धर्मांतरण विरोधी आंदोलन के नायक स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की कहानी
अंग्रेज भले सत्ता भारतीयों के हाथ दे गये पर वे भारत का रूपान्तरण भारत में ही करने का अपना पूरा नेटवर्क छोड़ गये हैं जो वनवासी क्षेत्रों में सक्रिय होकर न केवल मतान्तरण अभियान चला रहे हैं अपितु राष्ट्रांतरण करने का षड्यंत्र भी कर रहे हैं। जिसका प्रतिकार स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती ने किया । जब धमकियों से उनकी सक्रियता नहीं रुकी तो षड्यंत्रकारियों ने उनकी हत्या कर दी । इस हत्या के पीछे ईसाई मिशनरी और माओवादी हिंसक तत्वों का हाथ माना गया ।
सुप्रसिद्ध संत और वेदज्ञ स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती का जन्म 1924 में उड़ीसा प्राँत कन्धमाल जिले के अंतर्गत ग्राम गुरुजंग में हुआ था । परिवार पुरी स्थित शंकराचार्य मठ गोवर्धनपीठ से जुड़ा था । इसलिये बालपन से धर्म और आध्यात्म की ओर झुकाव था । उनकी आरंभिक संस्कृत और वैदिक शिक्षा भी गोवर्धन मठ में ही हुई । शिक्षा के बाद घर लौटे और सामान्य गृहस्थ की भाँति विवाह हुआ और दो बच्चों के पिता भी बने । पर वे सामान्य गृहस्थ नहीं थे । उनका गांव और आसपास का पूरा क्षेत्र वनवासी आबादी बाहुल्य क्षेत्र था जो बहुत गरीबी और असहाय स्थिति में था । लक्ष्मणानंद जी अपना अधिकाँश समय इनकी सेवा में ही लगाते थे । लेकिन मन कुछ अतिरिक्त आध्यात्मिक ज्ञान पाने की लालसा में व्यथित रहता । इसी बीच आयु पच्चीस वर्ष हो गई। वे अपनी मानसिक जिज्ञासाओं को शाँत करने के लिये हिमालय की ओर चल दिये । नेमीशारण्य, काशी आदि स्थानों से होकर हिमालय के उत्तराखंड क्षेत्र पहुँचे। पन्द्रह वर्षों तक संतों का सानिध्य और प्रभु साधना की और पुनः लौटे । तीर्थ यात्रा करते हुये पुरी पहुँचे। गोवर्धन मठ पुरी पीठाधीश्वर शंकराचार्य स्वामी निरंजन देव तीर्थ के सानिध्य में रहे और जन सेवा का व्रत लेकर 1965 में पुनः अपने पैतृक क्षेत्र में लौटे ।
उन दिनों भारत में गौरक्षा आँदोलन चल रहा था । इस आँदोलन में पुरी पीठाधीश्वर शंकराचार्य स्वामी निरंजन देव बहुत सक्रिय थे । उन्होंने 65 दिनों तक अनशन भी किया था । उनके समर्थन में स्वामी लक्ष्मणानंद भी गौरक्षा आँदोलन से जुड़ गये । उन्होंने दिल्ली में संतों के उस ऐतिहासिक प्रदर्शन में हिस्सा लिया और गिरफ्तार हुये । इसी आँदोलन के दौरान उनका संपर्क राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्व हिन्दू परिषद के कार्यकर्ताओं से हुआ ।
तिहाड़ जेल से रिहा होकर लौटे और अपने गृह जिले कन्धमाल को अपनी कर्मस्थली बनाया। वनवासियों के बीच काम करने की प्रेरणा उन्हें पुरी पीठाधीश्वर शंकराचार्य स्वामी निरंजन देव तीर्थ ने दी । उन्हें “वेदान्त केशरी” की उपाधि दी ।
