घिर घिर आये काले कजरारे मेघ : मनकही
मानसून आने का उल्लास आस बांधे उन किसानों की आखों से प्रगट होता है जो जेठ की तपती हुई धरती माता के दुख से व्यथित होकर आसमान की ओर टकटकी लगाये बादलों की प्रतीक्षा करते हैं। बादलों के छाते ही मोरों के पैर थिरक उठते हैं, पपीहे के बोल फूट पड़ते हैं, दादुरों का राग, झींगुरों का संगीत मुखरित हो उठता है। ऐसा मधुरम संगीत जिसके स्वागत के लिए वो अतिथि कितना अमृतमयी होगा। मानसून के आते ही धरा पर मेघ छा जाते हैं, रिमझिम बरसात से चराचर जीवन धन्य हो उठता है। कवियों ने प्रकृति के इस अनूठे कौतुक को अपने काव्य में पिरोया है।
लोक गायकों ने अपने गीतों के माध्यम से इसकी यशोगाथा गाई है जिनमें बादलों के लिए जीवन्त प्रतीकों का इस्तेमाल किया है। संस्कृत के कवियों ने बादलों को अमृतमयी व वात्सल्य से भरे कहा है तो कहीं उनके विद्रूप रूप को भी प्रस्तुत किया है। महाकवि जयदेव ने बादलों को ऐसे ही दूसरे रूप में प्रस्तुत करते हुए “भामिनी विलास’ में लिखा है कि “धनी से अपने लिए धन लेने वाले का मुँह यदि काला हो तो क्या विचित्रता है कि दूसरों के लिए भी समुद्रों से जल लेने वाले मेघ पूरा का पूरा ही काला हो जाता है,
स्वार्थ धनानि धनिकात् प्रतिगृह्रतो यत् आस्यं, भजेन्मालिनता किमिद विचित्रम, गृहणः परार्थमपि वारिनिधेः पयोऽपिं, मेघोऽयमेति सकलोऽपि च कालिमान्म ।
पौराङ्गनाएं कटाक्षों से मेघ के साथ विलास करती हैं। उज्यियिनी की उन्मादिनियाँ मेघ दर्शन से उन्मन्त हो जाती हैं। जनपद की वधुएं कामपुरुष मेघ के अभिराम रूप का पान करती हैं, किन्तु यह सब निरर्थक नहीं है, उनका लक्ष्य कृषि फल प्राप्ति है। मेध कृषि प्रवर्तक हैं, यदि इनके आगमन में विलंब हो जाये तो संपूर्ण वन प्रकृति विस्फारित नेत्रों से आकाश की ओर एकटक निहारने लगती है। मेघ का सुधावर्षण उनके लिए प्राणद है। कालिदास ने इसलिए ही कहा है,
त्वरयायत्त कृषिफलमिति भूविलासानभिज्ञै:। प्रीति स्निग्धैर्जनपद वधू धूलाचनैः पीयमानः ।।
मानसून के आते ही विरहणी की दशा कैसी हो जाती है उनके विरह को संस्कृत कवियों ने चित्रित किया है। विरहणी वर्षा की शोभा को कातर दृष्टि से देख अपनी सखी से कहती है, “देखो आषाढ़ आ गया है, दसों दिशाओं में मेघ आच्छादित हो चुके हैं। कजरारे बादलों के साथ हवाएँ कैसी अठखेलियाँ कर रही हैं, पर है सखी मेरी आशा मुझे केवल धोखा दे रही है,
आषाढ़ मुहराशा धनैररि ।
प्रिय सखि मम पुनराशा भ्रमयति भूरि ॥
वैसे वर्षा का अनूठा सौंदर्य किसका मन नहीं मोह लेता है। पृथ्वी पर फैली हरियाली और काली घटाओं के बीच रह रह कर प्रदीप्त होती चपला बिजली की चमक अद्भुत दिखती है। कदम्ब के फूलते पेड़ पर नाचते मोरों की थिरकन को देखने इंद्रवधू भी घरा पर आ उतरती है। कविवर नंददास ने अत्यंत सूक्ष्मता से बरसात के मौसम का हृदयग्राही चित्र अपनी काव्य पंक्तियों के माध्यम से दिखाया है,
घन होति हरीरी मही को लखै, निरखै घन जो घनज्योति छटा । अवलोकति इन्द्रवधू की पत्यारी,
विलोकति है खिन कारी घटा ।
ताकि डार कदंबन की बरसे दरसे,
उत नाचत मोर अटा ।
अधऊरध आवत जात भयो,
चित नागरि को नर कैसो बटा ।।
उमड़ते घुमड़ते बरसते काले बादलों के बीच चंचला बिजली रह रह कर थिरक उठती है, कहीं जल-वृष्टि के बाद निष्प्रभ हो श्वेत हो जाना, कैसा सुन्दर व्यतिरेक है। जिसको देख विरही पपीहा बोल उठता है ,कोयल कूक उठती हैं। कलरव करते पक्षियों के साथ दादुर भी सुर मिलाते हैं। विरही का मन इन आवाज़ों को सुन कम्पित हो उठता है। तारों की चमक देख विरहिणी कहती है कि मैं प्रीतम को मना करती रही, जिसके बिना मेरा तन विरह से जल रहा है। सावन के ये बादल मेरी विरहाग्नि को और बढ़ा रहे हैं।”
कविवर मतिराम ने विरहिणी की विषम व्यथा को इन पंक्तियों में उकेरा है,
उमड़ि घुमड़ि धन छोड़त अखंड धार, चंचला उठति तामें तरजि तरजि कै। बरही, पपीहा, भेक, पिग, खग टेरत हैं, धुनि सुनि प्राण प्राण उठे लरजि लरजि कै ।
कहै कवि राम लखि चमक खदोतन की, प्रीतम को रही मैं तो बरजि बरजि बरजि कै।
लगे तन तावन बिना री मनभावन कै,
सावन दुक्न आयो गरजि गरजि कै।।
ग्रीष्म की भीषण ज्वाला को, वर्षा की सौंदर्यमयी अद्भुत छटा अपने आगोश में ले लेती है। धूल के बवंडर बरसात की श्वेत चाँदी सी बूंदों में मिल एकाकार हो जाते हैं। घरा पर सोंधी महक और शीतल प्राणद वायु से सारी जगह हर्षोल्लास हो उठती है। वर्षा जल ग्रहण करने के लिए चातक स्वाति नक्षत्र की प्रतीक्षा करता है। मेंढ़क बादल गर्जना से होड़ लिये टर्राने लगते हैं। स्याह बादलों के बीच कौंधती बिजली क्षण भर को दसों दिशाओं को प्रकाशित कर देती है। पहली वर्षा में बगुलें भी पंक्तिबद्ध हो आकाश में विचरते बागों का सौंदर्य निहारने उड़ान भरने लगते हैं। ऋतुओं का वर्णन करने वाले कवि पद्माकर ने वर्षा का अनूठा चित्रण किया है,
दौरत ददेरी देत दादुर सूं दू़दै दीह, दामिनी दमंकत दिसान में दसा की है,
पहलन बूंदन बिलोक बगुलान बाग.
