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साहित्य मानवता का पक्षधर है: ओड़िया-संस्कृत साहित्यकार गंगाधर गुरू से स्वराज करूण की अंतरंग बातचीत

सम्पादक: स्वराज करुण जी द्वारा उपलब्ध कराया गया यह साक्षात्कार 1 दिसम्बर 1985 को नवभारत के रविवारीय परिशिष्ट में प्रकाशित हुआ था। अब इसे प्रकाशित हुए लगभग 40 वर्ष हो चुके हैं। इस लंबे अंतराल में कई परिवर्तन हुए, लेकिन जो नहीं बदला वह है गंगाधर गुरु की साहित्यिक पहचान। आज वे हमारे बीच भले ही नहीं हैं, लेकिन उनकी साहित्य सेवा और रचनात्मक योगदान आज भी उतने ही प्रासंगिक और प्रेरणादायक हैं। उनका लेखन न केवल समय का दस्तावेज़ है, बल्कि नई पीढ़ी के लिए एक अमूल्य धरोहर भी है, जो आने वाले वर्षों तक स्मरणीय बना रहेगा।
स्वराज करुण 
(ब्लॉगर एवं पत्रकार )

ओड़िया भाषा के सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री गंगाधर गुरु से मैंने लिया था एक विशेष आत्मीय साक्षात्कार, जो दैनिक ‘नवभारत’ के रविवारीय परिशिष्ट में लगभग 40 साल पहले, 1 दिसम्बर 1985 को प्रकाशित हुआ था। श्री गुरु अब इस भौतिक संसार में नहीं हैं, लेकिन उन्हें उनके कालजयी ओड़िया महाकाव्य ‘राजर्षि रामचन्द्र’ के लिए आज भी विशेष रूप से याद किया जाता है। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम की जीवनी पर आधारित उनका यह महाकाव्य पश्चिम ओड़िशा के तहसील मुख्यालय पदमपुर में साहित्य प्रकाशनी संस्था द्वारा वर्ष 1968 में प्रकाशित किया गया था।

श्री गंगाधर गुरु (अब डॉ. गंगाधर गुरु) का साहित्य सृजन मुख्य रूप से भारतीय संस्कृति और आध्यात्मिक चिंतन पर आधारित है। उनकी ओड़िया कविताओं का संकलन ‘वाणी-विलास’ वर्ष 1965 में उनके छद्म नाम ‘विषकंठ वाचस्पति’ के नाम से प्रकाशित हुआ था। देवनागरी लिपि में उनकी संस्कृत कविताओं का संकलन ‘भक्ति पुष्पांजलि’ का प्रकाशन वर्ष 1958 में ब्रह्मपुर (जिला – गंजाम) के शिरोमणि प्रेस ने किया था। श्री गुरु उत्कल विश्वविद्यालय के सिनेट, ओड़िशा माध्यमिक शिक्षा बोर्ड और ओड़िशा साहित्य अकादमी के भी सदस्य रहे।

ओड़िया साहित्य के क्षेत्र में उनके महत्वपूर्ण और अतुलनीय योगदान के लिए सम्बलपुर विश्वविद्यालय द्वारा वर्ष 2000 में आयोजित दीक्षांत समारोह में उन्हें डी. लिट. (डॉक्टर ऑफ लिटरेचर) की मानद उपाधि प्रदान की गई। विश्वविद्यालय में आयोजित समारोह में ओड़िशा के तत्कालीन राज्यपाल श्री एम. एम. राजेन्द्रन ने उन्हें इस मानद उपाधि से विभूषित किया।

कई वर्ष पहले प्रमुख ओड़िया दैनिक ‘प्रजातंत्र’ के बलांगीर में आयोजित रजत जयंती समारोह में इस दैनिक के संस्थापक और ओड़िशा के पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. हरेकृष्ण महताब ने श्री गंगाधर गुरु को विशेष रूप से सम्मानित किया था।

मेरे द्वारा वर्ष 1985 में श्री गुरु से लिए गए इस साक्षात्कार से जुड़ा एक दिलचस्प प्रसंग मुझे याद आ रहा है। जब मैंने प्रकाशित साक्षात्कार का अंक उन्हें भेंट किया, तो उन्होंने मेरे लिखे हुए की तारीफ़ करते हुए धन्यवाद तो दिया, लेकिन मुस्कुराते हुए बोले — “इसमें जो तस्वीर छपी है, वो मेरी नहीं है। शायद छपते समय तकनीकी त्रुटिवश ऐसा हो गया होगा। खैर, कोई बात नहीं। मेरी बातें तुम्हारे माध्यम से हिन्दी पाठकों तक पहुँचीं, यह मेरे लिए सौभाग्य की बात है।”

