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पृथ्वी मेरी माता है और मैं उसका पुत्र हूँ : पृथ्वी दिवस विशेष

आचार्य ललित मुनि

हमारी सनातन वैदिक संस्कृति में पृथ्वी और प्रकृति को केवल भौतिक संसाधन नहीं, बल्कि जीवंत, पूज्य और मातृस्वरूप माना गया है। वेदों, उपनिषदों और पुराणों में प्रकृति के प्रति गहन श्रद्धा, संरक्षण और सह-अस्तित्व की भावना स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। वेद सनातन संस्कृति के प्राचीनतम ग्रंथ हैं, जो मानव जीवन के लिए ज्ञान और मार्गदर्शन देते हैं। इनमें पृथ्वी और प्रकृति को एक जीवित और पवित्र इकाई के रूप में बताया गया है। अथर्ववेद के ‘पृथ्वी सूक्त’ में पृथ्वी को माता के रूप में संबोधित किया गया है।

“माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः”
अर्थात, “पृथ्वी मेरी माता है और मैं उसका पुत्र हूँ।”

इस सूक्त में पृथ्वी को धारण करने वाले तत्वों का वर्णन करते हुए कहा गया है-

“सत्यं वृहदृमुप्रं दीक्षा तयो ब्रह्म यज्ञः पृथवीं धारयन्ति”
अर्थात, सत्य, व्रत, दीक्षा, ब्रह्म और यज्ञ पृथ्वी को धारण करते हैं।

उपरोक्त मंत्र दर्शाते है कि पृथ्वी केवल भौतिक आधार नहीं, बल्कि आध्यात्मिक और नैतिक मूल्यों से पोषित होती है। वेदों में प्रकृति के विभिन्न तत्वों जैसे अग्नि, वायु, सूर्य और जल को देवताओं के रूप में पूजा जाता है  उपासना की जाती है। ऋग्वेद में अग्नि को यज्ञ का केंद्र माना गया है, जो प्रकृति और मानव के बीच एक सेतु के रूप में कार्य करता है।

स्वामी दयानंद सरस्वती के अनुसार, वेद जीव (आत्मा), ईश्वर (परमात्मा) और प्रकृति (प्रकृति) के स्वरूप का ज्ञान प्रदान करते हैं, जिसमें प्रकृति को एक शाश्वत और मूलभूत सत्ता के रूप में देखा गया है (वेदों का महत्व)। इसके अतिरिक्त, अथर्ववेद में एक श्लोक प्रकृति के महत्व को बताता है –

“यथा द्यौः च पृथिवी च न बिभीतो न रिष्यतः। एव मे प्राण मा बिभेः।”
अर्थात, “जैसे आकाश और पृथ्वी न डरते हैं और नष्ट नहीं होते, वैसे ही मेरा प्राण भी न डरे।” यह प्रकृति की स्थिरता और मानव जीवन के साथ उसके गहरे संबंध को रेखांकित करता है। 

वेदों में प्रकृति के तत्वों को देवताओं के रूप में देखा गया है। वैदिक संस्कृति में प्रकृति के तत्वों जैसे अग्नि, सूर्य, वायु और सोम को देवताओं के रूप में पूजा जाता था। ये तत्व यज्ञ और अनुष्ठानों में प्रमुख थे, जो प्रकृति और मानव के बीच संबंध से विज्ञ कराते हैं। उपासना की यह प्रथा प्रकृति की पवित्रता और मानव जीवन के साथ उसके अंतर्संबंध को रेखांकित करती है। आधुनिक पर्यावरण संरक्षण के संदर्भ में ये शिक्षाएँ प्रासंगिक हैं, जो प्रकृति के प्रति सम्मान को बढ़ाती हैं।

वैदिक लोग इन तत्वों की पूजा विभिन्न अनुष्ठानों और भजनों के माध्यम से करते थे। अग्नि की पूजा यज्ञ के दौरान की जाती थी, जिसमें हवि (अर्पण) अग्नि के माध्यम से देवताओं तक पहुँचाई जाती थी। सूर्य की पूजा सूर्य नमस्कार और गायत्री मंत्र के जाप के साथ की जाती थी, जो सूर्य की जीवनदायिनी शक्ति को स्वीकार करता है। वायु की पूजा प्राणायाम और यज्ञ के दौरान वायु की शुद्धता को बनाए रखने के लिए की जाती थी। सोम औषधि की पूजा यज्ञ में सोमरस अर्पित करके की जाती थी, जो आध्यात्मिक और शारीरिक पोषण का प्रतीक था। इन कर्मकाण्डों से प्रकृति के प्रति गहरी श्रद्धा और उसके साथ सामंजस्य बनाए रखने की इच्छा दिखाई देती हैं।

