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बुंदेलखंडी वाचिक परम्परा में जीवन के विविध रंग

श्रीमती संध्या शर्मा

लोकगीत मनुष्य समाज की आत्मा है, हम देखते हैं कि समाज अपने भावों को लोकगीतों में व्यक्त करता है। जब भी अवसर मिलता है, लोकगीत पर्वों, उत्सवों को मनाने का माध्यम रहे हैं। कभी अपनी खुशी व्यक्त करने के लिए तो कभी दुख भी व्यक्त करने के लिए लोकगीतों का सहारा लिया जाता है। इस तरह के लोकगीत हर समुदाय, भाषा, बोली एवं प्रांत में सुनाई देते हैं। साथ ही हम मानते हैं कि लोकगीत जनमानस से इतने अधिक जुड़े हैं कि इनका जन्म वैदिक ॠचाओं से पहले हुआ है।

‘लोकगीत’ धरती, पर्वत, फसलों, नदियों का राग है, प्रकृति की उन्मुक्त आवाज़ है जो उत्सवों, मेलों और त्योहारों में लोक समूहों के मधुर कंठों से गुंजारित होकर कानो में रस घोलती है। साहित्य की छंदबद्धता एवं अलंकारों से मुक्त रहकर ये मानवीय संवेदनाओं के संवाहक के रूप में माधुर्य प्रवाहित कर हमें तन्मयता के लोक में पहुँचा देते हैं। संगीतमयी प्रकृति जब गुनगुना उठती है लोकगीतों का स्फुरण हो उठना स्वाभाविक ही है

ऐसा ही एक क्षेत्र है जिसे बुंदेलखंड कहा जाता है, यहाँ बोली-भाषा तथा लोक अपना अलग ही महत्व रखता है। यहाँ के लोगगीतों में इतिहास है, तो भाषाई सौंदर्य भी है, उत्सव की खुशी है तो जन जोश बढ़ाने वाले वीर रस का आल्हा भी है। लोकगीत वह हैं जो सरल भाषा में जनमानस तक पहुंच जाएं एवं गहराई तक असर करें। बुंदेलखंड भी इससे अछूता नहीं है। यहाँ के लोकगीत बुंदेलखंड की संस्कृति का प्रतिनिधित्व करते दिखाई देते हैं।

बुंदेलखंड की प्राकृतिक सुंदरता बड़ी मनोरम है। उसकी नैसर्गिक सीमाएं ही उसके सौंदर्य की साक्षी हैं। उत्तर में यमुना, दक्षिण में नर्मदा, पूर्व में टोंस और पश्चिम में चम्बल नदी है।  विंध्याचल, सतपुड़ा और अमरकंटक जैसे वनों की सुंदरता बुंदेलखंड की विशेषता है। कहा जाता है कि –
इत यमुना, उत नर्मदा, इत चंबल, उत टोंस।
छत्रसाल सों लरन की, रही न काहू हौंस॥

परन्तु बुंदेलखंडी भाषा इन प्राकृतिक सीमाओं के पार भी अपना प्रभाव छोड़ चुकी है। इतिहास प्रसिद्द अनेक वीरों और वीरांगनाओं को बुंदेलखंड ने जन्म दिया है।  रानी लक्ष्मीबाई, रानी दुर्गावती जैसी वीरांगनाएं और आल्हा-ऊदल , हरदौल, छत्रसाल जैसे वीर इसी प्रदेश की देन हैं। स्वर्गीय मुंशी अजमेरी जी ने कुछ वीरों और साहित्यकारों के नाम इस प्रकार बताए हैं –

आल्हा-ऊदल सद्रस वीर जिसने उपजाए,
जिनके साके देश-विदेशों ने भी गाए।
व्ही जुझौति जिसे बुंदेलों ने अपनाया,
इससे नाम बुंदेलखंड फिर जिसने पाया।
पुरावृत्त से पूर्ण परम प्रख्यात भूमि है ,
यह इतिहास-प्रसिद्द शौर्य संघात भूमि है।
तुलसी, केशव, लाल , बिहारी, श्रीपति, गिरधर,
रसनिधि, रायप्रवीण, भजन, ठाकुर, पद्माकर।
कविता-मंदिर-कलश सुकवि कितने उपजाए,
कौन गिनवे नाम, जाएँ किससे गुण गए।
यह कमनीया  काव्य कला की नित्य भूमि है
सदा सरस बुंदेलखंड साहित्य-भूमि है।

