऐंव ओ, झूले ओ परेवना के हंसा

हंसा चरथे मोर मूंगा अउ मोती ओ, फोले चना के दारे

जोहर जोहर मोर ठाकुर दइया, सेवरी लागंव मैं तोर

ठाकुर देवताल आवत सुनतेंव ओ, अंगना बटोरि लेतेंव

खोर बईठक देतेंव मैं चंदन पिढुलिया ओ, मांड़ी ले धोई तेंव गोड़ ओ

कांचा दूध म पइंया ल पखारंव ओ, डंडा सरन लागंव तोर

जोहर जोहर मोर गउरी गउरा हो, सेवरी लागव मैं तोर ।।

गौरी गौरा पर्व के संबंध में यह किवंदती प्रचलित है। कहा जाता है कि प्राचीन समय में एक गोंड़ दंपत्ति ने पार्वती की तपस्या कर पार्वती को अपनी पुत्री के रूप में पाने की कामना की। पर पार्वती अपने पति भोले शंकर से विलग नहीं होना चाहती थी। जैसा कि यह उनके पूर्व जन्म की कथाओं में भी प्रमाणित है। इसके लिए उन्हें बड़े दुख झेलने पड़े हैं। अतः पार्वती चिन्ता में पड़ गई। पार्वती करे तो करे क्या? उनकी इस विषम स्थिति को देखकर भोले शंकर मुस्कुराए और उन्होंने उस गोंड़ दंपत्ति को वर देने के लिए संकेत कर दिया। तब से कहा जाता है कि गौरी को वरने के लिए ही गौरा के रूप में शंकर जी का लोक अवतरण होता है। जिसे ग्रामीण समाज प्रतिवर्ष लोकपर्व के रूप में मनाता है। गौरी गौरा शिव व पार्वती का लोक अवतरण ही है। विवाह मंडप के लिए महिलाएं चबूतरे का सृजन करती हैं और मुग्ध होकर गाती हैं-

बालक रोई रोई मैं चंवरा सिरजायेंव ओ

चंवरा के करे खुरखेद।

कोने बरदिहा के बरदी ढीलईगे ओ

चंवरा के करे खुरखेद।

ईसर राजा के नांदिया ढिलईगे ओ

चंवरा के करे खुरखेद।

लोक जीवन में मिट्टी की बड़ी महिमा है। लोक मिट्टी में मिट्टी की तरह मिलकर सोना उपजाता है। मिट्टी को अपने श्रम सिकर से सिंचित कर मनचाहा आकार देता है। मिट्टी लोक का जीवन दर्शन है। उसका हंसना, रोना, गाना, जीवन-मरण, सुख-दुख सब मिट्टी पर ही आश्रित है। इसलिए मिट्टी लोक से और लोक मिट्टी से अलग नहीं हो पाता। उसका प्रत्येक कार्य मिट्टी से जुड़ा हुआ है। उनके देवी और देवता भी, उनकी आस्था और विश्वास भी, उनकी गौरी और गौरा भी ।

विशेष स्थान से लायी गई पवित्र मिट्टी से सृजित होते हैं गौरी और गौरा। सृष्टि का सृजन करने वाले देवी-देवताओं का सृजन लोक की सृजनधर्मिता की संकल्पना है। जहाँ अमूर्त का मूर्त रूप में प्रकटीकरण लोक की जिजीविषा की अनुभूति कराता है, मिट्टी से गढ़े जाते हैं-गौरी गौरा। महिलायें घरों में जाकर करसा परघातीं हैं। धान की बाली से सजे और चांवल से भरे ये करसा (मिट्टी के बर्तन) गौरी गौरा के विवाह में समाज की सहभागिता और समन्वय के प्रतीक हैं-