उपनिषद वेदों का सार हैं और आध्यात्मिक दर्शन के स्रोत माने जाते हैं। इनमें प्रकृति को मानव जीवन के प्रमुख तत्व के रुप में जोड़ा गया है। वृहदारण्यकोपनिषद् में याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी से कहा-

“इयं पृथ्वी सर्वेषां भूतानां मधु; अस्यै पृथिव्यै सर्वाणि भूतानि मधु”
अर्थात, “यह पृथ्वी सभी प्राणियों के लिए मधुर है, और सभी प्राणी पृथ्वी के लिए मधुर हैं।”

उपरोक्त मंत्र परस्पर निर्भरता और सह-अस्तित्व की भावना को व्यक्त करता है, जहाँ प्रकृति और प्राणी एक-दूसरे के पूरक हैं। उपनिषदों में प्रकृति को आध्यात्मिक और दार्शनिक रूपक के रूप में उपयोग किया गया है। नदियाँ, समुद्र, पर्वत और वृक्ष उपनिषदों की कथाओं में पात्रों के रूप में प्रकट होते हैं, जो वैदिक व्याख्याओं को सरल बनाते हैं।

उपनिषदों में प्रकृति का उपयोग ब्रह्म और आत्मा की खोज के लिए रूपक के रूप में किया गया है। वैदिक काल में लोग प्रकृति की सुंदरता से प्रेरित थे और प्राकृतिक आपदाओं से सुरक्षा के लिए अनुष्ठान करते थे, जो प्रकृति के प्रति उनकी श्रद्धा को दर्शाता है। उपनिषदों की रचना हिमालय की तलहटी, गंगा के निचले क्षेत्र और विंध्य पर्वतों जैसे प्राकृतिक स्थानों में हुई, जो प्रकृति के साथ उनके गहरे संबंध को दर्शाता है।

वेदों और उपनिषदों में पर्यावरण संरक्षण की अवधारणा स्पष्ट रूप से व्यक्त की गई है। यजुर्वेद में पर्यावरण की शांति और संतुलन के लिए प्रार्थना की गई है-

“द्योः शान्तिः, अन्तरिक्षं शान्तिः, पृथ्वी शान्तिः, आपः शान्तिः, औषधयः शान्तिः…”
अर्थात, “आकाश, अंतरिक्ष, पृथ्वी, जल, औषधियाँ सभी शांतिपूर्ण हों।”

यह मंत्र सम्पूर्ण सृष्टि में संतुलन और शांति की कामना करता है। इसके अतिरिक्त, भारतीय परंपरा में वृक्षों और वनस्पतियों को देवतुल्य माना गया है। पीपल, नीम, तुलसी, बिल्व और शमी जैसे वृक्षों की पूजा की जाती है। वाराह पुराण में कहा गया है कि जो व्यक्ति पीपल, नीम, बरगद आदि वृक्ष लगाता है, वह नरक में नहीं जाता।

आज के समय में जब पर्यावरण संकट एक वैश्विक चुनौती बन गया है, लोग पृथ्वी का अन्धाधुंध दोहन कर उसे बरबाद करने में तुले हैं तब वेदों और उपनिषदों की शिक्षाएँ अत्यंत प्रासंगिक हैं। ये शिक्षाएँ हमें याद दिलाती हैं कि प्रकृति को केवल एक संसाधन के रूप में नहीं, बल्कि एक जीवित और पूज्य तत्व के रूप में देखना चाहिए। वेदों और उपनिषदों में प्रकृति के साथ सह-अस्तित्व और उसका संरक्षण करने का संदेश न केवल आध्यात्मिक, बल्कि वैज्ञानिक और पर्यावरणीय दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण है।

सनातन संस्कृति में प्रकृति के साथ संबंध को एक पारस्परिक संबंध के रूप में देखा गया है, जहाँ मानव प्रकृति पर निर्भर है और प्रकृति भी मानव पर। सनातन संस्कृति में पृथ्वी और प्रकृति को केवल संसाधन नहीं, बल्कि जीवंत, पूज्य और मातृरूप में देखा गया है। वेदों और उपनिषदों की शिक्षाएँ हमें सिखाती हैं कि प्रकृति के साथ संतुलन और सम्मानपूर्ण संबंध ही मानवता के लिए कल्याणकारी हैं। आज के युग में जब पर्यावरणीय चुनौतियाँ बढ़ रही हैं, इन शिक्षाओं को अपनाना न केवल आवश्यक है, बल्कि अनिवार्य भी। प्रकृति के प्रति श्रद्धा और संरक्षण की भावना को पुनर्जनन करके हम एक सतत और संतुलित भविष्य की ओर अग्रसर हो सकते हैं तथा पृथ्वी को दुर्गति से बचा सकते हैं।