यहाँ के लोकगीतों की रसिकता और सहजता से ही यहाँ की परम्पराओं की अक्षुण्ता और श्रेष्ठता का अनुमान किया जा सकता है। उषा: काल से ही चक्की की घरघराहट के साथ गेहूं, चना पीसतीं बुंदेलखंडी बहनों के ‘बिलमाई’ से वातावरण मस्त हो जाता है। इसके साथ ही बारहमासी, आराधना लोकगीत, भोला के गीत, फागें, सैरें , सोहर, बधावा, विवाह गीतों में-हल्दी, लागूं, चढ़ावा, बन्नी, बनरे, गारी, ज्यौनार, विदाई गीत आदि बड़े ही मनमोहक होते हैं।
चक्की चलाती  ‘बिलमाई’  गाती हुई ननद भौजाई के परस्पर संयत मजाक के संवाद देखिए-
अनबोले रहो न जाये,
ननद बाई वीरन तुम्हारे अनबोला।
भाभी की बात सुनकर ननद अपने भाई का पक्ष लेते हुए कहती है –
भौजी मोरी! वीरान हमारे तब बोलें…….

लोकगीतों के भावों की अभियव्यक्ति की कोई सीमा नहीं है। हमारी संस्कृति सदियों-सदियों से इन्हीं मान्यताओं में जीती आई है। एक युवती गंगा में डूब मरना चाहती है। उसकी कोई संतान नहीं है। संतानहीन युवती समाज में कितनी अपमानित, तिरस्कृत एवं उत्पीड़ित की जाती है यह किसी से छिपा नहीं है। माँ गंगा ने उसकी पीड़ा को समझा और पुत्रवती होने का आशीर्वाद दिया। युवती यह सुनकर धन्य हो गई। उसने गंगा को पियरी चढ़ाने तथा सोने का घाट बँधवाने का वादा किया। पूरे लोकगीत में गंगा की दयालुता, कृपालुता तथा नारी पीड़ा का गहरा भाव समाया हुआ है। कहीं हमारा लोक जीवन गंगा को जल से भरी-पूरी लहराती हुई देखना चाहता है, तो कहीं माँ नर्मदे से मिलना माता-पिता संयोग जान पड़ता है-

नरबदा मैया ऐसी मिली रे , ऐसी मिली रे
जैसे मिल गए , मताई और बाप रे
नरबदा मैया हो…..
तो कहीं लोकगीतों में नर्मदा जल धारा की तुलना दूध धारा से की जाती है
नरबदा मैया ऐसी तो बहीं रे
ऐसी तो बहीं रे
जैसे दूधा की धार रे
नरबदा मैया हो  ….

भक्ति सम्बन्धी लोकगीतों की छटा भी निराली है। कृष्ण जमुना में कूद पड़े हैं, वे कलेवा (नाश्ता)  करके भी नहीं गए थे।  यशोदा मैया बड़ी दुखी हैं। घाट-घाट घूमती हुई अपने लाल के लिए चिंतित माता यशोदा का अपार स्नेह इस लोकगीत में बड़ी ही खूबसूरती से चित्रित किया गया है-  .
कन्हैया जमना में कूद पड़े, बिहारी जमना में कूद पड़े
घाटन-घाटन फिरत यशोदा, हरे रामा कूदत काहू न लखे,
काल को कलेवा मोरे लाल को धरो है, अरे रामा कहके काये न गये

लोकगीत की अपनी एक शैली होती हैं । उसका अपना एक संगीत होता हैं । लय-ताल सबकुछ निराला । वह व्यक्ति-समाज के हृदय में एक अलग सी हलचल पैदा करता हैं । क्योकि लोकगीत ह्रदय से निकलता और ह्रदय में बसता है । वह सहज रूप से उत्पन्न होता हैं ।  जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी चला आ रहा हैं । और हमें ईश्वरीय आनंद प्रदान करता है।