आजे के दिन म भाई मोर रहीतीस ओ, करसा बोहन बर जइतेव ओ बहिनी

गाड़ा के चक्का ढुलत चले आवे, बिन भाई के बहिनी रोवत चले आवे

अइसन बईगा भड़-भड़ बोकरा, करसा ल फोरय ओ मड़वा ल टोरय

टोरय चारों खूंट, जामे बईठय ओ मानिकचौरी दिया बरय जग अंजारे।।

गौरी गौरा का यह लोकपर्व छत्तीसगढ़ के लोक जीवन में सामाजिक समरसता, समन्वय और भाई चारे को प्रगाढ़ करता है। महिलाएँ मिट्टी के सुवा को टोकनी में रखकर घरों घर सुवा नृत्य करती हैं। सुवा नृत्य गीत में नारी जीवन के सुख-दुख और हर्ष-विषाद की अभिव्यक्ति होती है। नारियाँ अपने भावों को मुखरित कर सुवा के माध्यम से लोक समाज को संदेश भेजतीं हैं। इस सुवा नृत्य से प्राप्त चांवल और राशि गौरी गौरा के विवाह में खर्च के निमित्त प्राप्त जनसहयोग का अनुकरणीय रूप है। महिलाएं गोल घेरा बनाकर हाथ की ताली बजाकर सुवा नृत्य करती हैं और गाती हैं-

तरि हरि ना ना मोर न नरि नाना

मैं का जानवं मैं का करवं मोर राम नइहे ओ

ये दे सीता ल लेगथे लंका के रावन ओ

मैं का जानवं मैं का करवं मोर राम नइहे ओ

काखर हव तुम धिया पतोहिया, काखर हव भौजाई

काखर हव तुम प्रेम सुन्दरी, कोन हरे ले जाई

मैं का जानवं मैं का करवं मोर राम नइहे ओ

दसरथ के हंव धिया पतोहिया, लछमन के भौजाई

रामचंद के प्रेम सुन्दरी, रावन हर ले जाई

मैं का जानवं मैं का करवं मोर राम नइहे ओ

जोगी के रूप धरे निसाचर, दे भिक्षा मोहि माई

ले के भिक्षा अंगन बीच ठाढ़े, रथ में लिए बैठाई

मैं का जानवं मैं का करवं मोर राम नइहे ओ

अतका बात ल सुने जटायु, रथ रोके बिल माई

अगिन बान से मारे निसाचर, चोंचे पंख जरजाई,

मैं का जानवं मैं का करवं मोर राम नइहे ओ ।।

गौरा गीत में गीतों की स्वर लहरी और गंड़वा बाजा का अद्भुत संतुलन मन प्राण में एक अजीब सी हलचल भर देता है। शरीर संगीत से आवेशित हो कांपने लगता है। इसे देव आना कहा जाता है। जिस महिला को देव आता है, बैगा द्वारा उसे माईकरसा दिया जाता है। फिर वह महिला माई करसा लेकर गौरा चंवरा की प्रदक्षिणा करती है। इसे डंडईया चढ़ना कहा जाता है। यह क्रिया गौरी गौरा का मौर सौंपना है। पुरूष साँट व बोड़ा लेते हैं । लोक समाज के इस विवाह कार्य में न कोई छोटा होता है न बड़ा, न कोई जाति देखी जाती है न पाँति, न धनी का भेद होता है, न गरीब का । मालिक- मजदूर सब एक होकर इस गौरव को प्राप्त करते हैं। लोक का ऐसा उदात्त स्वरूप शिष्ट भला कहाँ पायेगा?

एक पतरी रैन मैनी, राय रतन ओ

दुरगा देवी तोरे शीतल

छाँव चौकी चन्दन पीढ़ली गौरी के होथे-

मान जइसे गौरी ओ मान तुम्हारे

तइसे कोरे ध्यान, कोरे असन डोहंड़ी, परवा छछलगे डार

फूल सरवन सागर ओ बंदव ओ

जहाँ गौरी के मान ।।

 

देत ओ दाई दही म मोल बासी

अखरा धवन बर जइहंव ओ दाई

अखरा-अखरा बाबू तुम झन रटिहव

अखरा म बड़े बड़े देवता हे बाबू

अखरा खेलत बाबू ददा तोर जुझगे

पैदा लेवत बाबू भाई तोर जुझगे

मोरे अखरा ल दाई लिपि पोति देईबे

मोरे अखरा म दाई दिया बारि दईबे

तोरे अखरा ल बाबू लिपि पोति देहंव

तोरे अखरा म बाबू दिया बारि देवंह ।।

 

