शहनाई के जादूगर उस्ताद बिस्मिल्लाह खान
सुप्रसिद्ध शहनाई वादक ‘भारत रत्न’ उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ाँ को आज उनकी पुण्यतिथि पर विनम्र नमन। शहनाई वादन में उनके कला -कौशल को देखकर उन्हें ‘शहनाई का जादूगर ‘भी कहा जा सकता है। उंन्होने बनारस को अपनी कर्मभूमि बनाकर जीवन पर्यन्त माँ गंगा के तट पर शहनाई वादन किया। उनके शहनाई वादन में जादुई सम्मोहन हुआ करता था। श्रोता मंत्रमुग्ध होकर उन्हें सुनते थे।
भारत सरकार ने उन्हें देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न ‘ अलंकरण से नवाजा था। उन्हें ‘पद्म श्री’, ‘पद्म भूषण’और ‘पद्म विभूषण’ अलंकरणों से भी सम्मानित किया गया। स्वर्गीय श्री खाँ को ‘तानसेन पुरस्कार ‘ से भी सम्मानित किया गया था। भारत सरकार ने उनके सम्मान में वर्ष 2008 में डाक टिकट भी जारी किया था।
उस्ताद बिस्मिल्लाह खान भारतीय शास्त्रीय संगीत के महानतम कलाकारों में से एक थे, जिन्होंने शहनाई वादन को दुनिया भर में पहचान दिलाई। उनका जन्म 21 मार्च 1916 को बिहार के डुमरांव में हुआ था। उनका असली नाम क़मरुद्दीन था, लेकिन प्यार से उन्हें बिस्मिल्लाह कहा जाता था। संगीत उनके परिवार में रचा-बसा था; उनके दादा रसूल बख्श खान, पिता पैगम्बर बख्श खान, और चाचा अली बख्श खान, सभी शहनाई के बेहतरीन कलाकार थे।
प्रारंभिक जीवन और संगीत की शुरुआत
बिस्मिल्लाह खान का संगीत के प्रति प्रेम बचपन से ही प्रकट हो गया था। जब वे 6 वर्ष के थे, तब उनके पिता उन्हें बनारस ले गए, जहां उनके चाचा अली बख्श खान उन्हें शहनाई वादन की शिक्षा देने लगे। बनारस के विश्वनाथ मंदिर में उनकी शिक्षा का केंद्र रहा, जहां वे घंटों तक शहनाई का अभ्यास करते थे। उन्होंने शहनाई को केवल एक लोक वाद्य से बढ़ाकर भारतीय शास्त्रीय संगीत के मंच पर स्थान दिलाया।
शहनाई का जादू और ख्याति
उस्ताद बिस्मिल्लाह खान ने शहनाई को एक नए आयाम तक पहुंचाया। 1937 में, उन्हें कोलकाता के अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन में पहली बार मंच पर आने का मौका मिला, जहां उनकी शहनाई वादन ने श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया। इसके बाद, उन्होंने भारत और विदेशों में कई मंचों पर प्रदर्शन किया। उनकी शहनाई की मधुर धुनों ने लोगों के दिलों को छू लिया और उन्हें भारतीय शास्त्रीय संगीत का एक प्रमुख स्तंभ बना दिया।
स्वतंत्रता दिवस पर ऐतिहासिक प्रदर्शन
उस्ताद बिस्मिल्लाह खान का नाम भारत के स्वतंत्रता आंदोलन से भी जुड़ा है। 15 अगस्त 1947 को जब भारत स्वतंत्र हुआ, तो उन्होंने लाल किले पर अपने शहनाई वादन से इस ऐतिहासिक क्षण को अमर कर दिया। उनका यह प्रदर्शन स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के भाषण से पहले हुआ था, जो भारतीय संस्कृति और संगीत के प्रति उनके समर्पण को दर्शाता है।
पुरस्कार और सम्मान
उस्ताद बिस्मिल्लाह खान को उनके अद्वितीय योगदान के लिए कई पुरस्कार और सम्मान मिले। 1956 में उन्हें ‘पद्मश्री’, 1968 में ‘पद्मभूषण’, 1980 में ‘पद्मविभूषण’, और 2001 में भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से नवाजा गया। इन सभी पुरस्कारों ने उनके योगदान को मान्यता दी और उन्हें भारतीय संगीत के पटल पर अमर कर दिया।
व्यक्तिगत जीवन और उत्तराधिकार
बिस्मिल्लाह खान एक सरल और विनम्र व्यक्तित्व के धनी थे। संगीत उनके लिए एक साधना थी, और वे जीवन भर इसी साधना में लीन रहे। वे बनारस की गलियों और गंगा के किनारे पर शहनाई बजाना पसंद करते थे, जो उनके जीवन का हिस्सा बन गया था। उनके बाद उनके परिवार के सदस्य और शिष्य उनके द्वारा स्थापित संगीत की परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं।
निधन और विरासत
उस्ताद बिस्मिल्लाह खान का निधन 21 अगस्त 2006 को हुआ, लेकिन उनकी शहनाई की धुनें आज भी जीवित हैं। उन्होंने अपनी कला के माध्यम से भारतीय संस्कृति को वैश्विक स्तर पर पहचान दिलाई। उनकी जीवन यात्रा एक प्रेरणा है, जो हमें यह सिखाती है कि कैसे समर्पण और साधना से किसी साधारण वाद्य यंत्र को असाधारण बनाया जा सकता है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं साहित्यकार हैं।