गणपति के नाम और स्वरूप पुराणों से तांत्रिक पूजा तक
गणपति की उपासना भारत में प्राचीन काल से चली आ रही है। कार्य प्रारम्भ ही श्री गणेश कहा जाता है। देवों के देव गणपति हैं। विघ्न को हरने वाले ‘विघ्नेश्वर’ को वेदों गणपति कहा गया है। ऋग्वेद में गणपति की स्तुति करते हुए कहा गया है,
“हे गणपति तुम सब प्राणियों के स्वामी हो, तुम स्त्रोताओं के मध्य सुशोभित होओ। कार्यकुशल व्यक्तियों में तुम सबसे अधिक बुद्धिमान हो। हमारी ऋचाओं को बढ़ाकर विभिन्न फल वाली करो।”
भगवान विष्णु ने गणेश की स्तुति करते हुए इन्हें एकदन्त नाम दिया। सामवेद में विष्णु ने माता पार्वती को गणपति के ‘नामाष्टक स्रोत’ का स्मरण कराया जो सम्पूर्ण विघ्नों के नाशक हैं। नामाष्टक में गणेश, एकदन्त, हेरम्ब, विघ्ननाशक, लम्बोदर, शूपकर्ण, गजवकत्र, गुहाग्रज नाम दिए हैं।
‘गणेशमेकदन्तं च हेरम्बं विघ्ननायकम। लम्बोदरं शूपकर्ण गजवकत्रं गुहाग्रजम ॥
आत्मस्वरूप गणपति-
उपनिषद काल में भी गणपति की पूजा की परम्परा रही। गणपत्युपनिषद इसका प्रमाण है, जिसमें गणेश जी को कर्ता-धर्ता और प्रत्यक्ष तत्व कहा गया है। जिनके रूपों में साक्षात ब्रह्म व आत्मस्वरूप बताया गया है। स्मृति काल में भी गणेश पूजा का विधान रहा। नवग्रहों के पूजन के पूर्व गणेश की पूजा करने का निर्देश है। इनसे ही लक्ष्मी की प्राप्ति सम्भव होती है। पुराण युग में इस पूजा का उज्ज्वल रूप में उदय हुआ। एक अलग गणेश पुराण की रचना भी इसी काल में की गई। यह तंत्र के पांचों सम्प्रदायों, वैष्णव, शैव, शाक्त, गाणपत्य और सौर के लौकिक और वैदिक शुभ और अशुभ सभी तरह के कार्यों में प्रथम पूज्य हैं।
‘शैवेस्तत्रदीयैरुत वैष्णवैश्य, शाकतैश्व सौरेरपि सर्वकार्ये। शुभाशुभे लैकिक वैदिक च, द्वमर्चनीयः प्रथमं प्रयत्नाम् ॥’
श्री गणेश जी महेशतनय हैं, स्कन्द अथवा षडानन इनके अग्रज हैं, सभी मंगल कार्यों में इनकी पूजा होती है। गणपति अग्रपूजार्ह माने गए हैं। यह पद इन्होंने अपने ज्ञान बल से प्राप्त किया है। पौराणिक कथा के अनुसार पृथ्वी की प्रदक्षिणा करने का श्रम उठाने का प्रयत्न न कर गणेशजी ने प्रणवाक्षर की प्रदक्षिणा देवताओं से पहले की। श्री गणेश चतुर्दश विद्या के प्रभु हैं इसलिए ही इनके भक्तों में बुद्धि की प्रचुरता होती है। गजानन की आकृति सर्वश्रुत है। इनके छोटे चरण तथा विशाल उदर, वक्षस्थल पर पड़ी हुई शुराडा गोलार्ध और एकदन्तरूपी अनुस्वार देखने से प्रणवाक्षर (ॐ) का स्मरण हो आता है। ओंकार स्वरूपी गणेश जी अग्रपूजक माने गए। ॐकार स्वरूप ही परम पवित्र उच्चतम, विचार परिपूर्ण, सर्वथा निर्मल और परिशुद्धता का प्रतीक है। आचरण और मन से शुद्ध, परोपकारी और मितभाषी ये सारे तत्व गणेश की आकृति में समाहित हैं। ये सब गुण ॐ में एकीकृत भाव से हैं। देवाधि देव, गणनायक इन्हें इसलिए ही कहा गया है। दीनों का पालन करने वाले, सम्पदा के दाता, ज्ञानरूप गणपति ने सम्पूर्ण महाभारत लिखा जिसे महर्षि वेदव्यास ने कहा।
