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ही-मैन की जिंदादिली, संघर्ष और सिनेमाई विरासत को भावपूर्ण श्रद्धांजलि

आचार्य ललित मुनि

जब खबर आई कि भारतीय सिनेमा का वह ‘ही-मैन’, वह जिंदादिल योद्धा धर्मेंद्र अब हमारे बीच नहीं रहे, तो दिल में एक खालीपन सा उतर आया। मानो कोई पुराना दोस्त, जो हमारी जिंदगी का हिस्सा बन चुका था, चुपके से चला गया हो। 8 दिसंबर 1935 को पंजाब के एक छोटे से गांव लुधियाना में जन्मे धर्मेंद्र देवी सिंह देओल – जिन्हें हम प्यार से ‘धर्म जी’ कहते थे – 89 बरस की इस यात्रा में न सिर्फ पर्दे पर, बल्कि जिंदगी के हर मोड़ पर एक मिसाल बने। उनकी विदाई की कल्पना भी दुखद है, लेकिन उनकी यादें? वे तो अमर हैं। वे यादें जो हमें हंसाती हैं, रुलाती हैं, प्रेरित करती हैं। आज, इस भावपूर्ण श्रद्धांजलि में, हम उनके कार्यों की गहराई में उतरेंगे, उनकी उन फिल्मों को याद करेंगे जो सदियों तक चमकती रहेंगी, उनके गीतों के उन मुखड़ों को गुनगुनाएंगे जो दिल को छू जाते हैं, और सबसे ऊपर, उनकी उस जिंदादिली को सलाम करेंगे जो हर उम्र के लिए एक सबक है। यह आलेख न सिर्फ एक अभिनेता को, बल्कि एक इंसान को याद करने का प्रयास है – एक ऐसे इंसान को, जो कभी हार न माने, कभी उदास न हो, और हमेशा मुस्कुराता रहे।

धर्मेंद्र की कहानी शुरू होती है एक साधारण किसान परिवार से। लुधियाना के फाजिल्का में पले-बढ़े इस लड़के को बचपन से ही खेतों की मिट्टी का साथ था। पिता एक स्कूल टीचर थे, लेकिन घर की आर्थिक तंगी ने उन्हें जल्द ही जिम्मेदारियां सौंपीं। स्कूल के दिनों में ही उनकी कविताओं की दीवानगी ने सबको हैरान कर दिया। हां, धर्म जी कवि भी थे! उनकी डायरी में छिपी वो पंक्तियां – “जिंदगी एक सफर है सुहाना, यहां कल क्या हो किसने जाना” – बाद में फिल्मों के गीत बनकर अमर हुईं। 1950 के दशक में, जब बॉम्बे (अब मुंबई) की चकाचौंध ने उन्हें बुलाया, तो वे एक साधारण सिनेमा लवर के रूप में पहुंचे। 1959 में मिस इंडिया कांटेस्ट जीतकर उन्होंने सुर्खियां बटोरीं, लेकिन असली संघर्ष तो फिल्मों के दरवाजे खटखटाने में था। रिजेक्ट होने की कहानियां? अनगिनत। लेकिन धर्म जी की जिंदादिली ने हार न मानने का सबक दिया। “मैं कभी हार नहीं मानता, बस सीखता हूं,” वे कहते थे। और यही जज्बा था जो उन्हें ‘गढ़वाली गार्डियन’ से ‘बॉलीवुड का ही-मैन’ बनाने ले गया।

उनका सिनेमाई सफर 1960 में ‘दिल भी तेरा हम भी तेरे’ से शुरू हुआ। एक छोटी सी भूमिका, लेकिन वो चेहरा – वो साफ-सुथरी मुस्कान और आंखों में छिपी शरारत – ने दर्शकों को बांध लिया। लेकिन असली धमाका हुआ 1966 में ‘फूल और पत्थर’ से। यहां वे शक्ति सिंह के किरदार में एक गरीब मजदूर बने, जो प्यार की तलाश में है। फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर धूम मचाई, और धर्म जी को स्टारडम की चोटी पर पहुंचा दिया। इस फिल्म का गीत “पत्थर के सनम” – “पत्थर के सनम, तुझे मिटा दूंगा, तेरी कसम, तेरी कसम” – आज भी दिल को चीर देता है। कल्पना कीजिए, वो दृश्य जहां धर्म जी की आंखों से आंसू बहते हैं, लेकिन आवाज में वो दर्द जो जिंदगी का आईना बन जाता है। ये गीत न सिर्फ फिल्म का हिस्सा था, बल्कि धर्म जी की भावुकता का प्रतीक। 60 के दशक में उन्होंने ‘आये मिलन की बेला’, ‘ममता’, ‘अनुपमा’ जैसी फिल्मों से रोमांटिक हीरो का ताज पहना। ‘आये मिलन की बेला’ का “आये मिलन की बेला, जरा ठहर जाओ” – वो कोमलता, वो बेचैनी, जो प्यार की शुरुआत को इतना खूबसूरत बना देती है। धर्म जी की एक्टिंग में वो सादगी थी जो दर्शकों को अपना सा लगता। वे नायक थे, लेकिन कभी दिखावे वाले नहीं। उनकी जिंदादिली यहां झलकती थी – शूटिंग के बीच में वे क्रू को चाय पिलाते, जोक्स सुनाते, मानो सेट पर कोई पार्टी चल रही हो।

