छत्तीसगढ़ी चेतना के संवाहक: डॉ. खूबचंद बघेल

आज 19 जुलाई को हम स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, समाज सुधारक और छत्तीसगढ़ के महान सपूत डॉ. खूबचंद बघेल की जयंती के अवसर पर उन्हें श्रद्धापूर्वक स्मरण करते हैं। वे केवल स्वतंत्रता सेनानी ही नहीं थे, बल्कि स्वतंत्र भारत में छत्तीसगढ़ की पहचान, अधिकार और अस्मिता के संघर्ष के अग्रदूत भी थे।
डॉ. बघेल ने स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भागीदारी निभाई और आज़ादी के बाद कांग्रेस के भीतर आचार्य जे. बी. कृपलानी के नेतृत्व में लोकतांत्रिक मूल्यों की पैरवी करते हुए पंडित नेहरू की नीतियों से असहमति जताई। परिणामस्वरूप वे कांग्रेस से अलग होकर प्रजा सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हुए, जो किसान मजदूर प्रजा पार्टी और सोशलिस्ट पार्टी के विलय से बनी थी।
मध्यभारत में प्रखर विपक्ष की भूमिका
प्रजा सोशलिस्ट पार्टी ने तत्कालीन सीपी एंड बरार (वर्तमान मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़) में विपक्ष की मजबूत भूमिका निभाई। त्यागमूर्ति ठाकुर प्यारे लाल सिंह रायपुर से विधायक चुने गए और नेता प्रतिपक्ष बने, जबकि पंडित रविशंकर शुक्ल मुख्यमंत्री थे। डॉ. बघेल, जो धरसीवां विधानसभा क्षेत्र से विधायक बने थे, ठाकुर साहब के करीबी सहयोगी थे।
छत्तीसगढ़ राज्य के पक्ष में निरंतर संघर्ष
1950 के दशक में मध्यप्रदेश के पुनर्गठन के समय डॉ. बघेल, ठाकुर प्यारे लाल सिंह, गुरु अगमदास, स्व. रामगोपाल तिवारी, स्व. घनश्याम साव, स्व. हरि ठाकुर जैसे अनेक नेता छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के पक्षधर थे। परंतु स्व. लाल श्याम शाह जैसे आदिवासी नेता गोंडवाना राज्य की मांग को लेकर अलग राय रखते थे। मतैक्य के अभाव में छत्तीसगढ़ राज्य का प्रस्ताव तब सदन से पारित नहीं हो सका।
लोकतांत्रिक संघर्ष व राजनीतिक दलों में परिवर्तन
1962 के लोकसभा चुनाव में डॉ. बघेल महासमुंद से सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार थे, पर वे पंडित विद्याचरण शुक्ल से पराजित हो गए। चुनाव परिणाम को चुनौती देते हुए उन्होंने चुनाव आयोग में शिकायत की, जो सही पाई गई, और चुनाव रद्द कर दिया गया।
1954 में हुए उपचुनाव में महासमुंद से सोशलिस्ट पार्टी के श्री मगनलाल बागड़ी विजयी हुए थे। उन्हीं दिनों स्व. जीवनलाल साव और स्व. पुरुषोत्तम कौशिक जैसे युवा नेता भी उभरे।
बाद में डॉ. बघेल ने सोशलिस्ट पार्टी से अलग होकर कांग्रेस में पुनः प्रवेश किया और राज्यसभा सदस्य नामित हुए। इस दलबदल से सोशलिस्ट पार्टी को बड़ा राजनीतिक नुकसान हुआ। स्व. कौशिक को फिर से अपनी राजनीतिक जमीन बनाने में आठ वर्ष लगे, जबकि जीवनलाल साव संसदीय राजनीति में पुनः स्थापित नहीं हो सके।
भाषाई और सांस्कृतिक चेतना के वाहक
डॉ. बघेल ने छत्तीसगढ़ी भाषा, संस्कृति और क्षेत्रीय अस्मिता के पक्ष में आवाज उठाई। उन्होंने छत्तीसगढ़ भातृ संघ की स्थापना की और जीवनपर्यंत छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण आंदोलन से जुड़े रहे। उनके असामयिक निधन से यह आंदोलन कुछ समय के लिए शिथिल हो गया।
नमन उस पुरखा को
छत्तीसगढ़ की सामाजिक चेतना, राजनीतिक जागरूकता और आत्म-सम्मान को स्वर देने वाले इस युगपुरुष को उनकी जयंती पर सादर श्रद्धांजलि। उनका जीवन आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा-स्रोत बना रहेगा।