नदियों के किनारे सभ्यताएं जन्मती हैं, इन्ही नदियों के किनारे जन्मे इन लोकगीतों में अभिव्यक्त बिम्ब,प्रतीक आदि का सहज प्रयोग नदियों का मानवीकरण करते हुए हमारी आँखों के सामने एक चलचित्र-सा खड़ा कर देते हैं । ऐसा लगता हैं कि जैसे हम भी उस लोकगीत का एक हिस्सा हैं ।

ग्रीष्म ऋतु की तपन के बाद आकाश में श्वेत–श्याम बादलों के समूह छाने लगते हैं तथा संदेश देते हैं, जन–जन में प्राणों का संचार करने वाली बर्षा ऋतु के आगमन का। आकाश में छायी श्यामल घटाओं तथा ठंडी–ठंडी बयार के साथ झूमती आती है जन–मन को आनंद प्रदान करने वाली, जीवन दायिनी वर्षा की प्रथम फुहार। ग्रीष्म की उष्णता आकाश से जल बिंदुओं के रूप में पुनः धरती पर अवतरित होती है, अपने नवीन मनमोहक रूप में।

ऋतु परिवर्तन के साथ प्रकृति सदैव एक नया ही रूप धारण करती है। चारों ओर छायी हरियाली, सूखी टहनियों पर कोमल नवीन पल्लव देख ऐसा प्रतीत होता है जैसे धरा ने अपने जीर्ण–शीर्ण वस्त्रों का परित्याग कर नवीन हरित परिधान धारण किया हो।

आकाश में मेघों की गड़गड़ाहट के साथ श्यामल घनघोर घटाओं में स्वर्णिम चपला द्रुत दामिनी की थिरकन, मृदंग वादन की संगति में नृत्य का आभास देती है। मेघ गर्जना से उन्मादित हो मयूर अपने सतरंगी इंद्रधनुषीय पंखों को फैला कर नृत्य करने लगता है। श्यामवर्णी मेघ के मध्य उड़ती हुई श्वेत बकुल पंक्तियां अत्यंत मनोहारी प्रतीत होती है। ऐसा लगता है ग्रीष्म ऋतु में कठिन परिश्रम के कारण सूर्यदेव भी श्यामल मेघों की ओट में आँखें मूंदे विश्राम कर रहे हैं।

इस रसमयी ऋतु ने कलाकार हृदय को अत्याधिक रस विभोर किया है। साहित्य, संगीत एवं चित्रकला तीनों ही कलाओं की भावव्यंजना एक ही है किंतु अभिव्यक्ति के माध्यम भिन्न–भिन्न हैं। जहाँ साहित्य शब्द प्रधान है, तो संगीत स्वर प्रधान है तथा चित्रकला रेखा एवं रंग प्रधान।

बुंदेलखंडी लोकगीत भी मेघों और मेघगर्जना के रस माधुर्य से अछूते  नहीं है। सावन–भादों के घने कजरारे बादल आकाश पर छाते हैं, तो बनते हैं लोकगीत “सहज भावनाओं की सहज अभिव्यक्ति”। वे हृदय की गहराइयों से निकलते हैं, इसलिए मर्मस्पर्शी होते हैं। लोकगीतों में जो रस है, भाव है, अनुभूति है, सरलता है, तन्मयता है, भावुकता है, वह अन्यत्र दुर्लभ है।

प्रस्तुत लोक गीत में नारी-हृदय की मार्मिक अभिव्यक्ति है: एक माँ बादलों से निवेदन करते हुए कह रही है – बादल तुम अभी न बरसो, अभी मेरे साजन घर में नहीं हैं।  बादल बरसे तो मेरे घर टपकने लगेगा, घर टपकने से मेरे ललन का पालना भीग जाएगा और वो रुदन करने लगेगा।

अबै जिन बरसो बादरा रे
बरसन लागे बादरा रे,
चुंअन मोरे लागे बांगला रे। अबै…
चुंअन मोरे लागे बांगला रे,
भींजन मोरे लागे पालना रे। अबै…
भींजन मोरे लागे पालना रे,
रोबन मोरे लागे लालना रे। अबै…
अबै घर नइयां साजना रे। अबै…