यह कौतुक कथा पौराणिक ग्रंथों में है। महर्षि वेदव्यास ने यह शर्त रखी कि वे श्लोक कहेंगे, गणेश जी उसे लिखकर उसका अर्थ भी लिखेंगे। यह धाराप्रवाह क्रम टूटे नहीं। वेदव्यास जी विचारने के साथ कठिन श्लोक कह देते थे, जिसके अर्थ में गणेश जी को देर होती थी, उतनी देर में महर्षि कई श्लोक रच डालते थे। महर्षि वेदव्यास और श्री गणेश दोनों अद्वितीय थे, जिसका फल महाभारत है।
‘प्रणम्य शिरसा देवं गौरीपुत्रं विनायकम्।
भक्तया व्यासः स्मरेन्नित्यमायुः कामार्थ सिद्धये।।
भारत में पूजा अर्चना-
हिन्दू धर्म के साथ अनेक मत, संप्रदाय और पंथ हैं, जिनमें अधिकांशतः अपनी अभिव्यक्ति प्रदर्शित करते हैं। इन्हें अनेक नाम, रूपों में पूजा जाता है। किसी कार्य को प्रारंभ करने का पर्यायवाची शब्द श्रीगणेश ही प्रचलित है। धार्मिक अनुष्ठान, समारोह, वैवाहिक अवसरों में गणेश पूजा का महत्व आज भी विद्यमान है। मंगल कार्यों में इन्हें प्रथम स्मरण किया जाता है। ऋद्धि के स्वामी होने के कारण साधन तथा सामाग्री में, सिद्धि स्वामी होने से श्रीगणेश अपने भक्तों को कभी असिद्धि का दर्शन नहीं होने देते। गोस्वामी तुलसीदास ने गणेश जी की सर्वप्रथम वंदना रामचरित मानस में की है। आगे उन्होंने लिखा है कि “जिन्हें स्मरण करने से सब कार्यसिद्ध हो जाते हैं, जो गुणों के स्वामी और सुंदर हाथी के मुख वाले हैं, वे ही बुद्धि के राशि और शुभ गुणों के स्वामी श्रीगणेश मुझ पर कृपा करें।
‘जो सुमिरत सिधि होई गणनायक करिवर बदन।
करहुँ अनुग्रह सोई बुद्धि रासि सुभ गुन सदना।
विदेशों में तांत्रिक पूजा-
विश्व के अनेक देशों में गणेश जी को आज भी पूजा जाता है। हिन्दू के दूसरे ऐसे कोई देव नहीं जिन्हें दूसरे देशों के निवासी भी पूजते हों। वृहत्तर भारत के साथ जो क्षेत्र पड़ते थे उनमें हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियाँ मिलती हैं, लेकिन अब उन्हें पूजा नहीं जाता। चीन में गणेश पूजा ‘मियाकियों’ के नाम से होती है, जिसका शाब्दिक अर्थ रहस्य है। रहस्यमय पूजा विधान को चीन तक पहुँचाने का श्रेय भारतीय श्रमण वज्रबोधी को है जो अपने शिष्य अमोध वज्र के साथ 720 ईस्वी में पहुँचे थे। जापान में गणेश की पूजा ‘कांगीतेन’ नाम से की जाती है। शिंगोन संप्रदाय ने व्यक्ति और विश्वात्मा में एकात्मता का सिद्धांत मानते हुए ‘कांगीतेन’ नाम से की जाती है। शिंगोन संप्रदाय ने व्यक्ति और विश्वात्मा में एकात्मता का सिद्धांत मानते हुए कांगीतेन की रहस्यमयी मूर्ति की पूजा का विधान बनाया, जिसमें गणेश की युग्ममूर्ति पूजा होती है। यहाँ इनकी पूजा रहस्यमय तांत्रिक ढंगों से पूर्ण होती है जिसमें अनार की बलि दी जाती है। तांत्रिक विधि के अनुरूप इन मूर्तियों को ढांककर रखा जाता है। इन विधियों से गुप्त तंत्र विद्या सीखी जाती है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं साहित्यकार हैं।