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एक ऐसा नाम जो कुश्ती में अपराजेय बना और कहावतों में ढाला गया

आचार्य ललित मुनि

भारत में जन्म लेने वाला एक ऐसा पहलवान, जो शक्ति का प्रतीक बन गया और मुहावरों में ढल गया। किसी की शक्ति की तुलना करनी होती है, आज भी कहते सुना जा सकता है कि “बड़ा आया दारा सिंह” या “बहुत बड़ा दारा सिंह है तू” इत्यादि। यही दारा सिंह पहलवान, जो कहावतों में सुनाई देता है, विश्व विजेता बना और लगातार 500 कुश्तियाँ जीतने का रिकॉर्ड बनाकर कुश्ती से सन्यास लेकर फिल्मों में अपनी शक्ति दिखाने लगा। हिन्दी, पंजाबी फिल्मों में इनसे बेहतर किरदार निभाया।

जीवन में टर्निंग पॉइंट तब आया जब इसने रामानंद सागर के रामायण किरदार में हनुमान जी का पात्र निभाया और भारत के हर हिन्दू के दिल में बस गया। कई स्थानों पर दारा सिंह की फोटो घर के पूजाघरों में भी दिखाई देने लगी और लोग अभिनेता को ही वास्तविक चरित्र मानने लगे। दारा सिंह अपने कार्यों से जनमानस में हमेशा याद रखे जाएंगे और उनके कार्यों की धमक युगों-युगों तक रहेगी।

बताया जाता है कि दारा सिंह हनुमान के रोल के लिए तैयार नहीं थे और उन्होंने रामानंद सागर से इसके लिए मना कर दिया था। उनका मानना था कि रामानंद को एक नौजवान को इस रोल के लिए तलाशना चाहिए, न कि मुझे, जिसकी उम्र 60 साल हो गई है। लेकिन रामानंद सागर ने उन्हें आश्वासन दिया और कहा, “आपकी कद-काठी के हिसाब से आप रामायण के हनुमान बनने के लिए एकदम फिट हैं।” और तब जाकर वह इस रोल के लिए राजी हुए।

रामायण में हनुमान बनने के लिए दारा सिंह ने नॉनवेज खाना छोड़ दिया था। असल जिंदगी में पहलवान होने के कारण वह नॉनवेज का सेवन भारी मात्रा में करते थे और जब उन्होंने रामायण की शूटिंग शुरू की और जब तक इस शो की शूटिंग चली, तब तक नॉनवेज को हाथ नहीं लगाया था।

दारा सिंह का जन्म 19 नवंबर को पंजाब के अमृतसर धरमूचक गांव में बलवंत कौर और सूरत सिंह रंधावा के घर हुआ था। उनका नाम रखा गया दीदार सिंह रंधावा, यानी दारा सिंह। मां ने स्कूल में दाखिला करवाया, लेकिन दादाजी को यह पसंद नहीं था कि दारा सिंह स्कूल जाएं। इस वजह से उन्होंने उनका स्कूल से नाम कटवा दिया।

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एक बार एक पंडित दारा सिंह के घर आए, जो उनकी मां के ही गांव से थे। उन्होंने दारा सिंह की मां बलवंत कौर से कहा कि वो दारा सिंह को उनके साथ भेज दें। पंडित ने अपनी बात से मां को मनाया कि वो बच्चों को पढ़ाते हैं और उचित शिक्षा भी देते हैं। इस पर मां राजी हो गईं और किसी तरह से दादाजी को भी मना लिया। दारा सिंह ने जो भी पढ़ाई की, वो इन पंडित के यहां पर की।

एक समय ऐसा भी था, जब दारा सिंह अपने गांव में उन चुनिंदा लोगों में से थे, जिन्हें पत्र पढ़ना आता था। दारा सिंह की 9 साल की उम्र में शादी हो गई थी। हालांकि, उनकी पत्नी उम्र में उनसे बड़ी थीं। उम्र में बड़ी होने के कारण दारा सिंह की पत्नी उनसे हृष्ट-पुष्ट लगती थीं। वहीं, उनकी मां को लगता था कि बेटा बहू से कमजोर है। इस वजह से उन्होंने उन पर मेहनत करनी शुरू की। खेत में काम करने और मां के प्यार की वजह से दारा सिंह की डाइट काफी अच्छी हो गई थी। 17 साल की उम्र में वो एक बच्चे के पिता भी बन गए थे।

परिवार बढ़ा तो जिम्मेदारी भी बढ़ी। चाचा से जिद करके कुछ समय के लिए दारा सिंह सिंगापुर चले गए। वहां कुछ साथियों ने उनकी लंबाई-चौड़ाई को देखकर पहलवानी करने की सलाह दी। दारा सिंह ने वहीं से कुश्ती लड़ना शुरू किया और इन कुश्तियों से ही उनका रहने का खर्चा भी निकलने लगा। तीन साल में फ्रीस्टाइल वर्ग में उन्होंने महारत हासिल कर ली थी। वहीं पर उनकी पहली प्रोफेशनल कुश्ती इटली के पहलवान के साथ हुई। यह मुकाबला बराबरी पर रहा। इसके लिए उन्हें 50 डॉलर मिले।

