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तिब्बती बौद्ध धर्मगुरु का जीवन, दर्शन और निर्वासन की गाथा : दलाई लामा

आचार्य ललित मुनि

दलाई लामा का नाम भारत में बहुधा सुनाई देता है और अब तो यह लगने लगा है कि दलाई लाम भारत के ही कोई धार्मिक गुरु हैं। जबकि दलाई लामा तिब्बती बौद्ध धर्म के गेलुग स्कूल के सर्वोच्च आध्यात्मिक नेता हैं। यह उपाधि पहली बार 1578 में यांगहुआ मठ में अल्तान खान द्वारा प्रदान की गई थी। वर्तमान 14वें दलाई लामा, तेनज़िन ग्यात्सो, का जन्म 6 जुलाई 1935 को तिब्बत के उत्तरी भाग में आमदो के तकछेर गाँव में एक किसान परिवार में हुआ था। दो वर्ष की आयु में, उन्हें 13वें दलाई लामा, थुबटेन ग्यात्सो, के अवतार के रूप में पहचाना गया।
तिब्बती बौद्ध धर्म में, दलाई लामा को करुणा के बोधिसत्व, अवलोकितेश्वर, का अवतार माना जाता है, जो तिब्बत का संरक्षक संत है। बोधिसत्व वे हैं जिन्होंने मानवता की सेवा के लिए अपना निर्वाण स्थगित कर पुनर्जन्म लिया है। दलाई लामा न केवल तिब्बती बौद्धों के धार्मिक नेता हैं, बल्कि तिब्बत की स्वायत्तता और मानवाधिकारों के लिए वैश्विक स्तर पर वकालत करने वाले प्रतीक भी हैं।

तेनज़िन ग्यात्सो का जन्म ल्हामो धोंडुब के नाम से तिब्बत के तकछेर गाँव में हुआ था। उनके पिता एक किसान थे, और उनका परिवार साधारण परिस्थितियों में रहता था। दो वर्ष की आयु में, तिब्बती बौद्ध भिक्षुओं ने उन्हें 13वें दलाई लामा के अवतार के रूप में पहचाना। यह प्रक्रिया तिब्बती परंपराओं के अनुसार हुई, जिसमें भिक्षुओं ने विभिन्न संकेतों और परीक्षाओं के आधार पर उनकी पहचान की। ल्हामो ने 13वें दलाई लामा की वस्तुओं को पहचान लिया, जिससे उनकी पहचान पक्की हो गई। चार वर्ष की आयु में, उन्हें ल्हासा ले जाया गया, जहाँ उनकी औपचारिक शिक्षा शुरू हुई।

छह वर्ष की आयु में, दलाई लामा की शिक्षा शुरू हुई, जो मुख्य रूप से बौद्ध दर्शन, तर्कशास्त्र, और तिब्बती संस्कृति पर केंद्रित थी। उन्होंने ल्हासा के पोताला महल और द्रेपुंग मठ में शिक्षा प्राप्त की। 1949 में, 14 वर्ष की आयु में, उन्होंने जोखांग मंदिर में अपनी अंतिम परीक्षा दी, जिसके बाद उन्हें गेशे ल्हारम्पा की उपाधि मिली, जो बौद्ध दर्शन में डॉक्टरेट के समान है। उनकी शिक्षा में धार्मिक और राजनीतिक दोनों पहलुओं को शामिल किया गया, क्योंकि दलाई लामा को तिब्बत का धार्मिक और राजनीतिक नेता माना जाता है।

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1950 में, जब दलाई लामा केवल 15 वर्ष के थे, तब चीन ने तिब्बत पर आक्रमण किया। इसके परिणामस्वरूप, उन्हें पूर्ण राजनीतिक शक्ति संभालनी पड़ी। 1954 में, उन्होंने शांति वार्ता के लिए चीन का दौरा किया और माओ त्से-तुंग और डेंग शियाओपिंग से मुलाकात की, लेकिन कोई ठोस परिणाम नहीं निकला। 1951 में, तिब्बत को चीन के साथ 17-सूत्री समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर किया गया, जिसने तिब्बत की स्वायत्तता को सीमित कर दिया। 1959 में, तिब्बती विद्रोह के दमन के बाद, दलाई लामा को ल्हासा छोड़कर हिमालय पार करके भारत में शरण लेनी पड़ी।

दलाई लामा तिब्बती बौद्ध धर्म के गेलुग स्कूल के नेता हैं। उन्होंने बौद्ध दर्शन को विश्व स्तर पर प्रचारित किया है, जिसमें दया, अहिंसा, और शांति पर जोर दिया गया है। उन्होंने कई पुस्तकें लिखी हैं, जिनमें “Kindness, Clarity and Insight” (1984) प्रमुख है। उनकी शिक्षाएँ न केवल बौद्धों, बल्कि विभिन्न धर्मों के अनुयायियों को प्रेरित करती हैं। उन्होंने अंतरधार्मिक संवाद को बढ़ावा दिया और विश्व के विभिन्न धार्मिक नेताओं के साथ मुलाकात की।