इस क्षेत्र में माओवादियों द्वारा भोले वनवासियों को बहका कर हिंसक गतिविधियों से जोड़ने का अभियान चल रहा था । इस अभियान का लाभ वहाँ मतान्तरण में सक्रिय ईसाई मिशनरियाँ उठा रहीं थीं। एक प्रकार से माओवादियों का भय और मिशनरीज का लालच पूरे उड़ीसा के वनवासी क्षेत्रों में फैल रहा था । स्वामी जी ने वहाँ पहुँचकर सारे भ्रामक प्रचार का खंडन आरंभ किया और वनवासियों में सनातन वैदिक संस्कृति का महत्व समझाना आरंभ किया । स्वामी जी की सक्रियता से आसपास के पूरे वनवासी क्षेत्र सेवाकार्य प्रसिद्ध हो गया । उन्होंने वनवासी गाँवों में छात्रावास, विद्यालय, कन्या आश्रम, चिकित्सालय आदि आरंभ किये । इन संस्थानों नियमित पूजन हवन यज्ञ और प्रवचन होते थे । उन्होंने पूरे जिले की सतत पद यात्राएँ कीं और स्थानीय उत्साही लोगों को अपने साथ जोड़ा । स्थानीय युवक युवतियों को प्रशिक्षित कर संस्कृत विद्यालय आरंभ किये । इससे क्षेत्र में सक्रिय ईसाई मिशनरियाँ कुपित थीं। वे स्वास्थ्य और चिकित्सा के सेवा कार्य के बहाने वनवासियों का मतान्तरण कर रही थीं। स्वामी लक्ष्मणानंद जी के कार्यों से उनके कामों से उनके और माओवादी तत्वों के कामों में गतिरोध आया और स्वामी जी पर हमले और धमकियों का क्रम आरंभ हुआ । उनपर पहला हमला 26 जनवरी 1970 को हुआ । स्वामी जी विद्यालय से लगे अपने आश्रम से गणतंत्र दिवस आयोजन करा रहे थे तब 25-30 लोगों के एक समूह आया और उन पर हमला बोल दिया। स्वामी भाग कर विद्यालय आये जहाँ बड़ी संख्या में विद्यार्थी थे । हमलावर भाग गये । हमलावरों का यह समूह उन्ही लोगों का था जो मिशनरीज के कार्यों के प्रचार कार्य और लोगों को जुटाने के काम में देखे जाते थे ।
इस घटना की स्वामी लक्ष्मणानंद जी पर तीखी प्रतिक्रिया हुई । अब तक उनका कार्य वनवासी समाज में जागरण और सनातन परंपराओं से जोड़कर मतान्तरण रोकने का था । अब उन्होंने मतान्तरण करके ईसाई बने वनवासियों की घर वापसी अभियान चलाने का निश्चय कर लिया । इसका उन्होंने चकापाद के वीरूपाक्ष पीठ में अपना आश्रम स्थापित किया और इसे अपने सभी कार्यों के साथ मतान्तरित वनवासियों की घर वापसी से भी जोड़ा । इससे लगभग 50 किलोमीटर दूर जलेसपट्टा नामक घनघोर वनवासी क्षेत्र में उन्होंने एक कन्या आश्रम, छात्रावास तथा विद्यालय की स्थापना की । यहाँ एक हनुमानजी के मन्दिर का भी निर्माण हुआ । यह मंदिर मतान्तरित वनवासियों की पुनः अपनी संस्कृति में आस्था जगाने का प्रमुख केन्द्र बन गया । 1986 में स्वामी जी ने जगन्नाथपुरी में विराजमान भगवान जगन्नाथ स्वामी का रथ तैयार कराया और उड़ीसा के विभिन्न वनवासी जिलों में तीन मास तक भ्रमण कराया। इस रथ यात्रा के माध्यम से लगभग 10 लाख वनवासियों ने भगवान जगन्नाथ के दर्शन किये और श्रद्धापूर्वक पूजा की। इस रथयात्रा में स्वामी जी ने वनवासियों से नशा सहित विभिन्न सामाजिक कुरीतियों के प्रति जागरूक किया । गौरक्षा और गौपालन की प्रेरणा दी । इस यात्रा से वनवासियों में स्व संस्कृति के प्रति चेतना उत्पन्न हुई । इस रथ यात्रा से माओवादियों और मिशनरीज दोनों के काम में गतिरोध आया । पहले धमकियाँ दीं और हमले हुये किन्तु स्वामी जी का काम न रूका अंततः उन्हे रास्ते से हटाने का षड्यंत्र बना । वर्ष 2008 में 10 से 21 तारीख के बीच स्वामीजी को धमकी देने वाले तीन पत्र मिले। जिनकी शिकायत पुलिस में भी की गई। किन्तु पर्याप्त सुरक्षा प्रबंध न हो सके ।
