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शिक्षा, दर्शन और भारतीय संस्कृति के आलोकपुंज : डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन

रेखा पाण्डेय (लिपि)

डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन प्रख्यात शिक्षाविद, महान दार्शनिक और भारतीय संस्कृति के संवाहक एवं राजनेता थे। सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्म 5 सितंबर 1888 को चित्तुर जिले के तिरुतनी ग्राम में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। तिरुतनी चेन्नई से 84 किलोमीटर दूर 1960 तक आंध्रप्रदेश में स्थित था। वर्तमान में तमिलनाडु के तिरुवल्लुवर जिले में पड़ता है। इनके पुरखे सर्वपल्ली नामक ग्राम में रहते थे। इनके पिता का नाम सर्वपल्ली वीरासमियाह और माता का नाम सीताम्मा था। पिता राजस्व विभाग में काम करते थे। उन पर बड़े परिवार के भरण-पोषण का उत्तरदायित्व था। वीरास्वामी के पांच पुत्रियां और एक पुत्र थे। राधाकृष्णन दूसरे स्थान पर थे।

राधकृष्णन का बाल्यकाल तिरूतनी एवं तिरुपति जैसे धार्मिक स्थलों पर ही व्यतीत हुआ। आठ वर्ष तिरुतनी में बिताए। उनके पिता पुराने विचारों के एवं धार्मिक प्रवृत्ति के थे, किंतु राधकृष्णन को क्रिश्चियन मिशनरी संस्था लुथर्न मिशन स्कूल, तिरूपति में 1896-1900 के मध्य विद्याध्ययन के लिए भेजा। अगले 4 वर्ष 1900-1904 की शिक्षा वेल्लूर में हुई। तत्पश्चात मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज, मद्रास में शिक्षा प्राप्त की। राधकृष्णन बचपन से ही मेधावी थे।

अपने अध्ययन काल के 12 वर्षों में उन्होंने बाइबिल के महत्वपूर्ण अंशों को याद कर लिया। 1902 में मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण की और छात्रवृत्ति भी प्राप्त हुई। राधकृष्णन ने स्वामी विवेकानंद एवं अन्य महान विचारकों का अध्ययन किया। 1905 में कला संकाय परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। दर्शनशास्त्र से एम. ए. करने के पश्चात 1918 में मैसूर महाविद्यालय में दर्शनशास्त्र के सहायक प्राध्यापक हो गए। बाद में प्राध्यापक हो गए। डॉ. राधकृष्णन ने अपने लेखों और भाषण के माध्यम से विश्व को भारतीय दर्शन से परिचित कराया।

राधकृष्णन द्वारा लिखी गई पहली पुस्तक वर्ष 1918 में रविन्द्रनाथ टैगोर के दर्शन पर आधारित थी। उनकी दूसरी पुस्तक 1923 में भारतीय दर्शन नाम से प्रकाशित हुई। 1926 में द हिंदू व्यू ऑफ लाइफ राधकृष्णन तीसरी पुस्तक प्रकाशित हुई, जो हिन्दू दर्शन एवं मान्यताओं पर आधारित थी। डॉ. राधकृष्णन ने 1952 से 1962 तक भारत के प्रथम उपराष्ट्रपति एवं 1962 से 1967 तक भारत के दूसरे राष्ट्रपति के रूप में कार्य किया। उनके शिक्षा के प्रति समर्पण और उत्कृष्ट योगदान के कारण उनके जन्मदिन 5 सितंबर को शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है।

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डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का शिक्षा और जीवन दर्शन—
डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का भारतीय शिक्षा में महत्त्वपूर्ण योगदान है। उन्होंने शिक्षा को ज्ञान से अधिक चरित्र निर्माण और मन को आलोकित करने का साधन बताया। 1947 में आज़ादी के बाद यह आवश्यकता अनुभव की गई कि देश की विश्वविद्यालयीन शिक्षा की पुनर्रचना की जाए, जिससे वह राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक पुनरुत्थान में सहायक हो सके तथा वैज्ञानिक, तकनीकी एवं अन्य प्रकार की मानव शक्ति का विकास भी सुनिश्चित करे। 1948 में विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग में उनके योगदान ने देश में विश्वविद्यालयों की स्थापना और शोध उन्मुख शिक्षा को बढ़ावा दिया। उनका मानना था कि शिक्षक देश की रीढ़ होते हैं। समाज एवं राष्ट्र निर्माण में इनकी भूमिका महत्वपूर्ण होती है।

व्यक्ति और समाज के विकास पर जोर देते हुए आत्मा दीपो भव अर्थात स्वयं को प्रकाशित करो का सिद्धांत आज भी प्रासंगिक है। शैक्षणिक सिद्धान्त देने के साथ उन्होंने व्यवहारिक परिस्थितियों में शिक्षण करके अपने विचारों को क्रियान्वित किया। व्यक्ति के चरित्र निर्माण में उसकी शिक्षा ही कायिक, वाचिक और मानसिक विशुद्धि का लक्ष्य रखती है। डॉ. राधकृष्णन ने शिक्षा का केंद्र विद्यार्थी को माना है। इसलिए विद्यार्थियों में नैतिक, आध्यात्मिक, सामाजिक, व्यावसायिक आदि मूल्यों का संचार करने का प्रयास करना चाहिए। उनके अनुसार विद्यार्थियों को प्रकृति प्रेम, मानवतावाद, समन्वय, सहयोग की शिक्षा प्रदान करना चाहिए।