इन पंक्तियों में नायिका अपने मायके की बड़ाई करती हुई प्रतीत हो रही है। कह रही है ससुराल में तो अभी काली बदरिया ही छायी है जबकि उसके मायके में तो मेघ बरस गए हैं और बाबुल ने धान बो दिए।

कहना से ऊनई कारी बदरिया
कहना बरस गये मेघ मोरे लाल।
ससुरे से उनई अरे कारी बदरिया,
मयके बरस गये मेह मोरे लाल।
कौना ने बो दई लटक कंकुनिया,
कौना ने सठिया धान मोरे लाल।
ससुरा ने बो दई लटक कंकुनिया
बाबुल ने सठिया धान मोरे लाल

पति के विरह से व्याकुल नायिका अपनी छोटी ननद से अपनी भावना व्यक्त करती हुई कहती है कि काली बदरिया तो घिर -घिर आ गई है पर साजन नहीं आए –

काहे सैंया भये परदेसिया
घिर-घिर आई कारी बदरिया
जियरा तड़पे चमके बिजुरिया
मोहे सताए सूनी सेजरिया

निम्न लोकगीत में नायिका अपनी सखी से मन की बात कह रही है – सखी मैं बादल देखकर डर गई हूँ। काली घटाएं उमड़-घुमड़ कर आ गई हैं। जहाँ जाती हूँ वहाँ  पानी ही पानी है, धरती हरी हो गई, क्यारियों में फूल खिल गए, खेत सुहावने लगने लगे, लेकिन मेरे पिया तो परदेस में ही हैं, मुझे एक पल को भी चैन नहीं है।  हे सखी! कुछ ऐसा जतन करो कि मेरे प्रियतम परदेस से वापस आ जाएँ।

बादल देख डरी सखी री बादल देख डरी
काली-काली घटा उमड़ आई,
बरसत झरी-झरी। सखी री…
जित जाऊं उत पानी-पानी
भई सब भूमि हरि। सखी री…
फूले फूल क्यारिन बगियन,
लगे सुहावन खेत सखी री। सखी री…
मेरे पिया परदेश बसत हैं,
चैन न एक घरी। सखी री…
आ जावें परदेश से प्रीतम,
ऐसो करो जतन तो कछु री।

निम्न पंक्तियों में नायिका का बदरिया से बैर -भाव झलक रहा है , वह  कह उठती है – बदरिया बैरन हो गई है, मेरे पिया का सन्देश लिए बिन आ गई। बरसात में सबके प्रिय अपने घर-आँगन में भींग रहे हैं। एक मेरे ही प्रिय ऐसे हैं, जो परदेश में भींग रहे हैं। बरसात का मजा तो अपने घर में प्रिय के साथ-साथ भींगने में है-

लाये न कोई संदेसा बदरिया बैरिन हो गईं
सबके पिया भींगे घर-आंगन
मोरे पिया भींगे परदेस
बदरिया बैरिन हो गईं

निम्न लोकगीत में एक निराला ही सौंदर्य है : आसमान में बादल गरज रहे हैं, और नाज़ुक सी गोरी पानी भरने के लिए कुएँ पर जा रही है।वह अपने ससुर से विनती करती है कि क्यों न घर के आँगन में ही कुआँ खुदवा दिया जाए जिससे कि वह आराम से पानी भर सके। अपने जेठ से वह कहती है कि “वे आँगन में पाट लगवा दें,”
देवर से कहती है कि “वे रेशम की डोरी ला दें, नन्दोई से कहती है कि मोती की कुड़री गढ़वा दें, पति से कहती है– मेरे लिए सोने का कलश बनवा दो तुम्हारी पत्नी पानी भरने जा रही है ।”

ऊपर बादर घर्राएँ हों,
नीचे गोरी धन पनिया खों निकरी ।
जाय जो क‍इऔ उन राजा ससुर सों,
अँगना में कुइआ खुदाय हो
तुमारी बहू पनिया खों निकरी ।
जाय जो क‍इऔ उन राजा जेठा सों,
अँगना में पाटें जराय हो,
तुमारी बहू पनिया खों निकरी ।
जाय ओ कइऔ उन वारे देउर सों,
रेशम लेजे भूराय हों
तुमारी बहू पनिया खों निकरी ।
अरे ओ जाय ओ कइऔ उन राजा ननदो‍उ सों,
मुतिखन कुड़ारी गढ़ाए हों,
तुमारी सारज पनिया खों निकरी ।
जाय जो क‍इऔ उन राजा पिया सों,
सोने का घड़ा बनवाए हों,
तुमारी धनि पनिया खों निकरी ।