23 अगस्त 2008 को स्वामी जी कन्धमाल जिले के अंतर्गत कन्या आश्रम जलेस्पेट्टा में प्रार्थना के बाद प्रवचन चल रहे थे । यह प्रवचन स्वामी अमृतानंद कर रहे थे । तभी AK47 राइफलों सहित अन्य हथियारों से लैस 15-16 नकाबपोश लोग आश्रम में घुसे । और वहाँ संतों और सेवादारों पर गोलियाँ चलाना आरंभ कर दीं । पहला हमला बाबा अमृतानंद पर हुआ । वे बलिदान हुये । उस समय स्वामी लक्ष्मणानंद जी अपने कक्ष में थे । स्थिति को समझ स्वामी जी की शिष्या माता भक्तिमयी भागकर स्वामीजी के कक्ष में आई, और कमरे का दरवाजा भीतर से बंद करके स्वामीजी को शौचालय में धकेल दिया। पर हमलावर रुके नहीं। उनके पास दरबाजा काटने के औजार भी थे । दरबाजा काटा और माता भक्तिमयी को गोलियों से छलनी कर दिया । सहायता के लिए पहुंचे एक अन्य संत पर भी गोलियाँ चला दीं।हमलावर कक्ष में घुसे, स्वामी जी को तलाशा अंत में शौचालय का दरवाजा तोड़ा और स्वामी जी को गोली मार दी। स्वामीजी सहित सभी संतों का घटनास्थल पर ही बलिदान हो गया । स्वामी जी 84 वर्ष के थे ।
हमलावरों का मन संतों के प्राण लेकर भी न भरा । हमलावरों ने सभी संतों मृत देह की चाकुओं और दरातियों से चीर फाड़ करके टुकड़े टुकड़े किये । वहाँ आतंक और बर्बरता कि ऐसा दृश्य बनाया जिसे देखकर लोगों की रूह काँप उठे और कोई उनके काम में वाधक बनने का साहस न कर सके ।
इस जघन्य हत्याकांड के पीछे
ईसाई मिशनरियों और माओवादियों की युति ही मानी गई। स्वामी इस क्षेत्र में लगभग चालीस वर्ष सक्रिय रहे । उन्होंने न केवल वनवासियों का मतान्तरण रोका अपितु माओवादियों द्वारा वनवासियों को भ्रमित करने के कुचक्र के विरुद्ध भी समाज को जाग्रत किया । इसलिये उनपर लगातार हमले हुये । 1970 से 2007 के बीच स्वामी जी पर कुल आठ बार हमले हुये । पर स्वामी जी न रुके और न झुके । स्वत्व जागरण का उनका अभियान निरंतर रहा । स्वामी जी अपने ऊपर हो रहे हमलों पर कहते थे कि- “वे चाहे जितना प्रयास करें, ईश्वरीय कार्य में बाधा नहीं डाल पाएंगे”। और अंततः अपने चार शिष्यों के साथ स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती का 23 अगस्त 2008 को बलिदान हो गया । उनके साथ बलिदान होने वालों विश्व हिंदू परिषद के एक स्थानीय पदाधिकारी भी थे। बाद में इस हमले के लिये मिशनरीज और माओवादियों से संबंधित सात लोग आरोपी पाये गए और उड़ीसा सरकार ने सुरक्षा प्रबंधों में चूक भी स्वीकार की ।
फादर स्टेंस नामक पादरी की हत्त्या की बहुत चर्चा होती है मीडिया मे, आप ने पहली बार इस पक्ष को रखा है,
बहुत बहुत धन्यवाद