लाले-लाले बरछा, लाले हे खमहारे

लाले हे ईसर राजा, घोड़वा सवारे ।

घोड़वा कुदावत ईसर, पइयाँ ओ लरकिगे

गिर परे माथा ढेला फूले हो ना।

गिरे बर गिरेंव भईया, मैं बर गिरेंव गा

झोंकि लेबे अंचरा लमाये हो न।

बरे बिहई ईसर सब दिन सब दिन,

हम तुम डुमरि के फूले हो ना।।

गौरी की बारात निकले और गाँव का भ्रमण न हो, ऐसा भला कहाँ होगा? पुराणों में ऐसा वर्णित है कि शिवजी की बारात निकली तो बड़ा अजब दृश्य था। भोलेबाबा की बारात में देवता भी थे और नंग-धड़ंग भूत-प्रेतों की टोली भी। कुल मिलाकर बड़ी अजीबो गरीब स्थिति थी। पर यहाँ गौरा की बारात में सारा गाँव शामिल होता है, न देवता के रूप में, न भूत-प्रेत के रूप में बल्कि एक स्वस्थ मन, उदार और लोक हितकारी समाज के रूप में। भगवान शिव अर्थात् गौरा गाँव में सामान्य लोगों के घर ठहरने के लिए स्थान की याचना करते हैं। लोक के आगे आज देव भी याचक बना है-

एक पतरी चढ़ायेन गौरी, खड़े ओ बेलवासी

आमा च आमा पूजेन गौरी, मांगेन चौरासी ।

रौनिया के भौनिया, रंग परे पतुरिया

आगू आगू राम चले, पीछू म भउजईया।

 

ईसर राजा के निकले बराते ओ

सांकुर भईगे खोर

दे तो गउरी तैं सोन के बाहरी ओ

गलिया बहारे ल जावं

हाथ धरे लोटिया, कांधे म धरे पोतिया ओ

गंगा नहाय ल जाय ।

नाहवत नाहवत मोर पोतिया गंवई गे ओ

काला पहिर घर जांव ।

पोतिया के बल्दा मोर पोतिया बिनईबो

उही ल पहिर घर जांव ।

सारा गाँव आज लोक आस्था से परिपूरित है। आबाल-वृद्ध, नारी-पुरूष सबमें लोकत्व का वह दुर्लभ दर्शन होता है जिसे देवत्व प्राप्त कर भी पाना असंभव नहीं तो मुश्किल जरूर है। जहाँ प्रत्येक नारी पुरूष में गौरा का लोकरूप समावेशित है। यह आभास लोक कल्याण के लिए मंगलकारी होने की अनुभूति हैं। लोक के विराट स्वरूप का दिग्दर्शन कराता यह लोकपर्व लोकमानस को गौरवान्वित करता है। विसर्जन की बेला आ चुकी है। लोक मन के एक कोने में आनंद है तो वहीं दूसरे कोने में गौरी गौरा से बिछुड़ने का अवसाद भी। पर यह लोक का वार्षिक आयोजन है। सब चले जा रहे हैं नदी-तालाब की ओर, गौरी गौरा विसर्जन के लिए-

धीरे धीरे रेंगबे गौरी ओ, गोंटी गड़ि जाहि

गोंटी गड़ि जाही गौरी ओ, खड़ा होई जइबे

जाय बर जाबे गौरी ओ, फूल टोरी लाबे

फूलवा के टोरत गौरी ओ, कनिहा पिराही

कनिहा पिराही गौरी ओ, खड़ा होई जाबे

खड़ा होई जाबे गौरी ओ, देईदे असीसे

चुरी अम्मर रहय गौरी ओ, जिओ लाख बरिसे

सुतव गवईया, मोर सुतव बजईया, सुतव सहर कई लोग ।

लोक के साथ संस्कृति और परम्परा का गहरा रिश्ता है। आवश्यकता आज इस बात की है कि यह रिश्ता उसी तरह अक्षुण्य बना रहे। हमारी लोक आस्था कहीं खंडित न हो। ये लोकपर्व हमें जनतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए प्रेरित करते हैं। सामाजिक समरसता की शिक्षा देते हैं। गौरी गौरा के रूप में पार्वती व शिव का लोकावतरण हमें लोक की अस्मिता की रक्षा के लिए ऊर्जश्वित करता है। लोक का उदात्त स्वरूप इसी तरह युगों-युगों तक बना रहे ।

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