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आत्मस्वरूप के साक्षात्कार समय चातुर्मास

आचार्य ललित मुनि

चौमासे का भारत में बड़ा ही महत्व है। जैसे ही नौतपा समाप्त होने की ओर होता है, मानवों के साथ-साथ पशु-पक्षी एवं समस्त चराचर जगत चौमासे के आगमन की आहट सुनकर प्रफुल्लित हो उठता है। क्योंकि देवशयनी एकादशी से लेकर देवउठनी एकादशी तक इन चार महीनों में हिन्दुओं के श्रावण सोमवार, हरियाली तीज, रक्षाबंधन, पोला, कृष्ण जन्माष्टमी, गणेश चतुर्थी, नवरात्रि, दीपावली जैसे पर्व एवं त्योहार मनाए जाते हैं।

मानसून के पूर्व वर्षा की कुछ बूँदें पृथ्वी पर आकर किसानों एवं साधु-संतों को अपने आगमन का संदेश देती हैं, जिससे किसान फसल बोने के लिए खेतों को तैयार कर लें और साधु-संत, जो कहीं विहार कर रहे हों, वे चातुर्मास के लिए स्थान का चयन कर वहाँ पहुँचने के लिए तैयार हो जाएँ।

मानसून का आगमन प्रकृति के अद्भुत चमत्कारों में से एक है। बरसात न केवल धरती की प्यास बुझाती है, बल्कि समस्त जगत को कायाकल्प का अवसर देती है। जब आसमान से जल बूँदों के रूप में बरसता है, तब केवल मिट्टी ही नहीं भीगती, बल्कि मनुष्य के आंतरिक जगत को भिगोने वाली चेतन प्रक्रिया भी प्रारंभ होती है।

मनुष्य जीवनभर समाज द्वारा निर्मित विभिन्न पद, प्रतिष्ठा एवं पहचानों के खोल ओढ़ता है। ये सब वास्तविक अस्तित्व को छुपाने वाले आवरण हैं। जीवन एक आभासी छवि बनाते हुए चलता है। इस आभासी छवि का चातुर्मास में मार्जन करके, विकारों की धूल हटाकर वास्तविक छवि प्रकट करने का कार्य सत्संग एवं आराधना-उपासना के माध्यम से होता है। कबीरदास जी कहते हैं—

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मोती मन मणि, मन मोती, अंतरि बाट अगम की।
कहै कबीर सुनो भाई साधो, सहजै पाया राम की।”

यह “अंतरि बाट अगम की” वही मार्ग है, जो खोल हटने पर दिखता है। और यह खोल जब उतरता है, तब सहज ही राम यानी परमात्मा का अनुभव होता है।

बरसात केवल जलवर्षण नहीं है, यह एक आवाहन है भीतर लौटने का। जब बादल बरसते हैं, तब हर पेड़-पौधा अपने असली रूप में निखर आता है, बिना धूल के, बिना प्रदूषण के। क्या यही प्रकृति का स्वरूप-दर्शन नहीं है? उपनिषदों में बार-बार यह संकेत मिलता है कि आत्मा और परमात्मा एक ही तत्व के रूप हैं—

अहं ब्रह्मास्मि” — मैं ही ब्रह्म हूँ।
तत्त्वमसि” — तू वही है।

परंतु इन महावाक्यों को समझने के लिए आवश्यक है कि मनुष्य अपने अहंकार, वासनाओं और संस्कारों के आवरणों को त्यागे। जब तक मनुष्य “मैं” की पकड़ में है, “वह” अर्थात परमात्मा अदृश्य रहता है। बरसात का पानी जैसे धूल को धो देता है, वैसे ही आध्यात्मिक साधना, प्रकृति से सामीप्य और निर्मल भावनाएँ आत्मा को निर्मल करती हैं। यह निर्मलता ही परमात्मा की झलक पाने का पहला चरण है। गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं—

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यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता।
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः॥” (भगवद्गीता 6.19)

अर्थ: जैसे वायुरहित स्थान में दीपक की लौ स्थिर रहती है, वैसे ही ध्यानस्थ योगी की चित्तवृत्तियाँ स्थिर हो जाती हैं।

यही स्थिति होती है जब बाहर के सारे आडंबर, आवरण, भूमिकाएँ, दिखावे, बरसात में भीगे वस्त्रों की तरह, एक-एक कर उतर जाते हैं और अंत में केवल शेष रहता है आत्मस्वरूप, जो साधना द्वारा प्राप्त होता है। रवींद्रनाथ ठाकुर कहते हैं—

जहाँ मन भय से मुक्त हो, और सिर गर्व से ऊँचा उठे —
उस स्वर्ग में मेरे देश को जागृत कर, हे प्रभु।”

यह पंक्ति उस भीतरी खोल को तोड़ने की कामना है, जो भय और दासता से बना है।

बरसात के मौसम में प्रेम प्रबल हो उठता है और यही प्रेम अंततः भक्तिभाव में परिवर्तित होता है। जिस तरह एक प्रेमी अपने प्रियतम के सामने अपने सारे मुखौटे उतार देता है, उसी तरह एक भक्त परमात्मा के समक्ष स्वयं को पूर्णतः समर्पित करता है। बरसात उस प्रेम की भूमिका है, जिसमें न तर्क होता है, न द्वंद्व, केवल समर्पण होता है। यही प्रेम मीरा बाई करती हैं—

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बरसै बदरिया सावन की, भनक सुनी हरी आवन की।”

यह ‘बरसात’ केवल प्रकृति की नहीं, आंतरिक अनुभव की वर्षा है, आत्मा और परमात्मा के संगम की घड़ी है।

मनुष्य की आध्यात्मिक यात्रा उसी दिन प्रारंभ होती है, जब वह अपने खोलों को एक-एक कर उतारना शुरू करता है। क्योंकि जब बाहर के छद्म आवरण उतर जाते हैं, तभी भीतर की आत्मा परमात्मा के सामने नतमस्तक होती है।

नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो, न मेधया न बहुना श्रुतेन।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्, तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम्॥” (कठोपनिषद)

अर्थ: यह आत्मा न तो प्रवचन से, न ही बुद्धि या अध्ययन से प्राप्त होती है। यह केवल उसी को मिलती है, जिसे वह स्वयं अपनाती है; और उसी के समक्ष वह अपने स्वरूप का उद्घाटन करती है।

जिस तरह बरसात के आगमन के बाद प्रकृति जीर्ण खोल को उतार कर नवकलेवर धारण करती है, उसी प्रकार यह अध्यात्मिक रूप से मनुष्यों का अपने विकारों को तिरोहित कर नवकलेवर धारण करने का समय होता है, जो आराधना, उपवास, सत्संग एवं ईश्वर की उपासना के माध्यम से होता है। यह वही समय होता है जब मनुष्य अपने जीवनकाल में सबसे अधिक प्रकृति का सामीप्य पाता है एवं स्वयं का मार्जन करता है।