मधुमेह और इंसुलिन से जुड़े कलंक को मिटाने की चुनौती
चिकित्सा जगत को उस दिन का इंतजार है, जब मधुमेह के शिकार बच्चे और किशोर-किशोरियां सार्वजनिक स्थलों पर बिना किसी शर्म के इंसुलिन पंप का इस्तेमाल करेंगे। यह एलान करते हुए कि हां, हमें टाइप वन डायबिटीज है और हम एक सामान्य जीवन जी रहे हैं।
कभी फुर्सत निकालकर गूगल सर्च पर दो शब्द टाइप करें-‘टाइप वन डायबिटीज’ और ‘सुसाइड’। सर्च रिजल्ट की जो लंबी सूची स्क्रीन पर उभरेगी, वह आपको चौंका देगी। पता लगेगा कि एक अदद बीमारी भी इन्सान को इतने अवसाद और भय से भर सकती है कि वह मौत को ही गले लगा ले। पहेली मगर यह है कि जिस बीमारी का पुख्ता इलाज दशकों पहले खोजा जा चुका, वह आज भी इस कदर डरावनी और मारक क्यों है?
बचपन में होने वाला मधुमेह रोग, जिसे टाइप वन डायबिटीज या ‘टीवनडी’ भी कहा जाता है, उन असंक्रामक बीमारियों की सूची में शामिल है, जो अब संक्रामक महामारियों से ज्यादा जानलेवा हो गई है। खेलने की उम्र में नौनिहाल इंसुलिन की सुइयां झेलें, यह तकलीफदेह है। मगर उससे भी त्रासद है कि ये सुइयां उन्हें घर या स्कूल में, बाथरूम में या किसी कोने में छिपकर लगानी पड़ती हैं। उन्हें यह आशंका रहती है कि कहीं कोई देख न लें। बच्चे फिर भी अपनी पीड़ा भूल जाएं, मगर मां-बाप लगातार इस अंदेशे को जीते हैं।
अमूमन क्लीनिकों में काम करने वाले कर्मचारी जिस तरह से बीमारी के बारे में बताते हैं, उससे परिवार और डर जाता है। ऊपर से, इंसुलिन की कीमत और उसे सही तापमान में रखने की चुनौती। नतीजा यह कि टीवडी मरीजों के लिए काम करने वाली संस्थाएं आए दिन अपने कार्यालय की दहलीज पर छोड़े गए बच्चे देखती हैं। मजबूर अभिभावकों की चिट्ठियां मिलती हैं। कितने ही लोग अपने बीमार बच्चे समेत खुदकुशी कर लेते हैं, जिनमें से कुछ की ही दास्तान मीडिया तक पहुंचती है।
टीवी के साथ जीने की दवा बहुत पहले बनी थी। मगर इससे जुड़े कलंक भाव को मिटाने की दवा अभी तक नहीं बनी। इसी विरोधाभास पर विचार करने के लिए यूनिसेफ और टीवनडी मरीजों के लिए काम करने वाली अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं की एक उच्चस्तरीय बैठक पिछले पखवाड़े उदयपुर में हुई।
इसमें यूनिसेफ के न्यूयॉर्क स्थित मुख्यालय और यूनिसेफ इंडिया के शीर्ष अधिकारी, टीवनडी मरीजों के लिए कार्यरत दुनिया की सबसे बड़ी संस्था ब्रेकथ्रू टीवनडी के प्रतिनिधि, उदयपुर राजघराने की परोपकारी संस्था- फ्रेंड्स ऑफ मेवाड़ और मरीजों की संस्थाओं – आईएमपेशेंट नेटवर्क और दक्षिण भारतीय इध्यांगल ट्रस्ट के अधिकारी शामिल हुए। इस महत्वपूर्ण जमावड़े में तीन समस्याएं और उनके समाधान रेखांकित हुईं।
पहली समस्या है, इलाज का भारी खर्च। मधुमेह पीड़ित एक आम बच्चे के इंसुलिन, ग्लूकोमीटर, इंजेक्शन, इंसुलिन को ठीक रखने की खातिर खास तापमान पर रखने के लिए फ्रिज, उसकी बिजली और अन्य दवाओं की खरीदारी पर औसतन 3,500 रुपये प्रतिमाह का न्यूनतम खर्च आता है। इसी कारण वजन घटते जाने या थकान जैसे लक्षण होने पर भी मरीज जांच टालते रहते हैं।
इसीलिए यूनिसेफ की अपील है कि देश भर में ऐसा स्वास्थ्य ढांचा विकसित किया जाए, जो सस्ता और सुलभ हो और जिससे बच्चों में जल्द से जल्द बीमारी की पहचान की जा सके। राइट टू हेल्थ की अवधारणा के तहत सरकारों को बच्चों के हित में यह खर्च वहन करना चाहिए। याद रहे, इंसुलिन की नियमित खुराक मिले, तो टाइप वन के रोगी भी सत्तर साल या उससे अधिक जीते हैं।