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70 का दशक आया, तो धर्म जी ने अपना रंग बदला। रोमांस से एक्शन की ओर। ‘शोले’ (1975) – अरे, ‘शोले’! ये नाम लेते ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं। वीरू के किरदार में धर्म जी ने अमिताभ बच्चन के साथ जो केमिस्ट्री दिखाई, वो आज भी बेमिसाल है। “यاره तू इफ्तार लगता है, मैं रोजा” – ये डायलॉग तो बस शुरुआत था। फिल्म का सदाबहार गीत “ये दोस्ती हम ना तोड़ेंगे” – “ये दोस्ती हम ना तोड़ेंगे, तरेरे से दिल के पातलू को मोड़ेंगे” – दोस्ती की वो मिठास जो जिंदगी भर साथ निभाती है। कल्पना कीजिए, घोड़े पर सवार वीरू, हंसी उड़ाते हुए बसंती को चिढ़ाते। धर्म जी की वो शरारत भरी हंसी, वो जिंदादिल अंदाज – ये सब ‘शोले’ को अमर बनाते हैं। इसी दौर में ‘धर्म वीर’ (1977) आई, जहां वे धर्म और वीर के डबल रोल में चमके। “ओ चोर रे चोर रे, तूने चुरा ली मेरी जान” – ये गीत उनकी बहादुरी और हास्य का मिश्रण था। धर्म जी की जिंदादिली यहां परिलक्षित होती थी; वे एक्शन सीन के बीच में घोड़ों से बातें करते, मानो वे उनके पुराने साथी हों। ‘चरस’ (1976) में नशे के खिलाफ उनकी लड़ाई, ‘अजाद’ (1980) में वो सर्कस वाला योद्धा – हर फिल्म में एक नया रंग। लेकिन ‘दीवार’ (1975) में? वहां वे मजदूर रवि के भाई बने, और “मेरे सामने वाले की आंखों में कोई सपना बसा है” गीत गाकर दिखा दिया कि वे सिर्फ मसल्स नहीं, दिल के राजा भी हैं।

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धर्म जी की फिल्में सिर्फ मनोरंजन नहीं थीं; वे समाज का आईना भी। 60-70 के दशक में जब भारत आर्थिक संकट से जूझ रहा था, उनकी फिल्में गरीबी, प्यार और संघर्ष की कहानियां सुनाती रहीं। ‘सत्यकाम’ (1969) में वे एक ईमानदार इंजीनियर बने, जो सिद्धांतों के लिए लड़े। फिल्म का गीत “सपनों की दुनिया हमारा नसीब न था” – “सपनों की दुनिया हमारा नसीब न था, बस यही तो जिंदगी है” – वो कड़वी सच्चाई जो धर्म जी की आवाज में मीठी लगती है। उनकी एक्टिंग में वो गहराई थी जो दर्शकों को सोचने पर मजबूर कर देती। लेकिन जिंदादिली? अरे, वो तो उनकी रगों में थी। याद है ‘चंबल की कसम’ (1979) का सीन, जहां वे नदी किनारे नाचते हैं? या ‘कटीलों के कातिल’ (1981) में वो एक्शन, लेकिन हंसी के ठहाके? धर्म जी शूटिंग के दौरान कभी थके नहीं। एक बार तो उन्होंने बताया था कि ‘शोले’ के घोड़े वाले सीन के लिए उन्होंने रातभर प्रैक्टिस की, लेकिन सुबह उठकर चाय की चुस्की लेते हुए कहा, “यार, ये जिंदगी है, एंजॉय करो!” यही थी उनकी फिलॉसफी – जिंदगी को हल्के से लो, लेकिन गहराई से जियो।

अब बात करें उनके व्यक्तिगत जीवन की, जो उनकी फिल्मों जितनी ही रंगीन थी। 1954 में प्रकाश कौर से शादी, दो बेटे सनी और बॉबी – जो खुद सितारे बने। फिर, प्यार की वो अनोखी कहानी हेमा मालिनी से। ‘सिसकियां’ (1969) के सेट पर शुरू हुआ वो रिश्ता, जो ‘नटरंग’ (2010) तक चला। हेमा जी के साथ उनकी जोड़ी – ‘सीता और गीता’, ‘शोलाय’, ‘दिल काला’ – हर फिल्म में जादू सा था। “चल रे चांदनी रानी, तेरी सेज सजानी” – ‘सीता और गीता’ का ये गीत उनकी रोमांटिक केमिस्ट्री का प्रतीक। लेकिन जिंदादिली यहां भी झलकती। धर्म जी ने कभी छिपाया नहीं कि प्यार मुश्किल है, लेकिन उन्होंने इसे सेलिब्रेट किया। हेमा जी को कविताएं लिखीं, उन्हें घुमाने ले गए। परिवार के लिए उनका समर्पण? सनी की ‘घायल’ (1990) में स्पेशल अपीयरेंस, बॉबी की ‘सोल्जर’ (1998) में पिता का रोल। वे कहते थे, “फिल्में तो बनती रहेंगी, लेकिन परिवार ही असली हीरो है।” उनकी बेटी ईशा और अहाना को देखकर लगता, वे पिता के रूप में भी ‘ही-मैन’ थे – मजबूत, लेकिन कोमल।

