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एक विस्मृत क्रांतिकारी की कहानी

स्वतंत्रता के जो सुनहरे दिन हम आज देख रहे हैं उसके पीछे कितने बलिदान हुये और कितने बलिदानियों की क्या गति बनीं इसका आज की पीढ़ी को होश तक नहीं। ऐसी ही बलिदानी हैं क्राँतिकारी बीनादास। जिन्होंने बंगाल के अत्याचारी गवर्नर स्टेनली को गोली मारी थी, पर निशाना चूक गया था। वे नौ साल कैद में रही। रिहाई के बाद भी विभिन्न आंदोलनों में जेल गयीं लेकिन स्वतंत्रता के बाद उनका जीवन भयानक कष्ट में बीता।

जीवन यापन के लिये भिक्षावृत्ति तक करनी पड़ी। स्वतंत्रता के बाद किसी ने उनकी खबर नहीं ली। उन्होंने अपना पूरा जीवन स्वाधीनता संघर्ष को अर्पण कर दिया था। उन्होंने सशस्त्र संघर्ष में भी भाग लिया और अहिंसक आंदोलन में भी। किन्तु स्वतंत्रता के बाद उनके सामने अपने जीवन  जीने के लिये ही नहीं रोटी तक का संकट आ गया था। पेट भरने के लिये भिक्षावृत्ति भी की और अंत में  सड़क के किनारे लावारिश अवस्था में अपने प्राण त्यागे।

ऐसी जीवट क्राँतिकारी बीणादास का जन्म 24 अगस्त 1911 को बंगाल के कृष्ण नगर में हुआ। परिवार भारतीय परंपराओं और संस्कृति से जुड़ा था। पिता माधवदास शिक्षक थे माता सरला देवी भी देश सेवा में लगीं थीं। माता सरला देवी ने 1905 में बंगाल विभाजन के विरोध मे हुये आँदोलन में हिस्सा लिया था। फिर वे कांग्रेस की भी सदस्य रहीं। इस प्रकार बीणादास पर बचपन से ही भारत की स्वतंत्रता का भाव प्रबल हो गया था। पर उन दिनों काँग्रेस में पूर्ण स्वतंत्रता पर मतभेद थे।

एक वर्ग पूर्ण स्वाधीनता के लिये संघर्ष करने के पक्ष में था और दूसरा पक्ष पहले नागरिक अधिकार और सम्मान के आँदोलन के पक्ष में  था। इससे परिवार अहिसंक आँदोलन के विचार से दूर हुआ और क्राँतिकारी आँदोलन के समीप आ गया। इस नाते बीनादास का सम्पर्क भी क्राँतिकारियों से बन गया। और वे क्राँतिकारी आंदोलन से जुड़ गयीं। उनकी बड़ी बहन कल्याणी देवी भी क्रांति कारी आंदोलन से जुड़ी थी ।

उन दिनों बंगाल में अंग्रेज गवर्नर स्टेनली जैक्सन भारतीयों पर अपनी क्रूरता के लिये जाना जाता था। विशेषकर किशोरियों के अपहरण और उस पर कार्यवाही न होने की घटनाएँ बढ़ीं। तब क्राँतिकारियों ने गवर्नर स्टैनली को मारने की योजना बनाई और यह काम बीणादास को सौंपा। वह 6 फरवरी 1932 का दिन था। गवर्नर स्टैनली जेक्सन कलकत्ता विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में आया। बीनादास अपनी डिग्री लेने मंच पर गयीं और रिवाल्वर निकालकर गोली चला दी। लेकिन निशाना चूक गया।

गवर्नर तुरन्त जमीन पर लेट गया और गवर्नर के पास खड़े सोहरावर्दी ने लपक कर बीणादास को गर्दन से पकड़ कर रिवाल्वर वाला हाथ ऊपर कर दियाश। बीणादास तब तक गोलियाँ चलातीं रहीं जब तक रिवाल्वर में गोलियाँ समाप्त न हो गई। उन्होंने कुल पाँच फायर किये। बंदी बना लीं गईं जेल में भारी प्रताड़ना झेली। पर उन्होंने किसी क्राँतिकारी का न कोई नाम बताया और न कोई सुराग न दिया। उन्हे दस वर्ष सजा हुई। किन्तु द्वितीय विश्व युद्ध की पृष्ट भूमि में जो सामूहिक रिहाई हुई उसका लाभ बीणादास को भी मिला और वे नौ वर्ष में ही रिहा हो गई। जेल का जीवन यातनाओं में ही बीता।

जब रिहा हुई तब शरीर बहुत कमजोर हो गया था पर उनका मनोबल कमजोर न हुआ था। उनकी रिहाई 1941 में हुई। जेल से लौटकर वे कांग्रेस की सदस्य बन गई और विभिन्न आदोलनों में हिस्सा लेने लगीं। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में वे फिर जेल गयीं। 1947 में विवाह किया पर पति की मृत्यु जल्दी हो गयी। वे ऋषिकेश चलीं गयीं। उनका परिवार उजड गया था। माता पिता दुनियाँ छोड़ चुके थे। बड़ी बहन ने भी जेल की यातनाओं में प्राण त्याग दिये थे। पति की मृत्यु के बाद पति के परिवार ने नहीं स्वीकारा।

उनके पास आजीविका का संकट था। इसलिये ऋषिकेश चलीं गई। वहाँ गुमनामी में रहीं। जीवन चलाने केलिये सड़क के किनारे बैठकर भिक्षा याचना करतीं और 26 दिसम्बर 1986 को सड़क के किनारे ही गुमनामी में ही प्राण त्याग दिये। उनके शव को पहले लावारिश रूप में ही रखा गया। उनकी गठरी की तलाशी में कागज मिले। पहचान हुई उन कागजातों के सत्यापन में महीनों लगे तब पहचान मिली। तब तक लावारिश के रूप में ही उनके शव का अंतिम संस्कार कर दिया गया था। जब पहचान मिली तब तक बहुत देर हो चुकी थी। और वे समाचारपत्र की एक छोटी सी खबर में सिमट गईं थीं।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं टिप्पणीकार हैं।

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