श्री गुरु का जन्म 28 मई 1928 को ग्राम-आगलपुर (जिला – बलांगीर) में और निधन 25 दिसम्बर 2010 को पदमपुर (जिला – बरगढ़) में हुआ था। उनसे लिए गए इस इंटरव्यू के दौरान ओड़िशा के सुप्रसिद्ध साहित्यकार प्रो. नारायण प्रूसेठ भी मौज़ूद थे, जिन्होंने गंगाधरजी से मेरा परिचय करवाया। लेकिन विडम्बना यह कि दोनों साहित्यिक दिग्गज अब इस दुनिया में नहीं हैं। श्री गुरु के निधन के लगभग एक वर्ष बाद, 25 नवंबर 2011 को बरगढ़ में श्री प्रूसेठ का निधन हो गया। दोनों दिवंगत साहित्यिक विभूतियों को विनम्र नमन करते हुए स्मृति-शेष श्री गुरु से मेरा यह आत्मीय इंटरव्यू यहाँ प्रस्तुत है।

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मैं आभारी हूँ न्यूज एक्सप्रेस डॉट कॉम के सम्पादक आचार्य ललित मुनि (श्री ललित शर्मा) का, जिन्होंने दैनिक ‘नवभारत’ के इस बहुत पुरानी कटिंग के धुंधले हो चुके शब्दों को बड़ी मेहनत से पढ़कर लिपिबद्ध किया। लिप्यांतरण में कुछ हल्की-फुल्की त्रुटियाँ हो गई होंगी। फिर भी मैंने मूल स्क्रिप्ट के कुछ शब्दों को, कुछ वर्तनी संबंधी सामान्य त्रुटियों को आंशिक रूप से संशोधित करने का प्रयास किया है — जैसे उड़िया को ओड़िया और उड़ीसा को ओड़िशा। इसी तरह देवनागरी के अंकों को अंग्रेजी अंकों में परिवर्तित किया है। स्वर्गीय डॉ. गंगाधर गुरु से जुड़ी तस्वीरें उनके सुपुत्र श्री जितेन्द्र नाथ गुरु के सौजन्य से प्राप्त हुई हैं।

🎯साहित्य सृजन की प्रेरणा आपको कैसे मिली?
📝बाल्यकाल में पिताजी से रामायण और महाभारत सुना करता था। इनमें वर्णित कहानियों ने मुझे प्रभावित किया। मैंने महसूस किया कि मानवता के प्रसार में साहित्य एक सशक्त माध्यम बन सकता है।

🎯आपकी पहली रचना कब और कहाँ प्रकाशित हुई?
📝(जरा मुस्कुराकर) पहली रचना तो आज तक कहीं प्रकाशित नहीं हुई, लेकिन प्रथम बार मुझे सन् 1954 में प्रकाशन मिला, जब कटक के झंकार मासिक में मेरी एक छोटी-सी रचना छपी। इससे मेरा उत्साह बढ़ा।

🎯गंगाधर जी, अपने सुदीर्घ साहित्यिक अनुभवों के आधार पर कृपया बताएं कि साहित्य का आदर्श क्या है और साहित्य में आदर्श क्या है?
📝साहित्य का आदर्श है—मानवता की सेवा। जो साहित्य मनुष्य को सत्य पथ पर, सन्मार्ग पर ले जाता है, जनता के हृदय में देवत्व के भाव जागृत करता है—वही श्रेष्ठ साहित्य है। समग्र विश्व की मंगलकामना करते हुए, मनुष्य की अंतर्निहित चिरंतन शक्ति को, सद्प्रवृत्ति को जागृत और उद्दीप्त करना ही साहित्य का लक्ष्य है। मेरे विचार से यही साहित्य का आदर्श भी है। जिस साहित्य में यह आदर्श हो, वही श्रेष्ठ साहित्य है।

🎯अक्सर यह कहा जाता है कि एक लेखक को निष्पक्ष होकर लिखना चाहिए, तो क्या निष्पक्ष होकर भी साहित्य रचना की जा सकती है?
📝लेखक को अथवा साहित्यकार को निष्पक्ष नहीं, बल्कि निर्भीक होना चाहिए। निष्पक्षता असंभव है। साहित्य कभी निष्पक्ष नहीं होता, उसमें पक्षधरता अनिवार्य है और वह केवल मानवता का पक्षधर होता है।