80 और 90 का दशक आया, तो बॉलीवुड बदल गया। लेकिन धर्म जी? वे रुके नहीं। ‘बेटा’ (1992) में नेगेटिव रोल निभाकर उन्होंने साबित किया कि वे बहुमुखी हैं। “दुश्मन” गीत – “दुश्मन तू चाहे कितना भी जोर लगाए, हार न मानेगा ये जवान” – उनकी अटूट इच्छाशक्ति का प्रतीक। ‘हुकुमत’ (1987) में वो जज बने, न्याय की लड़ाई लड़ते। लेकिन जिंदादिली का सबसे बड़ा उदाहरण? ‘जॉनी’ (1980) का वो सीन, जहां वे पेड़ों से बातें करते हैं। या ‘घायल’ में सनी के साथ डांस। उम्र के इस पड़ाव पर भी वे हंसते, नाचते। एक इंटरव्यू में कहा था, “मैं 80 का हो गया, लेकिन दिल तो जवान है!” यही जिंदादिली ने उन्हें ‘रॉकी ऑंड द हार्ट’ (2023) जैसी फिल्मों में वापसी कराई। यहां वे रॉकी बने, एक ऐसे पिता जो बेटी के लिए लड़ते हैं। गीत “जिंदगी एक सफर है सुहाना” – जो ‘अंदाज’ (1970) से लिया गया – उनकी जिंदगी का सार था। कल्पना कीजिए, वो दृश्य जहां वे मुस्कुराते हुए कहते हैं, “बस, जी ले लो!”

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धर्म जी की विरासत सिर्फ फिल्मों में नहीं, बल्कि समाज में भी है। उन्होंने 2004 में लोकसभा चुनाव लड़ा, ग्रामीण भारत के मुद्दों को उठाया। उनकी कविताएं – ‘पंजाब की शान’ जैसी किताबें – दिल को छूतीं। अवार्ड्स? पद्म भूषण (2012), दादासाहेब फाल्के (2023) – ये तो बस नाम हैं। असली सम्मान तो दर्शकों की आंखों में है। उनकी फिल्मों के सदाबहार गीत? अनगिनत। ‘अंदाज’ का “जिंदगी एक सफर है सुहाना, यहां कल क्या हो किसने जाना” – जो हर उतार-चढ़ाव में साथ देता। ‘प्रतिज्ञा’ (1973) का “चलो रे धोबी घाट जाओ” – हास्य और रोमांस का मेल। ‘गंगा की सौगंध’ (1982) का “गंगा की सौगंध, मैं वचन निभाऊंगा” – वादों की ताकत। ‘चुपके चुपके’ (1975) में “भंवरा बड़ चले” – वो शरारत। हर गीत में धर्म जी की आवाज नहीं, बल्कि उनकी रूह झलकती। मुखड़े सुनते ही याद आ जाती वो मुस्कान, वो अंदाज।

उनकी जिंदादिली को कैसे भूलें? एक बार शूटिंग के दौरान चोट लगी, लेकिन वे हंसते हुए बोले, “अरे, ये तो बस स्क्रैच है, जिंदगी का असली एक्शन तो आगे है!” वे कवि थे, जो दर्द को हंसी में बदल देते। पंजाबी जोक्स सुनाते, दोस्तों को इकट्ठा करते। हेमा जी बतातीं कि घर में वे हमेशा मूड लाइटनर होते। उम्र के साथ भी, ‘तान्हा जी’ (2019) में वो दादाजी बने, लेकिन आंखों में वही चमक। “जिंदगी हंसने-रोने का खेल है, लेकिन हंसना मत भूलना,” ये उनका मंत्र था। आज, जब हम उनकी विदाई की कल्पना करते हैं, तो दुख के साथ मुस्कान आती है। क्योंकि वे चले गए तो क्या, उनकी कहानियां तो हमारे साथ हैं।

धर्म जी, आपकी जिंदादिली हमें सिखाती है कि जिंदगी छोटी है, लेकिन जीने का अंदाज बड़ा होना चाहिए। आपकी फिल्में – ‘फूल और पत्थर’ से ‘रॉकी’ तक – हमारी साझा यादें हैं। आपके गीत – “पत्थर के सनम” से “ये दोस्ती” तक – हम गुनगुनाते रहेंगे। और आपकी वो हंसी? वो तो अमर है। अलविदा नहीं, धर्म जी। बस, अगली मुलाकात तक। आप हमेशा हमारे दिलों में जवान रहेंगे।