वैदिक काल से राष्ट्रीय जनचेतना तक की यात्रा : गणेशोत्सव विशेष
ऋद्धि, सिद्धि, बुद्धि के दाता ‘गणपति की हर मंगल कार्यों अग्र पूजा होती है। देवों के देव गणनायक अनंत नामधारी जिनकी महिमा निराली है। हिन्दू देवी-देवताओं में पशु मुखाकृति के एकमेव देव हैं। जिन्हें ‘गणनां त्वां गणपति हवामहे’ ऋग्वेद में कहा गया है। सर्वव्यापी गणपति जिन्हें गजानन, गजास्य, हस्तिमुख, गणपति संबोधित कर वैदिक काल से पूजा गया।
गणेशोत्सव का प्रारंभ
लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने गणेग पूजा परम्परा को संवारकर संस्कृति और जनसंघर्ष का मार्ग प्रशस्त किया। धर्म, संस्कृति और अस्मिता को जीवन्त कर तिलक ने राष्ट्रीय जनचेतना को एक सूत्र में आबद्ध किया। अंग्रेज जब धर्मिक वैमनस्यता के बीज बो चुके थे। उस दौरान ‘गणपति बप्पा मोरिया, पुडच्यावर्षी लवकर या’ का आहवान कर समस्त भारत को जोड़े जाने का कर महती कार्य होने लगा। महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश में विघ्नविनाशक विनायक की स्थापना और विसर्जन के साथ गणेश उत्सव को कलात्मक, सुरुचिपूर्ण और अनुशासन से युक्त किया । उद्घोष करते भक्त गण परम्परागत शस्त्र लिए करतब दिखाते एक नया जोश भरते नजर आते थे।
ओंकार स्वरूप –
भाद्रपद की चतुर्थी को जन्में गणेश का रूप ॐ में समाहित है। इस गूढ़ ध्वनि को उपनिषदों में ‘अ’ ‘उ” ‘म’ इन तीन वर्णों की एकरूपता से किया गया है। संत तुकाराम ने कहा है,
॥ ॐ॥ ओंकार स्वरूप गणेशाचे रूप जो लीन्हीं देवाचें जन्म स्थान ॥ १॥
संत ज्ञानेश्वर इसी तरह कहते हैं,
अकार चरण युगल उकार उदर विशाल।
मकार महामंडल । मस्तकाकारे।
ही तीहीं एक वटले।
तेथे शब्द ब्रह्म
(ॐ) प्रकटले ।
अर्थात “अक्षर, अर्थ, समूहों, रसों, वृन्दों और मंगल करने वाली सरस्वती और गणेश की मैं वंदना करता हूँ।” वेदव्यास के ‘महाभारत’ को लिखने का गुरुतर भार गणेश जी ने ही लिया था।
यजुर्वेद के अश्वमेघाध्याय की ऋचा में गणों के अधिपति स्तुति गाई गई है।
” ॐ गणानां त्वा गणपतिं हवामहे प्रियाणां त्वा प्रियपतिं हवामहे निधिनां त्वा निधिपतिं हवामहे वसो मम आहमजानि गर्भधमा त्वम जासि गर्भधम्।”।
शुक्ल यजुर्वेद में भी गणपति की महिमा गाई गई है। तुलसीदास ने ‘जेहि सुमरन सिधि होई गणनायक, कह कर गणेश को तत्वदृष्टा निरूपित किया है। तत्वज्ञान का सार है,
‘ऊँ नमस्ते गणपतये ।
त्वमेव प्रत्यक्ष तत्वमसि।
-त्वं साक्षारात्मा सिनित्यं ।
-त्वं वांग्मय स्तवं चिन्मय:
-त्वं चत्वारि वाक् पदाति।
– त्वं मूलाधार स्थितोसि नित्यं । -गणादीं पूर्वमुच्चार्थ वर्णादीं तदनंतरं । अनुस्वारः परतरः । अधैन्दुलसितं । तारेणरूद्धं । एतन्तवमनुस्वरूप गकारः पूर्वरूपम् अकारो मध्यम रूपं। अनुस्वारशचांत्य रूपं।
बिन्दुरुत्तर रूपं । नादः संधानं । संः हिताः संधि । सेवा गणेश विद्या । गणक ऋषिः। निचृद गायत्री छंदः।।
गणपति देवता । ॐ गं गणपतये नमः। इदमवर्थशीर्षम्
अशिज्यायं न देयं, इत्यादि (गणपति अथर्वशीर्ष)
वेद को लेकर गणपति के एक हजार नाम कहें गये है। जो महात्मा उनको धारण करते हैं, वे १००८ को अपने नाम के शीर्ष में रखते हैं। गणेश के बारह नामों में उनके स्वरूप और सामर्थ्य का परिचय, इस प्रकार है,
“सुमुखश्चैकदन्तश्च कपिलो गजकर्णकः। लंबोदरश्च विकटो विघ्ननाशो गणाधिपः ॥ धूम्रकेतुतुर्गणाध्यसो भालचंद्रो गजाननः। द्वादशैतानि नामानि यः पठेच्छष्णुयादपि ॥ विधारंभे विवाहे च प्रवेशे निर्गमे तथा संग्रामे संकटे चैव विघ्नस्तस्य न जायते ।”