बंगलान बेगिन बहार बरषा की है।
घने काले बादल चारों ओर से उमड़ते घुमड़ते बरस घिर आये हैं, कविवर द्विजदेव की नायिका अपनी सखी से कहती है, सखी! ऐसी वर्षा मुझे विरह में विष बूंद सी लगती है। उलाहना देते कहती है कि पापी पपीहा तुझे मेरी सौगंध, ऐसी छटा में अपना दांव मत चूक जो बार बार प्रीतम की ढेर लगाये हुए मुझे सुना रहा है,
घहरि घहरि घन सघन चहूंधा घेरि, छहरि छहरि विष बूंद बरसावै ना। द्विजदेव की सौ अब चूक मत दाव ऐरे पातकी पपीहा तू पिया की धुनि गावै ना।
मुक्त नीले आकाश में श्याम वर्णी मेघमालाएँ बलखाती हवाओं के साथ विहंग स्वच्छंद तौड़े भरती हैं। मानों सौंदर्य की श्यामवर्णी अमृतमयी प्रतिमा आ खड़ी हो। स्वच्छन्द भाव प्रवाह गैरिक निर्झर की तरह अमर टेक भरती हुई वर्षा ऋतु आज भी अपनी. नूतनता में विलक्षण है। अनिर्वचनीय सौंदर्य की भावना हमें न जाने किस लोक में पहुंचा देती है, इसी भावना में बह कर कबीरदास ने भी वर्षा का गुण -गान इस तरह किया है,
गगन गरज बरसे अभी,
बादल गहिर गंभीर, चहुँदिसि दमके दामिनी,
भीजै दास कबीर ।
बरसात के आगमन की प्रतीक्षा सभी को रहती है। बरसते मेह के कण सबकी प्यास बुझाते हैं। कवि रहीम ने अपने दोहे में इन्हीं भावों पर अच्छा व्यतिरेक प्रस्तुत किया है। जब मेंढक, मोर, पपीहा और किसान भी सरोवर की उपेक्षा कर बादलों के लिए प्रतीक्षा करते हैं,
दादुर, मोर, किसान लग्यो रहे घन माहि, रहिमन चातक रहिन के सरवरि को कोऊ नाहि।
प्राचीन कवियों के साथ लोक गायकों तक ने मेघों की यशोगाथा गाई है। बरसते पानी में आनंदित हो लोक गायकों, वादकों के हाथ उन परम्परागत वाद्यों पर थिरक उठते हैं। मन में भरा उल्लास होठों तक आ गीतों में प्रस्फुटित हो उठता है। जीवन को जीवन्त बनाते लोकगायक अपने साथियों के सँग बरसते मेह में खेतों पर आ सुमधुर तान के साथ आ जुटते हैं अपने काम पर। छतीसगढ़ी कवि लक्ष्मण मस्तूरिहा ने अपने गीत में कहते हैं,
चल चल गा किसान बोये चली धान, आसाढ़ आगे गा ।
जेठ बइसाख तापे भारी घाम,
अकरस के नांगर तपो डारे चाम,
अब किड़कथे बिजली ले ले तोर नाम,
आसाढ़ आगे गा ।।..
कालिदास ने अनेकों काव्य रचनाओं के साथ साथ ग्रंथ भी लिखे हैं, मेघदूत उनकी अमर काव्यकृति है, जिसमें उन्होने मेघों को संदेश वाहक बनाया है। यह जीवन्त प्रतीक आज भी अनूठा सी लगती है। बादलों को संदेश वाहक बनाते समय कालिदास का मन कितना व्यथित होगा! इस की कल्पना करना सहज नहीं है। कालिदास की इन्हीं भावनाओं पर कवि नागार्जुन ने मर्म कटाक्ष करते के हुए कहते हैं,
वर्षा ऋतु की स्निग्ध भूमिका,
प्रथम दिवस आषाढ़ मास का रोया यश्च कि तुम रोगे थे, कालिदास सच सच बतलाना ||
लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं संस्कृति के जानकार हैं।