🎯ओड़िया साहित्य में यह पक्षधरता किस रूप में दिखाई देती है?
📝यह बहुत स्पष्ट है। अन्य भाषाओं की तरह ओड़िया में भी मानवता का पक्ष लेने वाले साहित्य की रचना हुई है और हो रही है। स्वर्गीय गंगाधर मेहेर हमारे आदर्श कवि हैं। वे भारतीय संस्कृति के उपासक कवि हैं। उन्होंने ऐसे काव्यों की रचना की है, जो केवल मानवता के प्रति आकृष्ट हैं। तपस्विनी उनका लोकप्रिय महाकाव्य है। सीता का जैसा चरित्र-चित्रण उन्होंने इस महाकाव्य में किया है, वह समकालीन ओड़िया साहित्य में अन्यत्र दुर्लभ है। तपस्विनी न केवल ओड़िया, बल्कि विश्व साहित्य की अनमोल धरोहर है। इसी प्रकार कवि मधुसूदन राव, फकीर मोहन सेनापति हैं, जिनकी रचनाओं में विश्व-कल्याण की भावना विविध रूपों में प्रकट हुई है।  वर्तमान लेखकों में राधा मोहन गणनायक हैं, जो लेखन के माध्यम से मनुष्य की सद्प्रवृत्तियों को जागृत करने के लिए सक्रिय हैं। डॉ. हरेकृष्ण मेहताब का लेखन भी साहित्य की पक्षधरता का हिमायती है। वे मनुष्य की स्वाधीनता के पक्षधर हैं। उनका राजनैतिक लेखन मुझे विशेष रूप से प्रभावित करता है।

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🎯जैसा कि आपने बताया कि डॉ. हरेकृष्ण मेहताब के राजनैतिक लेखन से आप विशेष रूप से प्रभावित हैं, तो मैं जानना चाहूंगा कि साहित्य अपने समय की राजनीति से प्रभावित होता है या राजनीति को प्रभावित करता है?
📝दोनों ही बातें हैं। साहित्य जहाँ अपने समय की राजनीति से प्रभावित होता है, वहीं उसे प्रभावित भी करता है। जो श्रेष्ठ साहित्यकार हैं, जो मानवता के श्रेष्ठ उपासक हैं, जो स्वयं सद्गुण संपन्न हैं—वे राजनीति से प्रभावित हुए बिना, राजनीति को इस प्रकार प्रभावित करते हैं कि देश और समाज का उत्थान हो। आज तो राजनीति का युग है, अतः साहित्य भी उससे अलग रहकर नहीं लिखा जा सकता। लेकिन एक जागरूक लेखक हमेशा इस बात का ध्यान रखता है कि उसकी लेखकीय स्वतंत्रता पर राजनीति हावी न होने पाए।

🎯क्या आज का ओड़िया साहित्य उन लोगों तक पहुँच रहा है, जिनके लिए उसकी रचना हो रही है?
📝सचमुच, यह चिंताजनक है कि वह उन लोगों तक नहीं पहुँच रहा है।

🎯क्यों?
📝मुख्य कारण है—शिक्षा और साक्षरता की कमी।

🎯इधर, आजादी के बाद हिन्दी जगत में साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं की संख्या यद्यपि बढ़ी है, लेकिन उसकी तुलना में अश्लील साहित्य भी फैलता चला गया है। रंगीन पत्र-पत्रिकाओं की बाढ़ आ गई है। अच्छे साहित्य का दायरा सिमटता जा रहा है। क्या यह संकट ओड़िया साहित्य में भी है? यदि है तो इसके क्या कारण हो सकते हैं?
📝मेरी समझ से यह एक राष्ट्रीय समस्या है, जो कमोबेश ओड़िया में भी है। दरअसल, आज का समाज बाह्य आडंबर के प्रसार में लगा हुआ है। अच्छे से अच्छा पहनने और बढ़िया से बढ़िया मकान बनाने की चिंता में उलझे लोग गंभीर साहित्य में रुचि नहीं ले पाते। समाज बहिर्मुखी हो गया है। लोग केवल ऊपरी चमक-दमक और बाह्य विकास चाहते हैं, जबकि साहित्य अंतःकरण के विकास के लिए होता है। फिर अच्छे साहित्य के सामने प्रकाशन का संकट है। व्यावसायिक प्रतियोगिता के इस युग में अधिकांश प्रकाशक भी हल्की-फुल्की, सतही चीजें छापकर अधिक से अधिक लाभ कमाना चाहते हैं।

🎯इस संकट से कैसे निपटा जाए?
📝साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों के संगठित प्रयास से यह समस्या सुलझ सकती है। स्थानीय स्तर पर लघु पत्रिकाओं का प्रकाशन प्रारंभ करें। निराश होने से काम नहीं चलेगा। साहित्यकार तो साधक है और साधना का मार्ग संघर्ष का होता है। रचनाकारों को इस संघर्ष की चुनौती स्वीकारनी ही पड़ेगी।

