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क्राँतिकारियों पर फाँसी अंक निकालकर तहलका मचाने वाले क्राँतिकारी पत्रकार रामहरख सिंह सहगल

भारतीय स्वाधीनता संग्राम में कितने सेनानी ऐसे थे जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में तो हिस्सा लिया ही, साथ ही चेतना का ऐसा वातावरण बनाया जिससे समाज जाग्रत हुआ। सुप्रसिद्ध स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और क्रांतिकारी पत्रकार रामहरख सिंह सहगल ऐसे ही स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और पत्रकार थे जो स्वतंत्रता आंदोलन में भी जेल गए और अपने लेखन एवं प्रकाशन के लिए भी।

वे अपने छात्र जीवन में ही स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ गए थे। खुले तौर पर वे कांग्रेस के साथ थे, पर उनका संपर्क और सहभागिता क्रांतिकारी आंदोलन से थी। क्रांतिकारी भगत सिंह मानो उनके पारिवारिक सदस्य थे। रामहरख जी की बेटी स्नेहलता सहगल ने आगे चलकर लिखा था कि वह भगत सिंह की गोद में खेली है।

उनका क्रांतिकारी आंदोलन से जुड़ने का माध्यम पत्रिका “चाँद” थी। रामहरख जी ने इस पत्रिका का प्रकाशन 1923 में आरंभ किया। इस पत्रिका में तीन प्रकार की सामग्री होती थी — एक समाज एवं सांस्कृतिक जागरण, दूसरा नारी चेतना और तीसरे भारत की स्वतंत्रता के लिए युवकों का आव्हान। 1931 में पत्रिका चाँद ने एक विशेषांक “फाँसी” का प्रकाशन किया। इससे पूरे देश में तहलका मच गया और नौजवान पूरे जोश से क्रांतिकारी आंदोलन में जुड़ने लगे।

ऐसे महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी रामहरख सिंह सहगल का जन्म 28 सितम्बर 1896 को लाहौर में हुआ था। परिवार आर्य समाज से जुड़ा था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा लाहौर में और महाविद्यालयीन शिक्षा प्रयागराज में हुई। वे अपने छात्र जीवन से ही स्वाधीनता आंदोलन से जुड़ गए थे।

1921 के असहयोग आंदोलन से जुड़े, पर उनका तरीका केवल प्रभात फेरी निकालकर नारे लगाना भर नहीं था। वे छात्रों और युवाओं को एकत्र करके भारत से अंग्रेजों को उखाड़ फेंकने का आव्हान करते थे। वे गिरफ्तार हुए और तीन माह की सजा हुई। लौटकर आए और प्रयागराज में रहकर ही जीवन यापन का निर्णय लिया। आरंभ में कुछ पत्र-पत्रिकाओं से जुड़े और लेखन कार्य आरंभ किया, और फिर इस मासिक पत्रिका चाँद का प्रकाशन आरंभ किया।

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इस पत्रिका में नियमित सामग्री के अतिरिक्त प्रतिवर्ष किसी सामयिक विषय पर एक विशेषांक भी निकाला जाता था। इनमें 1927 में प्रकाशित “भविष्य” और 1931 में प्रकाशित “फाँसी” विशेषांक ने पूरे देश में तहलका मचा दिया। भविष्य विशेषांक का उद्देश्य सामाजिक चेतना था — इसमें समाज और राष्ट्र का भविष्य कैसा हो, इस ओर समाज का ध्यान आकर्षित किया गया था। वहीं फाँसी विशेषांक में अंग्रेजी काल में भारतीय जीवन परंपरा के ह्रास और क्रांतिकारियों को दी गई फाँसी का विवरण था।

इन दोनों विशेषांकों ने तहलका मचाया। फाँसी विशेषांक की तो दस हजार प्रतियाँ पूरे देश में पहुँचीं। सरकार का गुस्सा फूटा, देश भर से प्रतियाँ जब्त की गईं और रामहरख जी गिरफ्तार किए गए। पत्रिका के केवल यही दो विशेषांक नहीं, अन्य विशेषांक जैसे “अचूक अंक”, “मारवाड़ी अंक”, “पत्रांक”, “राजपूताना अंक” और “नारी अंक” आदि ने भी तहलका मचाया। उनकी पत्रिका ने राष्ट्रीय आंदोलन को गति देने का काम किया।

पंडित सुंदरलाल लिखित “भारत में अंग्रेजी राज” का प्रकाशन भी चाँद कार्यालय से उन्होंने ही किया था। यह पुस्तक प्रकाशित होते ही जब्त कर ली गई थी। रामहरख जी अपने जीवन में अनेक बार जेल गए — पहली बार स्वतंत्रता आंदोलन में और फिर पत्रिका में प्रकाशित सामग्री के लिए गिरफ्तार हुए।