दलाई लामा ने तिब्बत की स्वायत्तता के लिए अहिंसक संघर्ष का नेतृत्व किया है। 1960 में, उन्होंने धर्मशाला में निर्वासित तिब्बती सरकार की स्थापना की, जो तिब्बती शरणार्थियों के कल्याण और तिब्बत की स्वायत्तता के लिए काम करती है। 1963 में, उन्होंने तिब्बत के लिए एक लोकतांत्रिक संविधान प्रस्तावित किया। 1987 में, उन्होंने अमेरिकी कांग्रेस को 5-सूत्री शांति योजना प्रस्तुत की, जिसमें तिब्बत को एक शांतिपूर्ण क्षेत्र बनाने और मानवाधिकारों की रक्षा करने की मांग की गई थी। 1992 में, तिब्बत ने स्वतंत्रता की घोषणा की, हालांकि यह अभी तक हासिल नहीं हुई है।

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दलाई लामा ने 52 से अधिक देशों की यात्रा की और विश्व के राष्ट्रपतियों, प्रधानमंत्रियों, धार्मिक नेताओं, और वैज्ञानिकों से मुलाकात की। उनकी वैश्विक उपस्थिति ने तिब्बत के मुद्दे को अंतरराष्ट्रीय मंच पर लाने में मदद की है। 1989 में, उन्हें उनके अहिंसक संघर्ष के लिए नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इसके अलावा, उन्हें 60 से अधिक मानद डॉक्टरेट और अन्य पुरस्कार, जैसे लियोपोल्ड लुकास पुरस्कार, मिले हैं।

दलाई लामा का सबसे बड़ा संघर्ष तिब्बत पर चीनी कब्जे से संबंधित है। 1950 में, चीन ने तिब्बत पर आक्रमण किया, और 1951 में 17-सूत्री समझौते पर हस्ताक्षर किए गए, जो तिब्बत की स्वायत्तता को सीमित करता था। 1956 और 1959 में तिब्बती विद्रोह भड़क उठा, जिसे चीन ने बलपूर्वक दबा दिया। 17 मार्च 1959 को, दलाई लामा को ल्हासा छोड़ना पड़ा और हिमालय के कठिन रास्तों से गुजरते हुए 31 मार्च 1959 को भारत में शरण लेनी पड़ी। इस दौरान, उनकी जान को खतरा था, और कई लोगों को आशंका थी कि उनकी मृत्यु हो गई होगी।

दलाई लामा के उत्तराधिकारी के चयन को लेकर चीन और तिब्बती समुदाय के बीच तनाव है। चीन का दावा है कि अगले दलाई लामा का चयन उनकी मंजूरी से होगा और वह चीन में जन्म लेगा। हालांकि, दलाई लामा ने कहा है कि उनका पुनर्जन्म तिब्बत के बाहर हो सकता है, या यह परंपरा उनके साथ समाप्त हो सकती है। यह मुद्दा तिब्बती बौद्धों की परंपराओं और चीन की राजनीतिक हस्तक्षेप की कोशिशों के बीच एक जटिल विवाद है।

1959 में तिब्बती विद्रोह के दमन के बाद, दलाई लामा और लगभग 80,000 तिब्बती शरणार्थियों ने भारत में शरण ली। चीनी सेना के अत्याचारों और हत्याओं से बचने के लिए उन्हें अपनी जन्मभूमि छोड़नी पड़ी। भारत ने तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में दलाई लामा और तिब्बती शरणार्थियों को शरण दी। यह तिब्बत के इतिहास में पहली बार था जब इतनी बड़ी संख्या में तिब्बतियों को अपनी जन्मभूमि छोड़नी पड़ी।

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धर्मशाला तिब्बती समुदाय का केंद्र है, जहाँ केंद्रीय तिब्बती प्रशासन (CTA) कार्य करता है। दिल्ली में, अरुणा नगर की सम्येलिंग बस्ती तिब्बती संस्कृति का एक जीवंत केंद्र है, जहाँ तिब्बती मंदिर और बाजार हैं। कई तिब्बतियों को जन्म के आधार पर भारतीय नागरिकता मिली है, और वे भारतीय चुनावों में भाग लेते हैं, हालांकि कुछ अभी भी शरणार्थी पासपोर्ट रखते हैं।

दलाई लामा को 31 मार्च 1959 को भारत में शरण दी गई। 17 मार्च 1959 को, वे ल्हासा से निकले और हिमालय के कठिन रास्तों से गुजरते हुए भारतीय सीमा में प्रवेश किया। भारत ने उन्हें और उनके साथ आए 80,000 तिब्बती शरणार्थियों को शरण दी। तब से, भारत तिब्बती समुदाय का दूसरा घर बन गया है, और तिब्बती अपनी संस्कृति और धर्म को जीवित रखने के लिए विभिन्न बस्तियों में बसे हैं।

दलाई लामा का जीवन तिब्बती बौद्ध धर्म, शांति, अहिंसा, और मानवाधिकारों के लिए समर्पित है। उनके नेतृत्व ने तिब्बती समुदाय को भारत में स्थापित करने और तिब्बत की स्वायत्तता के लिए संघर्ष जारी रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उनकी शिक्षाएँ और कार्य दुनिया भर में लाखों लोगों को प्रेरित करते हैं। तिब्बती शरणार्थी भारत में धर्मशाला, दिल्ली, कर्नाटक, छत्तीसगढ़ और अरुणाचल प्रदेश जैसे स्थानों पर अपनी संस्कृति और परंपराओं को जीवित रखते हैं। दलाई लामा का उत्तराधिकारी का मुद्दा एक जटिल और विवादास्पद विषय है, जो तिब्बती बौद्ध परंपराओं और चीन की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के बीच तनाव को दर्शाता है।