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धार्मिक और सामाजिक पुनर्जागरण के अग्रदूत : स्वामी दयानंद सरस्वती

स्वामी दयानंद सरस्वती भारतीय समाज में धार्मिक और सामाजिक पुनर्जागरण के अग्रदूत थे। वे एक महान सुधारक, विचारक और आर्य समाज के संस्थापक थे। बोध दिवस वह महत्वपूर्ण दिन है, जब स्वामी दयानंद को अपने आध्यात्मिक लक्ष्य और सत्य की वास्तविकता का साक्षात्कार हुआ। यह दिन उनके जीवन में एक निर्णायक मोड़ था, जिसने उन्हें वेदों के शुद्ध ज्ञान के प्रचार और सामाजिक सुधार की ओर प्रेरित किया।

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जब दिल्ली की जामा मस्जिद में गूंजे थे वेद मंत्र

स्वामी श्रद्धानंद हिंदू-मुस्लिम एकता के भी प्रबल समर्थक थे। उन्होंने वर्ष 1919 में दिल्ली की ऐतिहासिक जामा मस्जिद में एक प्रेरणादायक भाषण दिया, जिसमें उन्होंने वेद मंत्रों का उच्चारण किया। यह घटना अपने आप में अभूतपूर्व थी और यह दर्शाती थी कि वे सच्चे अर्थों में धार्मिक एकता के पक्षधर थे। उन्होंने सदैव सभी धर्मों की समानता पर बल दिया और उनके विचारों ने समाज को नई दिशा दी।

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परम् पूज्य गुरुजी माधव सदाशिव गोलवलकर: जीवन एवं योगदान

माधव सदाशिव गोलवलकर, जिन्हें “परम पूज्य गुरुजी” के नाम से जाना जाता है, का जन्म 19 फ़रवरी 1906 को महाराष्ट्र के रामटेक में हुआ। उनके पिता सदाशिवराव ‘भाऊ जी’ शिक्षक थे, और माता लक्ष्मीबाई ‘ताई’ धार्मिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक परंपराओं की वाहक थीं। बचपन से ही असाधारण मेधा के धनी माधव जी की शिक्षा दो वर्ष की आयु से ही प्रारंभ हो गई थी।

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पत्रकारिता से स्वतंत्रता संग्राम तक:पंडित रामदहिन ओझा

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अनेक बलिदानी ऐसे भी हैं जिन्होंने अपने लेखन से जनमत जगाया, युवकों को क्राँति के लिये संगठित किया और स्वयं विभिन्न आँदोलनों में सीधी सहभागिता की और बलिदान हुये। सुप्रसिद्ध स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पंडित रामदहिन ओझा ऐसे ही बलिदानी थे।

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स्वराज्य के ज्योतिपुंज लहूजी साल्वे

लहूजी के पूर्वज शिवाजी महाराज के समय पुरन्दर किले के रक्षकों में थे। इसीलिए लहू जी के आदर्श छत्रपति शिवाजी महाराज थे। स्वत्व और स्वाभिमान केलिये लहूजी के संघर्ष का उल्लेख आगे चलकर लोकमान्य तिलक जी ने भी किया है।

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अंग्रेजों ने किया था पूरे गाँव में सामूहिक नरसंहार

भारतीय स्वाधीनता संग्राम में वनवासी वीर बलिदानी बुधु भगत ऐसा क्राँतिकारी नाम है जिनका उल्लेख भले इतिहास की पुस्तकों में कम हो पर छोटा नागपुर क्षेत्र के समूचे वनवासी अंचल में लोगो की जुबान पर है। उस अंचल में उन्हें दैवीय शक्ति का प्रतीक माना जाता है। वन्य क्षेत्र के अनेक वनवासी परिवार उन्हें लोक देवता जैसा मानते हैं और उनके स्मरण से अपने शुभ कार्य आरंभ करते हैं।

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