पृथ्वी का अमृत जल को कहा गया है, अगर जल न हो तो यह वसुंधरा जल जाए। प्राणियों का अस्तित्व ही मिट जाए, इसलिए हमारे पूर्वजों ने जल का हमेशा सत्कार किया, उसकी महत्त्ता एवं उपयोगिता को समझ कर आने वाली पीढीयों को सचेत किया। है। जितने नाम जल के हैं, उससे अधिक उसका उपयोग है। आज बुंदेलखंड क्षेत्र जहाँ जल की कमी से जूझ रहा है वहीं प्राचीन काल में जल महत्व समझकर उसका गुणगाण किया जाता था और लोकगीतों के माध्यम से जन जागृति करने का कार्य भी किया है।

मध्यप्रदेश की हृदयस्थली बुन्देलखण्ड को चेदि तथा दशार्ण भी कहा जाता है। विष्णु धर्मोत्तर पुराण में “चेद्य नैषधयोः पूर्वे विन्ध्यक्षेत्राच्य पश्चिमे रेवाय मुनयोर्मध्मे युद्ध देश इतीर्यते।” यह श्लोक वर्णित है। दशार्ण अर्थात दश जल वाला या दश दुर्ग भूमि वाला द्धण शब्द दुर्ग भूमौजले च इति यादवः जिस प्रकार पंजाब का नाम पांच नदियों के कारण पड़ा मालूम होता है, उसी प्रकार बुन्देलखण्ड का दशार्ण नाम – धसान, पार्वती, सिन्ध (काली) बेतवा, चम्बल, यमुना, नर्मदा, केन, टौंस और जामनेर इन दस नदियों के कारण संभव हुआ है।

बुन्देली धरा को प्रकृति ने उदारतापूर्वक अनोखी छटा प्रदान की है। यहाँ पग-पग पर कहीं सुन्दर सघन वन और कहीं शस्यश्यामला भूमि दृष्टिगोचर होती है। विन्ध्य की पर्वत श्रेणियाँ यत्र-तत्र अपना सिर ऊँचा किए खड़ी हैं। यमुना, बेतवा, धमान ,केन, नर्मदा आदि कल-कल नादिनी सरितायें उसके भू-भाग को सदा सींचती रहती हैं। शीतल जल से भरे हुए अनेकों सरोवर प्रकृति के सौन्दर्य को सहस्त्रगुणा बढ़ाते हैं। अर्थात यहाँ प्रकृति अपने सहज सुन्दर रूप में अवतरित हुई है। यहाँ की सरिताएं विन्ध्याचल और सतपुड़ा की पर्वत श्रेणियों में जन्मी हैं। कभी चट्टानों में अठखेलियाँ करतीं, कभी घने वनों में आच्छादित इलाकों में विचरण करती हैं और कभी मैदानी भागों से बहती ये नदियाँ आगे बढ़ती हैं।

जल में प्राणदायिनी शक्ति छिपी है, मानव शरीर पाँच तत्वों से मेल से बना है, जिसमे जल का महत्वपूर्ण स्थान है। ताजा जल हमें केवल एक ही स्रोत से मिलता है, वह है वर्षा। झीलें, हिमनद, नदियां, चश्में, कुएँ जल के गौण साधन हैं, और इन्हें भी वर्षा या बर्फ से जल मिलता है। इन साधनों के माध्यम से वर्षा का पानी इकट्ठा हो जाता है। जब वर्षा होती है, तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे अमृत बरस रहा हो और ताप से व्याकुल वसुंधरा हरियाली चूनर ओढ़कर नवयौवना जैसी सज संवर जाती है।