बहुमुखी शक्ति और स्वरुपगत विलक्षणताओं का परिचय गणेश के बारह नामों समाहित है। गणेश जी को सुन्दर मुखवाला, ‘सुमुख, एकदन्त, एक दाँत वाला, कपिल, सिंदुरिया रंगवाला, गजकर्णक, हाथी के जैसे कानवाला; लंबोदर, लंबे, चौड़े उदर वाला; विकटअतिविशाल; विध्ननाशक विध्नों का नाश करने वाला; गणधिप, गणों का अधिपति; धूम्रकेत, अग्नि के समान रंग वाला; गणाध्यक्ष, देवो का सेनापति; भालचन्द, जिसके मस्तक पर (अदृश्य रूप से) चन्द्रमा बसता हो; गजानन, हाथी के मुखवाला। इन नामों के अनुसार ही विधारंभ करते समय, नयी जगह प्रवेश करते समय, प्रस्थान करते समय गणेश को याद किया जाता है।
गणपति उत्पत्ति –
गणेश का वास्तविक स्वरूप हस्तिमुख है। इनकी उत्पत्ति के संबंध में अनेक पौराणिक कथाएँ है। इनके हस्तिमुख होने की कथा है, इनकी रचना माता पार्वती ने अपने शरीर के मैल से थी। स्नान करते समय माता ने शरीर पर लगाया। उसी से उनकी रचना पिण्ड के रूप में हुई। खेल-खेल में उनकी सखी ने कहा, यह तुम्हारा पुत्र हो तो..! और पार्वती जी ने उसमें पुत्रभाव से प्राण फूंक दिये। अपने इस पुत्र को पार्वती जी ने व्दार पाल की तरह दरवाजे पर बैठा कर कहा,
‘पुत्र में इस समय स्नान कर रही हूँ, मेरी आज्ञा है कि तुम किसी को भीतर न आने देना। गणेश जी व्दार पर बैठ गये। कुछ देर बाद शिवजी वहाँ आये, गणेश से उन्हें दरवाजे पर ही रोक दिया। शिवजी ने क्रोधित हो अपने त्रिशूल से उसका मस्तक ही काट डाला। जब पार्वती जी को मालूम हुआ. तो शिव और शक्ति के बीच महासंग्राम छिड़ गया। चारों ओर हाहाकार मच गया। सभी देवगण दौड़े आये उन्होंने पार्वजी जी को समझाने का प्रयास किया। पार्वती ने कहा,
“जब तक मेरा पुत्र जीवित नहीं होगा मुझे शांति नहीं मिलेगी।”
शिवजी शांत हुए उन्होंने अपने गणों को भेजकर ऐसे जीव का मस्तक कार लाने को कहा जा सधः प्रसूत हो और अपनी माता के विपरीत दिशा में हो। गणों ने आज्ञा का पालन करते हुए एक हाथी के शिशु का मस्तक आये । उसी सिर को गणेश जी के घड़ से अश्वनी कुमारों ने जोड़ दिया और गणेश जी जीवित हो उठे।
अत्यंत पराक्रमी और कर्तव्यनिष्ठ देखकर शिवजी ने गणेश को अपने गणों का स्वामी बनाया। अपनी बुध्दि के बल पर गणेश देवों के देव भी हो गये। तभी से वे अग्रपूज्य हो गये। इसलिए उन्हें विघ्न विनाशक भी कहा गया।
युग काल में गणेश –
आदिकाल से गणेश की स्तुति के अलग अलग प्रमाण मिले हैं। इनकी कथा भिन्न-भिन्न है। सतयुग में सिंहासन आरूढ़ विनायक के स्वरूप में पूजा गया जिनकी दस भुजा थी परन्तु मुख तो हाथी का ही था। त्रेतायुग में गणेश मयूरारूढ़, मयूरेश्वर के नाम से विख्यात थे जिनकी छह भुजा थी। द्वापर में इनका वाहन भूषकराज था तब इनकी चार भुजाएं थी। कलि के अंत में ये धुम्रकेत के नाम से अश्व में सवार होंगे इनका वर्ण भी धुम्र होगा। गणेश पुराण में कहा गया है।
ध्योयोत्सिंहगत विनायकमयं दिम्बाहुमाधे युगे त्रेतायां तु मयूरवाहनभमुं षडबाहुकं सिद्धियय।
द्वापरे तु गजाननं युगभुजं सुनांगराग विभु
तुर्येषु द्विभुजं सितांग रूचिरं सर्वर्थक सर्वदनाम।।
देवों के देव गणेश जी की पूजा, स्थापना और विसर्जन हर बरस भादों मास में किया जाता है। भारत का यह धार्मिक उत्सव देश ही नहीं विदेशों में बड़े भक्ति भाव से मनाया जाता है।
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं पत्रकार हैं।