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साल 1947 में देश आज़ाद हो रहा था और दारा सिंह ने सिंगापुर में पहुंचकर मलेशिया के पहलवान के चारों खाने चित्त कर दिए। दारा सिंह ने सिंगापुर में ही हरमान सिंह से कुश्ती की ट्रेनिंग ली थी। उन्होंने 1948-49 के आसपास कुआलालंपुर में तरलोक सिंह को हराया था। इस जीत के साथ ही उन्हें ‘चैम्पियन ऑफ मलेशिया’ का भी खिताब दिया गया था। इसके बाद पांच वर्षों तक वह दुनियाभर के पहलवानों को धूल चटाते रहे और वर्ष 1954 में कुश्ती चैम्पियन, भारतीय कुश्ती के चैंपियन बने। दारा सिंह का दबदबा कुश्ती में इतना था कि उनके सामने अखाड़े में विश्व चैंपियन किंग कॉन्ग भी नहीं टिक पाए थे।

विश्व विजेता किंग कॉन्ग को पछाड़ने के बाद दारा सिंह को कनाडा और न्यूजीलैंड के पहलवानों ने खुली चुनौती दे दी, लेकिन दारा सिंह ने कनाडा के चैंपियन जॉर्ज गोडियांको और न्यूजीलैंड के जॉन डिसिल्वा को भी पटखनी दे दी। वह कुश्ती को लेकर इतने महत्वाकांक्षी थे कि एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि जब तक विश्व चैंपियनशिप न जीत लूंगा, तब तक कुश्ती लड़ता रहूंगा। दारा सिंह ने 29 मई 1968 को अमेरिका के विश्व चैंपियन लाऊ थेज को हराकर फ्रीस्टाइल कुश्ती के बादशाह बन गए।

दारा सिंह की शारीरिक बनावट काफी अच्छी थी। वह बलिष्ठ और लंबे-चौड़े शरीर वाले पहलवान थे। दारा सिंह की लंबाई 6 फुट 2 इंच, 130 किलो वजन और 54 इंच छाती थी। इसलिए दारा सिंह की शारीरिक बनावट के चलते लोग ताकतवर इंसान के लिए उनका नाम कहावत की तरह भी उपयोग करते हैं। खुद दारा सिंह की आत्मकथा में भी इस बात का जिक्र है। दारा सिंह ने बताया कि वह एक दिन में 100 ग्राम शुद्ध घी, दो किलो दूध, 100 ग्राम बादाम की ठंडई, दो मुर्गे या आधा किलो बकरे का गोश्त, 100 ग्राम आंवले, सेब या गाजर का मुरब्बा, 200 ग्राम मौसमी फल, दो टाइम चार रोटी, एक वक्त सब्जी और एक वक्त गोश्त खाते थे।

दारा सिंह ने पहलवानी करते हुए ही अभिनय की दुनिया में कदम रखा। उन्होंने वर्ष 1952 में फिल्म ‘संगदिल’ से अभिनय की शुरुआत की। कुछ दिन उन्होंने फिल्मों में छोटे-मोटे किरदार निभाए। 1962 में बाबूभाई मिस्त्री की फिल्म ‘किंग कॉन्ग’ में उन्होंने मुख्य अभिनेता के रूप में काम किया। इसके बाद उन्होंने अभिनेत्री मुमताज के साथ 16 फिल्मों में काम किया। अभिनय के साथ-साथ उन्होंने लेखन और निर्देशन में भी हाथ आजमाया।

दारा सिंह ने सात फिल्मों की कहानी लिखी है। इन सबके अलावा वह रामानंद सागर की ‘रामायण’ में हनुमान के किरदार से अमर हो गए। उन्हें आज भी इस किरदार के लिए याद किया जाता है। फिल्मों के अलावा दारा सिंह ने राजनीति में भी ताल ठोका। वह साल 1998 में बीजेपी में शामिल हुए और अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत की। वर्ष 2003 में वह राज्यसभा सांसद भी बने। 12 जुलाई 2012 को दिल का दौरा पड़ने की वजह से वह इस दुनिया को अलविदा कह गए।

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दारा सिंह केवल एक पहलवान या अभिनेता नहीं थे, बल्कि भारतीय जनमानस के लिए शक्ति, संकल्प और संस्कृति के प्रतीक थे। उन्होंने जिस ईमानदारी और समर्पण से जीवन के हर पड़ाव को निभाया, वह आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा है। चाहे वह अखाड़ा हो, सिनेमा का पर्दा या संसद की कार्यवाही—हर जगह उन्होंने अपनी छवि एक सच्चे कर्मयोगी की बनाई। उनके द्वारा निभाए गए हनुमान के किरदार ने उन्हें आस्था और श्रद्धा का ऐसा रूप दे दिया, जो कालजयी बन गया। उनकी जीवनगाथा बताती है कि आत्मबल, अनुशासन और साधना से कोई भी व्यक्ति ‘दारा सिंह’ बन सकता है।