जल को अमृत माना जाता हैl मनुष्य की दैनिक आवश्यकता की पूर्ति हेतु जल की खपत होती है। अर्थात जल ही जीवन है। हमारे लोक कवियों ने अपने गीतों में जल के महत्व को स्वीकारा है। यहाँ के गीतों, गाथाओं, लोकोक्तियों, मुहावरों, कथा-कहानियों में जल के महत्व का वर्णन मिलता है। अगर हम जल के महत्व को जान लें तो जीवन की सबसे बड़ी आवश्यकता को सुलझाने में हम अपना योगदान दे सकेंगे। हमारा कल्याणमय भविष्य इस बात पर टिका है, कि हम उपलब्ध जल के उपयोग में कितने सफल हो सकते हैं- वर्षा ऋतु हमारी नियति का महानाट्य है जिसके अभिनेता होते हैं ‘मेघ’ तभी तो हमारे लोक में मेघों का आवाहन होता है, हमारे देश में मेघोत्सवों, आल्हा, कजरी का आयोजन होता है।
बुन्देली लोकगीत भी इसमें पीछे नहीं हैं तभी तो वे कहते हैं कि-
रूमक-झुमक चले अईयो रे
साहुन के बदला रे

फाग गीतों में कहा गया है कि –
गह तन गगर कपत तन थर-थर
डरत धरत घट सर पर।

गगरी के लेते ही वह थर-थर काँपती है तथा सिर पर घड़ा रखते हुए डरती है। वह डर को छोड़ती ही नहीं है- क्योंकि पानी भरने में एक पहर का समय लगता है। कई लोकगीतों में जल के महत्व को इतने सुन्दर ढंग से वर्णित किया गया है, जो अवर्णनीय हैं। जैसे-

न मारो कांकरिया लाग जेहे
कांकरिया के मारे हमारी गगरिया फूट जेहे
गगरिया के फूटे हमारी सासुइया रूठ जेहे
सासुइया के रूठे हमारे बालमवा रूस जेंहे
बलमवा के रूसे हमारी सेजरिया छूट जेहे

इस लोकगीत में जल से भरी गगरिया के फूटने पर प्रिय के रुठने को बड़े ही सहज व शालीन ढंग से दर्शाया गया है।
तो एक अन्य लोकगीत में माता सीता के जल भरने कुएं पर जाने का वर्णन कुछ इस तरह किया है-
जल भरन जानकी आई हो मोरी केवल माँ
कौन की बहुआ कौन की बिटिया
कौन की नार कहाई हो
मोरी केवल माँ
दशरथ बहुआ, जनक की बिटिया,
राम की नार कहाई हो मोरी केवल माँ

तो कहीं माँ नर्मदा की तुलना माता-पिता से करते हुए बुंदेलखंडी बम्भोली सुनना अत्यंत कर्णप्रिय लगता है-
नरबदा मैय्या होssss
नरबदा मैया ऐसी मिली रे
ऐसी मिली रे जैसे मिल गए
महतारी और बाप रेssss
नरबदा मैया होssss

अत: जल हमारी अमूल्य धरोहर है। जल के बिना जीवन असम्भव है जल के कारण ही हमारा व प्रत्येक प्राणी का अस्तित्व है जल का संरक्षण हमारा कर्तव्य है और हमें अपने प्रयासों द्वारा अगली पीढी के लिए जल को बचाए रखना है। जल का सही उपयोग करें तथा दुरुपयोग होने से बचाएं। यह जान लेना चाहिए कि जल संरक्षित रहेगा तो धरती पर जीवन रहेगा।

लोकगीतों से हमारे त्यौहार भी अछूते नहीं है। हमारे देश में वैसे तो बारहों महीने आठों दिन कोई न कोई त्यौहार या उत्सव मनाने की राह निकल आती है, त्यौहार मनाने के पीछे कोई न कोई धार्मिक, ऐतिहासिक या पौराणिक महत्व जरुर रहता है जिन परम्पराओ का पालन हमारे देश में सदियों होता चला आ रहा है और इन परम्पराओ पर आधारित ये त्यौहार हमारे भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग है जिन्हें हम बहुत ही जोश और पूरी उर्जा के साथ लोगो के साथ मिलकर अपने इन त्योहारो को मनाते है।

इसी कड़ी में सबसे रंगबिरंगा रंगों का त्यौहार है होली। फागुन के महीने में ऋतुराज बसंत के स्वागत में टेसू लाल फूलों से लद जाता है, आम्रवृक्ष बौरा उठता है, पूरे वातावरण में अनोखी मादकता छा जाती है और पूरा माहौल रोमांच से परिपूर्ण होता है, और इसी मदमाते फागुन के महीने में आती है होली।

