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छत्तीसगढ़ में हाथी-मानव संघर्ष में सहअस्तित्व ही है समाधान : विश्व हाथी दिवस विशेष

आचार्य ललित मुनि

प्राचीन काल से छत्तीसगढ के वन, हाथियों की आदर्श शरण स्थली रहे हैं। विशेषकर सरगुजा अंचल हाथियों के लिए प्रसिद्ध रहा है। मान्यता है कि इंद्र के एरावत जैसे सुंदर गजों के स्वर यहां के वनों में गूंजने के कारण इस अंचल का नाम सुरगजा (surgaja) लोक प्रसिद्ध हुआ। कई बार यहां के हाथियों का दर्शन लाभ मुझे भी हुए। अबकि बार की सरगुजा बाईक यात्रा के दौरान प्रतापपुर के घाटपेंडारी में 32 हाथियों के दल की उपस्थिति मिली।

आज हाथियों की उपस्थिति छत्तीसगढ़ में सब जगह दिखाई देती है। सरगुजा से लेकर कोरबा, बार नवापारा, गोमर्डा सारंगढ़, सीता नदी तक हाथियों की उपस्थिति सतत बनी रहती है। एक बार तो हाथी रायपुर की नई राजधानी के समीप मंदिर हसौद तक पहुंच गये थे। इस तरह दिखाई दे रहा है कि हाथी और मानव संघर्ष बढ़ रहा है। विडम्बना है कि दोनों को ही वनवास करना है पर दोनो को ही एक दूसरे की उपस्थिति फूटी आंख भी नहीं सुहा रही।

जिसके दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं। वन विभाग की रिपोर्ट्स के अनुसार, 2000 से 2023 तक 828 घटनाएं दर्ज हुईं, जिनमें 737 मानव मौतें और 91 लोग घायल हुए। वहीं, कई हाथियों की भी जान गई, खासकर बिजली के तारों से करंट लगने, रेल दुर्घटनाओं और अवैध शिकार के कारण। ग्रामीण मानते हैं कि हाथी उनके क्षेत्र का अतिक्रमण कर रहे हैं और जंगल हाथियों की बपौती है। निर्वहन करने कहां जाएगें?

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छत्तीसगढ़ में हाथी-मानव संघर्ष की शुरुआत लगभग 1980 के दशक में हुई, जब ओडिशा और झारखंड से यहां प्रवास कर आए। उस समय राज्य में हाथियों की कोई स्थानीय जनसंख्या नहीं थी, लेकिन छत्तीसगढ़ में वनों की सघनता (44%) और संसाधनों की उपलब्धता ने उन्हें यहां ठहरने के लिए आकर्षित किया। 2000 तक यह संख्या बढ़कर 250-300 हो गई, और 2012 तक 247 पहुंच गई। 2022 तक छत्तीसगढ़ में हाथियों की अनुमानित संख्या 450 थी। राज्य के उत्तरी जिलों जैसे सूरजपुर, कोरबा, रायगढ़, जशपुर, महासमुंद, सारंगढ़ और धमतरी में यह संघर्ष सबसे अधिक है।

अगर इतिहास देखें तो पता चलता है कि हाथी प्राचीन गलियारों का उपयोग करते हैं, जहाँ अब मकान बन गये और मानव की उपस्थिति हो गई है। 2000 से पहले संघर्ष कम था, लेकिन वनों के कटने और खनन के कारण इलाका छोटे होने से इनका संघर्ष और बढ़ गया। वन विभाग की रिपोर्ट्स के अनुसार, 2000 से 2023 तक 828 घटनाएं दर्ज हुईं, जिनमें 737 मानव मौतें और 91 घायल हुए। यह संघर्ष न केवल स्थानीय समुदायों को प्रभावित करता है, बल्कि हाथियों की मृत्यु दर को भी बढ़ाता है, जैसे कि विद्युतीकरण से मौतें।

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हाथी-मानव संघर्ष के मुख्य कारण निवास स्थान का विखंडन, कृषि विस्तार और संसाधनों की कमी हैं। छत्तीसगढ़ में कोयला खनन ने हाथी गलियारों को नष्ट कर दिया है, जिससे हाथी मानव बस्तियों में घुसते हैं। लैंटाना कैमारा जैसे आक्रामक पौधों ने हाथियों के प्राकृतिक भोजन को प्रभावित किया, उन्हें फसलों की ओर धकेला। पानी की कमी भी एक प्रमुख कारण है, सूखे क्षेत्रों में हाथी गांवों में पानी तलाशते हैं।

यह संघर्ष केवल मानव जीवन को ही नहीं, बल्कि हाथियों के अस्तित्व को भी खतरे में डाल रहा है। लगातार बढ़ते टकराव से न केवल मौतों का आंकड़ा बढ़ रहा है, बल्कि मानव और हाथी दोनों के बीच अविश्वास गहराता जा रहा है।

समाधान के लिए कुछ प्रभावी कदम उठाए जा सकते हैं, जैसे—

  • हाथियों के गलियारों को पुनर्जीवित करना और अवैध अतिक्रमण हटाना।

  • तकनीक आधारित ट्रैकिंग और एआई की मदद से उनकी गतिविधियों की निगरानी करना।

  • गांवों में चेतावनी प्रणाली और सुरक्षित बाड़बंदी विकसित करना।

  • समुदाय को जागरूक करना कि हाथियों के साथ सह-अस्तित्व ही दीर्घकालिक समाधान है।

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छत्तीसगढ़ में हाथी-मानव संघर्ष एक बड़ी समस्या है, जो पर्यावरण असंतुलन और मानव विकास के बीच संघर्ष को दर्शाता है। हाथी और मानव मौतों का आंकड़ा लगातार बढते जा रहा है। बिना प्रभावी हस्तक्षेप के यह संघर्ष और बढ़ेगा। हालांकि, ट्रैकिंग, एआई और समुदाय भागीदारी जैसे उपाय आशा की किरण हैं।

इस आपसी मुड़भेड़ में प्रतिवर्ष कईयों के प्राण हरण होते हैं। ऐसी स्थिति में वनांचल निवासियों को हाथियों को स्वीकार करना होगा तथा सह अस्तित्व मानकर निर्वहन करना होगा। तुम उनके रास्ते मे न आओ वे तुम्हारे रास्ते हे नहीं है। जब तक दोनो एक दूसरे की उपस्थिति स्वीकार नहीं करेगें तब तक दोनो का ही जीना कठिन है। अब हाथी मेरे साथी बनाकर ही जीने से समस्या का हल निकल सकता है।