डॉ. राधकृष्णन जी के अनुसार — शिक्षक का कार्य केवल ज्ञान को पढ़ाना नहीं है, अपितु विद्यार्थियों के मन में उत्साह एवं जिज्ञासा को जगाना भी है। एक शिक्षक अपने विद्यार्थियों को आत्मविश्वास और साहस के साथ जीवन का सामना करने के लिए तैयार करता है। शिक्षक वह नहीं जो छात्र के दिमाग में तथ्यों को जबरन ठूंसे, बल्कि वास्तविक शिक्षक तो वह है जो आने वाले कल की चुनौतियों के लिए तैयार करे।

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शिक्षा जीवनपर्यंत चलने वाली सतत प्रक्रिया है। मनुष्य, शिक्षक से सीखता है, स्वयं से सीखता है, जीवन के अनुभवों से सीखता है। घर, समुदाय, पत्र-पत्रिकाओं, अन्य इलेक्ट्रॉनिक तकनीकियों से सीखता है। प्रत्येक क्षण, हर कदम में निरंतर और आजीवन सीखता है। शिक्षा का महत्व केवल ज्ञान और कौशल का विकास ही नहीं बल्कि नैतिक गुणों के विकास में सहायक होती है।

डॉ. राधकृष्णन के विचार को शिक्षा आयोग (1964-65) ने इन शब्दों में पुष्ट किया — ’’स्कूल की पढ़ाई के बाद शिक्षा समाप्त नहीं होती बल्कि वह एक जीवनव्यापी प्रक्रिया है। शिक्षा रूपान्तरण की प्रक्रिया है। इसके माध्यम से व्यक्ति अपने जन्मजात स्वरूप को मानव स्वरूप में बदल सकता है। साथ ही वह अपने आंतरिक स्वरूप को जानने में समर्थ होता है। स्वयं के अनुभवों से सीखकर प्राप्त की गई समझदारी को पारस्परिक क्रियाओं के माध्यम से ज्ञान की प्राप्ति कर सकता है।’’ उनके अनुसार ज्ञान-विवेक के अभाव में कुछ भी नहीं है। शिक्षा मानव के पूर्ण विकास की प्रक्रिया के रूप में कार्य करती है।

डॉ. राधकृष्णन ने अपने युग की परिस्थितियों से प्रभावित होकर कहा — “भारत सहित सारे संसार के कष्टों का कारण यह है कि शिक्षा का संबंध नैतिक तथा आध्यात्मिक मूल्यों की प्राप्ति से न रहकर केवल मस्तिष्क के विकास से रह गया है।” राधकृष्णन शिक्षक को राष्ट्र के भावी नागरिकों का निर्माण कर्ता मानते हैं। वे मानवतावादी विचारक तथा प्राचीन भारतीय संस्कृति के समर्थक होने के नाते शिक्षक को महत्वपूर्ण स्थान प्रदान करते हैं।

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उनके अनुसार — “जिस व्यक्ति की आत्मा से दूसरी आत्मा में शक्ति का संचार होता है, वह गुरु कहलाता है और जिसकी आत्मा में यह संचरित होती है उसे शिष्य कहते हैं।” उन्होंने शिक्षक और छात्र के संबंध को अभिभावक एवं बालक के रूप में स्वीकारा है।

डॉ. राधकृष्णन ने हिन्दुवादिता का गहरा अध्ययन किया। वे जानना चाहते थे कि किस संस्कृति के विचारों में चेतनता है और किस संस्कृति के विचारों में जड़ता है। उन्हें यह दृढ़ विश्वास था कि भारत के दूरस्थ स्थानों पर रहने वाले गरीब, अनपढ़ व्यक्ति भी प्राचीन सत्य को जानते थे। इस कारण राधकृष्णन ने तुलनात्मक रूप से यह जाना कि भारतीय आध्यात्म काफी समृद्ध है। भारतीय संस्कृति, धर्म ज्ञान और सत्य पर आधारित है, जो प्राणी को जीवन का सच्चा सन्देश देती है। व्यक्ति को सुख-दुःख में समभाव रहना चाहिए। मृत्यु एक अटल सत्य है, जो किसी भी प्रकार का भेद-भाव नहीं करती।

डॉ. राधकृष्णन भारतीय संस्कृति के नैतिक मूल्यों को समझ पाने में सफल रहे। उनके अनुसार आलोचनाएं परिशुद्धि का कार्य करती हैं। सभी माताएं अपने बच्चों में उच्च संस्कार देखना चाहती हैं। इस कारण वे बच्चों को ईश्वर पर विश्वास रखने, पाप से दूर रहने एवं मुसीबत में फंसे लोगों की मदद करने का पाठ सिखाती हैं।

डॉ. सर्वपल्ली राधकृष्णन ने यह भी जाना कि भारतीय संस्कृति में सभी धर्मों का आदर करना सिखाया गया है और सभी धर्मों के लिए समता भाव भी हिन्दू संस्कृति की विशिष्ट पहचान है। उन्होंने हिन्दू धर्म को वेदांत और आत्मा के धर्म के रूप में पहचाना। उनके इन्हीं गुणों के कारण सन् 1954 में भारत सरकार ने उन्हें सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से अलंकृत किया था। उनका निधन 17 अप्रैल, 1975 को हुआ।

लेखिका साहित्यकार एवं हिन्दी व्याख्याता हैं।