बुंदेलखंड की होली और बोली की हर जगह धूम रही है। बुंदेलखंडी होली और फाग का तो जैसे चोली दामन का साथ है। बिन फ़ाग होली अधूरी सी लगती है।  और जहाँ फाग है वहाँ हैं कवि ईसुरी की अलौकिक फाग नायिका ‘रजऊ’ और बुन्देली परम्पराएँ। वसंत से लेकर होली तक फाग की भीनी – भीनी बयार बहकर मन-आत्मा को सराबोर करती रहती है। प्रकृति के मादक उपादान जहाँ हमें सुख देने लगते हैं, वहीँ विरहदग्ध के लिए दारुण दुःख देने वाले सिद्ध होते हैं :

अब दिन आए बसंती नीरे ,ललित और रंग भीरे।
टेसू और कदम फूले हैं, कालिंदी के तीरे।
बसते रात नदी -नाड-तट पै, मजे में पंडा धीरे।
“ईसुर” कात नार बिरहँ पै, पिऊ-पिऊ रटत पापीरे।

बुन्देली माटी के यशस्वी कवि ईसुरी की फागें कालजयी हैं। आज भी ग्रामीण अंचलों से से लेकर शहरों  तक इनकी फ़ाग गाई जाती हैं। ईसुरी की फागों में समाज के अन्तरंग और बहिरंग दोनों का जीवंत चित्रण मिलता है। मानव जीवन का केंद्र जन्मदात्री नारी माँ, बहिन, दादी-नानी, सखी, भाभी, प्रेयसी, पत्नी, साली, सास अथवा इनसे सादृश्य रखनेवाले रूपों में नारी जीवन के हर पड़ाव पर सहयोगी होती है।  कवि ईसुरी की फागों में नारी का चित्रण उसे केंद्र में रखकर किया गया है.

फागुन के महीने में गाँव की चौपालों में अनोखी महफ़िलों की बहार होती है, जहाँ रंगो की बौछार के बीच अबीर – गुलाल से रंगे फगुआरों की फाग जब रंगीली फ़िज़ां में गूंजती है तो ऐसा लगता है रंग नहीं श्रृंगार रस बरस रहा हो। फाग के बोल बच्चे , बूढ़े हों या जवान किसी को भी अपनी मस्ती में रंगे बिना नहीं छोड़ते –

ब्रज में खेलें फाग कन्हाई, राधे संग सुहाई।
चलत अबीर रंग केसर को, नभ अरुनाई छाई।
लाल – लाल ब्रज, लाल – लाल वन, वीथान कीच मचाई।
“ईसुर” नर-नारीं के मन में, अति आनंद सरसाई।

नारी चित्रण की सहजता, स्वाभाविकता, जीवन्तता, मुखरता तथा सात्विकता के पञ्चतत्वों से ईसुरी ने अपनी फागों का श्रृंगार किया है. ईसुरी ने अपनी प्रेरणास्रोत ‘रजऊ’ को केंद्र में रखकर नारी-छवियों के मनोहर शब्द-चित्र अंकित किये हैं. रसराज श्रृंगार ईसुरी को परम प्रिय हैं. श्रृंगार के संयोग-वियोग ही नहीं ममत्व और सखत्व भाव से भी ईसुरी ने फागों को लालित्य प्रदान किया है।
जबसें छुई रजऊ की बइयाँ, चैन परत है नइँयाँ।
सूरज जोत परत बेंदी पै, भर भर देत तरइयाँ।
कग्ग सगुन भये मगरे पै, छैला सोऊ अबइयाँ।
कहत ‘ईसुरी’ सुनलो प्यारी, ज्यो पिंजरा की टुइयाँ।।

अपनी व्याकुलता का वर्णन हो या रजऊ की कमनीय काया का रसात्मक चित्रण ईसुरी रसमग्न होने पर भी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करते, अश्लील नहीं होते। रजऊ काल्पनिक चरित्र है या वास्तविक इस पर मतभेद हो सकते हैं किन्तु उसका चित्रण इतना जीवंत है की उसे वास्तविक मानने की प्रेरणा देता है। रजऊ नारी की मनोरम छवियों के साथ परमसत्ता के रूप-लावण्य अलौकिक, अनन्य व  काल्पनिक स्वरुप के शब्दांकन का माध्यम भी है  –