🎯साहित्य की सबसे सशक्त विधा आप किसे मानते हैं?
📝हर विधा अपने आप में शक्तिसम्पन्न होती है। गल्प और उपन्यास के माध्यम से यदि उदात्त चरित्रों की सृष्टि की जाए, तो पाठक उन्हें शीघ्र ग्रहण कर सकेगा। निबंध, गंभीर विचारों वाले पाठकों को प्रभावित करता है। इसी प्रकार कविता में जो ऊर्जा होती है, वह पाठक को सम्मोहन की सीमा तक प्रभावित कर सकती है। रामायण, महाभारत, गीता जैसे धर्मग्रंथ आज भी अनेक भारतीयों को मुखाग्र हैं।

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🎯मेरी दृष्टि में ओड़िसा के जनजीवन पर धर्म का प्रभाव कुछ ज्यादा ही दिखाई पड़ता है। यहाँ का साहित्य इससे कहाँ तक प्रभावित है? कृपया बताएँ।
📝ओड़िसा तो धर्मभूमि है और यहाँ के जगन्नाथ जी की समग्र भारत में प्रतिष्ठा है। जगन्नाथ जी ने ओड़िया साहित्य को बड़ी सीमा तक प्रभावित किया है। प्राचीन ओड़िया कवियों ने जगन्नाथ जी को केंद्रित करके अनेक रचनाएँ की हैं। यद्यपि जगन्नाथ जी की आलोचना भी हुई है, लेकिन मेरे विचार से वे साम्य के देवता हैं। यही कारण है कि समानता के विचारों वाले इस युग में ओड़िसा के आम जनमानस पर उनका प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। ओड़िया साहित्य में जगन्नाथ चेतना का ही यह प्रभाव है कि पुरी के श्रीमंदिर से ‘निमाल्य’ शीर्षक आध्यात्मिक पत्रिका का प्रकाशन हो रहा है। आज जगन्नाथ चेतना के माध्यम से भी ओड़िया साहित्य में वसुधैव कुटुंबकम् की भावना को अभिव्यक्ति मिल रही है।

🎯आपने हिन्दी की साहित्यिक रचनाओं के रूपांतरण पढ़े होंगे?
📝हाँ, कुछ रचनाएँ पढ़ी हैं मैंने।

🎯हिन्दी के कौन-कौन से साहित्यकारों से आप प्रभावित हुए हैं?
📝कवियों में गोस्वामी तुलसीदास ने मुझे सबसे ज़्यादा प्रभावित किया है। उनके रामचरितमानस से सम्पूर्ण उत्तर भारत को गौरवान्वित होना चाहिए।

🎯राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी की वर्तमान स्थिति पर आप क्या सोचते हैं?
📝हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया गया, यह ठीक है। लेकिन मेरे विचार से यदि राष्ट्रभाषा के रूप में संस्कृत को मान्यता मिलती तो और भी अच्छा होता, क्योंकि संस्कृत भारत की सभी प्रादेशिक भाषाओं की जननी है। संस्कृत भाषा ने सम्पूर्ण विश्व में भारतीय संस्कृति का गौरव बढ़ाया है। मनुष्य किस प्रकार परिभाषित और संस्कारवान बने, संस्कृत के श्लोक और नीतिवाक्य हमें इस बारे में बताते हैं। देश के किसी भी कोने में हम चले जाएँ, लोगों में संस्कृत के प्रति जो आदरभाव है, जो अनुराग है, वह हमें स्पष्ट दिखाई देगा। पर्वों और अनुष्ठानों में संस्कृत के मंत्र हमें देश के प्रत्येक इलाके में सुनने को मिलेंगे। राष्ट्रीय एकता को बनाने में संस्कृत भाषा का उपयोग कल्पनाशीलता के साथ किया जा सकता है।

🎯क्या संस्कृत को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया जाना अभी संभव है?
📝क्यों नहीं? मेरी कल्पना यह है कि संपर्क भाषा के रूप में हिन्दी का स्थान तो सुरक्षित रहेगा ही, सिर्फ राष्ट्रभाषा की श्रेणी में संस्कृत को रखना होगा।

🎯तब राष्ट्रीय लिपि का सवाल उठ सकता है?
📝राष्ट्रीय लिपि के रूप में हमें देवनागरी को मान्यता देनी होगी।

🎯क्या इससे प्रादेशिक लिपियाँ प्रभावित नहीं होंगी?
📝नहीं, प्रादेशिक लिपियों और प्रादेशिक भाषाओं का महत्व ज़रा भी कम नहीं होगा। वर्तमान परिस्थितियों में राष्ट्रीय एकता के लिए एक राष्ट्रभाषा और एक राष्ट्रीय लिपि अत्यंत आवश्यक है। संस्कृत भाषा और देवनागरी लिपि इसके लिए सबसे उपयुक्त हैं।

🎯लेकिन देवनागरी से तो आप भी अनभिज्ञ हैं?
📝मुझे इसका बहुत दुख है, लेकिन ओड़िया लिपि में संस्कृत साहित्य की सेवा करके मैं यह दुख दूर करने का प्रयास कर रहा हूँ।