सहगल जी इलाहाबाद के 8 हेस्टिंग्ज रोड पर रहते थे। वहाँ उनकी कोठी का नाम “रैन बसेरा” था, जो क्रांतिकारियों का एक बड़ा केन्द्र था। पत्रिका चाँद जब समाज में लोकप्रियता और सरकार की आँख का सबसे बड़ा काँटा बनी, तब एक संकट रामहरख जी के सामने आया। उनके छोटे भाई नन्दगोपाल सिंह सहगल ने प्रेस और व्यवसाय पर अधिकार कर लिया। इससे पूर्व नन्दगोपाल सिंह प्रेस और व्यवसाय के महाप्रबंधक थे, पर रामहरख जी ने कोई संघर्ष नहीं किया। वे चुपचाप दूर हो गए।

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उनके हटते ही पत्रिका चाँद का सामाजिक और नारी चेतना का पक्ष तो यथावत रहा, पर स्वाधीनता संघर्ष का स्थान साहित्य ने ले लिया। इसके बाद रामहरख जी ने पत्रिका “कर्मयोगी” और अंग्रेजी साप्ताहिक “क्राइसिस” का प्रकाशन आरंभ किया, और उनकी लेखनी की धार यथावत रही।

उन पर सरकार की कितनी पैनी नजर थी, इसका अनुमान स्वयं उनके शब्दों से लगाया जा सकता है, जो उन्होंने स्वतंत्रता के बाद अपनी पत्रिका में लिखे —

“मेरी कोठी के चारों ओर 24 घंटे खुफिया पुलिस के भूत मंडराया करते थे। बाद में तो उन्होंने कोठी के सामने अपने खेमे तक गाड़ लिए थे। कहीं कोई बम फटा अथवा कोई राजनैतिक हत्या हुई कि इलाहाबाद में सबसे पहले मेरी तलाशी हुआ करती थी। यदि मैं भूल नहीं करता, तो कुल मिलाकर करीब चालीस बार मेरे यहाँ पुलिस ने तलाशियाँ ली होंगी। किसी-किसी बार तो पुलिस के सैकड़ों सशस्त्र सिपाही तथा ऑफिसर मेरी कोठी का रातों-रात घेरा डाल लिया करते थे और दिन निकलते ही तलाशी शुरू हो जाती थी।”

रामहरख सहगल का एक विस्तृत नोट दिया गया था, जिससे पता चलता है कि भगत सिंह से उनकी बहुत निकटता थी। इसमें उन्होंने अपने भाई नन्दगोपाल को “विश्वासघाती भाई” कहकर संबोधित किया है। अपने बारे में सहगल जी ने स्पष्ट कहा है —

“चाहे आप इसे मेरी भूल कहें, चाहे दूरदर्शिता, पर मैं जीवन के प्रथम प्रभात से हिंसात्मक सिद्धांतों का पोषक और समर्थक रहा हूँ। व्यक्तिगत रूप से मैंने ही नहीं, बल्कि मेरे द्वारा संपादित एवं संचालित सभी पत्र-पत्रिकाओं ने आजीवन कांग्रेस का समर्थन किया है। जब-जब कांग्रेस द्वारा संचालित आंदोलनों ने उग्र रूप धारण किया, तब-तब मुझे जेल-यात्रा करनी पड़ी और प्रचुर धन का नाश भी हुआ, पर मुझे इस बात का हार्दिक संतोष है कि मैं न तो कभी नमक बनाने के अभियोग में जेल गया और न झंडा लेकर आम सड़क पर चलने के अपराध में। प्रत्येक बार मुझ पर भारतीय दंड विधान की धारा 124 में बगावत के मातहत अभियोग लगाया गया और मुझे इसका गर्व है कि मैंने अपने इस सिद्धांत की ईमानदारी से आज तक रक्षा की। मेरी तो निश्चित धारणा है कि आज इस देश में जो भी थोड़ा-बहुत राजनीतिक जागरण दिखाई देता है, उसका अधिकांश श्रेय उन मुट्ठी भर क्रांतिकारियों को ही है जिनकी राजनीति ने ब्रिटिश साम्राज्य का नाका बंद कर दिया, प्रत्येक अंग्रेज की नींद हराम कर दी थी। मैंने सदैव इन मुट्ठी भर नवयुवक तथा नवयुवतियों की कद्र की है और यथाशक्ति समय-समय पर इनकी सहायता भी की। उनकी निर्भीकता, साहस, त्याग एवं खड़े-खड़े बलिदान हो जाने की भावना ने मुझे उनका गुलाम बना दिया था। इन्हीं सद्गुणों से प्रभावित होकर मैंने इनके लिए क्या नहीं किया।”

स्वतंत्रता के बाद देश में विभाजन की त्रासदी का तनाव और वातावरण में बदलाव आया। देश में क्रांतिकारी आंदोलनकारियों के प्रति समाज में सम्मान था, पर शासन में उपेक्षा का भाव रहा। इसका प्रभाव रामहरख जी पर भी पड़ा। यही सब दर्द उनके इन शब्दों में झलकता है। स्वतंत्रता के बाद वे एकाकी रहने लगे, पर लेखन कार्य यथावत रहा। कुछ बीमारियाँ भी स्थायी हो गईं। अंततः एक प्रकार से गुमनामी और गंभीर आर्थिक संकट के बीच 1 फरवरी 1952 को उन्होंने संसार से विदा ले ली।

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