तन कौ कौन भरोसो करनें आखिर इक दिन मरनें
जौ संसार ओस कौ बूँदा पवन लगें सें ढुरनें
जौ लौ जी की जियन जोरिया की खाँ जे दिन मरनें
ईसुर ई संसार में आकें बुरे काम खाँ डरनें

जीवन भर प्रीत निभाने का गुर भी सिखाती है ये फाग।  प्रेम के बारे में वे कहते हैं कि  –
मधुकर होत न प्रीत पुरानी, उत्तम मन की जानी।
पथरी आग तजत है नईंयाँ रहै जुगन भर पानी।
जैसें फूल गुलाब पखुरिया, सूकैं अधिक बसानी।
‘ईसुर’ कहत प्रीत उत्तम की, निबहत भर जिंदगानी।।

बुन्देलखंड में गुदना गुदाने का रिवाज़ चिरकाल से रहा है, जो आधुनिक युवा पीढ़ी में ‘टैटू’ के नाम से प्रचलित है। ईसुरी अपनी फाग में अपनी अललौकिक ‘ रजऊ ‘ के माध्यम से कहते हैं कि, वह सांसारिक नश्वरता से जुड़े चिन्हों का गुदना गुदवाना नहीं चाहती. अंततः वह गोदनारी से अपने अंग-अंग में कृष्ण जी के विविध नाम गोद दिये जाने का अनुरोध करती है-

गोदौ गुदनन की गुदनारी सबरी देह हमारी
गालन पै गोविन्द गोद दो कर में कुंजबिहारी
बइयन भौत भरी बनमाली गरे धरौ गिरधारी
आनंदकंद लेव अँगिया में माँग में लिखौ मुरारी
करया कोद करइयाँ ईसुर गोद मुखन मनहारी

जन्म और मृत्य मनुष्य के जीवन में जन्म और मृत्यु दो ऐसे पहलू हैं, जिन्हें आज तक समझा नहीं जा सका है।  जिसे इतने सहज शब्दों में कह देना तो केवल इन्ही फागों में देखा जा सकता है –

हो गई रजऊ बिदा की बेरा, रहे दिना दस तेरा।
तुमरे लानैं करत रहत तें, दिन में दस दस फेरा।
नित नये खेल होत ते जाँ पर, लै गई बिपत बसेरा।
‘ईसुर’ अपँय पिया के संगै, हो जैंहों नौ-तेरा।।

बुंदेलखंड के काव्य में लोकजीवन के सांस्कृतिक, साहित्यिक, सामाजिक पक्ष पूरी जीवन्तता और रचनात्मकता के साथ उद्घाटित हुए हैं।  ईसुरी की विशेषता यह है कि उन्होंने   देशज व ग्रामीण लोक मूल्यों और परम्पराओं को स्वाभाविकता, प्रगाढ़ता और अपनत्व से अपनी रचनाओं में स्थापित किया है। उनका साहित्य श्रुति परंपरा में सुन-गाकर सदियों तक जीवित रखा गया। बुंदेलखंड के महान लोककवि ईसुरी की फागें गेय परंपरा के कारण लोक-स्मृति और लोक-मुख में आज भी जीवित हैं।

बुन्देलखण्ड के जन जीवन के सटीक चित्रण के साथ-साथ लोक रंग और लोक परंपराओं का सरस वर्णन लोकगीतों में ही मिलता है, जो मनुष्य से मनुष्य को और आत्मा से आत्मा को जोड़ देते हैं। लोकगीतों में इतनी काबिलियत है कि वे गहरे उतर कर मनुष्य के मानस को प्रभावित कर देते हैं, सम्मोहित कर डालते हैं और श्रोता उससे बाहर नहीं निकल पाता। बस मैं तो यही कह सकती हूँ कि बुंदेलखंड जैसो देश धरती पै नइयो।

लेखिका वरिष्ठ ब्लॉगर एवं साहित्यकार हैं।

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