दूसरी समस्या है, मरीजों से भेदभाव। स्कूल-कॉलेजों में और खासतौर पर परीक्षा भवनों में मधुमेह पीड़ित छात्र – छात्राओं को भोजन या इंसुलिन लेने के अवकाश नहीं दिए जाते। पूरे देश के शिक्षा संस्थानों में टीवनडी ग्रस्त बच्चों के लिए ऐसी रियायतें अनिवार्य बनाना ही इसका समाधान है। तीसरी समस्या है – बीमारी के मानसिक और सामाजिक कुप्रभाव – वह कलंक भाव, जो शारीरिक कुप्रभावों से भी ज्यादा मारक है।
इसका समाधान है, अस्पतालों में टाइप वन मरीजों से बातचीत में सही आश्वस्तकारी भाषा का प्रयोग। इसके लिए ‘जीवन भर का अभिशाप’, ‘इंसुलिन के मोहताज’, ‘जटिल लाइलाज बीमारी’ जैसे जुमलों से परहेज करना होगा। साथ ही, ऐसी हस्तियों और मिसालों पर जोर देना होगा, जिन्होंने बचपन के मधुमेह को समाज के सामने कबूला और अनुशासित इलाज से सामान्य जीवन जीकर दिखाया।
टीवनी के कलंक भाव से यह जंग अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लड़ी जा रही है। अच्छी बात है कि इस वैश्विक जंग में दो भारतीय रोल मॉडल बनकर उभर रहे हैं। एक है, उदयपुर राजघराने की प्रिंसेज पद्मजा कुमारी परमार, जिन्होंने सार्वजनिक तौर पर घोषणा की कि वह बचपन से टाइप वन डायबिटीज के साथ जी रही हैं। साथ ही उन्होंने असहाय मरीजों के लिए अंतरराष्ट्रीय परोपकारी संगठन, फ्रेंड्स ऑफ मेवाड़ की स्थापना की।
इसीलिए प्रतिष्ठित संस्था, ब्रेकथ्रू टीवनडी ने उन्हें अपना ब्रांड एंबेसडर बनाया। दूसरे रोल मॉडल हैं, कोलकाता के सुविख्यात एंडोक्रिनोलॉजिस्ट डॉ. सुजॉय घोष, जो टीवनडी संस्थाओं के बीच पोस्टरबॉय बनकर उभरे हैं। वह लंबे समय से टीवनडीग्रस्त बच्चों के हित में नीति परिवर्तन के लिए प्रयासरत हैं। उनके जैसे चिकित्सक- अधिकारियों की बदौलत ही हाल में पश्चिम बंगाल के जिला अस्पतालों में टाइप वन डायबिटीज मरीजों के लिए मुफ्त क्लिनिक शुरू हुए हैं।
विज्ञान पत्रिका लांसेट के मुताबिक, 2021 में भारत में लगभग साढ़े आठ लाख लोग टाइप वन डायबिटीज के शिकार थे। टाइप टू के आंकड़े मिलाकर देखें, तो मधुमेह रोगियों का आंकड़ा कुल आबादी का दस फीसदी यानी लगभग 15 करोड़ के करीब है। यूनिसेफ के मुताबिक, टाइप वन डायबिटीज उन गैर-संचारी बीमारियों में से एक है, जो हर साल दुनिया में एक करोड़ 70 लाख लोगों की जिंदगी लील जाती है। हार्ट अटैक, स्ट्रोक, कैंसर, डायबिटीज और अस्थमा इनमें प्रमुख हैं। भारत में हर साल होने वाली कुल मौतों में से 66 प्रतिशत इन्हीं गैर-संचारी रोगों का परिणाम हैं और इनमें भी 22 फीसदी मौतें कम उम्र के मरीजों की जान ले रही हैं।
भीड़ भरे शहरों का प्रदूषण, व्यायाम वंचित गलत जीवनशैली, नौकरी- कारोबार के तनाव और गरीबी- कुपोषण के आघात – इनके प्रमुख कारण हैं। अब यह धारणा गलत साबित हो चुकी है कि बीपी -शुगर अमीरों के रोग हैं। भारत में भी गरीब आबादी ही इनकी मार ज्यादा झेल रही है। पैसे और जागरूकता, दोनों के अभाव में वे जांच तक नहीं कराते । दुखद ही है कि भारत में टीवनडी से मरने वाले हर छह में से एक व्यक्ति को अंत तक पता नहीं होता कि उसे बीमारी क्या है।
दैनिक नवभारत रायपुर 30 अगस्त2024 से साभार