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बिहार चुनाव 2025: एनडीए के भीतर ही सबसे बड़ी पार्टी बनने की टक्कर, महागठबंधन बुरी तरह पीछे

बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में मुकाबला भले ही एनडीए और महागठबंधन के बीच माना जा रहा था, लेकिन ताज़ा रुझान बताते हैं कि असली प्रतिस्पर्धा एनडीए की सहयोगी पार्टियों—बीजेपी और जेडीयू—के बीच ही सीमित हो गई है। दोनों दल 180 से ज़्यादा सीटों पर मज़बूत बढ़त बनाए हुए हैं।

इसके विपरीत, तेजस्वी यादव के नेतृत्व वाली आरजेडी, जो 2020 में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी, इस बार 50 से भी कम सीटों पर सिमटती दिख रही है। कांग्रेस की स्थिति और भी कमजोर है, और उसके खाते में शुरुआती रुझानों में एकल अंक की संख्या ही दिखाई दे रही है। हालांकि अंतिम चरणों की गिनती में महागठबंधन को मामूली बढ़त मिल सकती है, पर तस्वीर लगभग साफ़ है।

एनडीए की स्थिति

बीजेपी

बीजेपी को पांच-दलीय गठबंधन का बड़ा लाभ मिलता दिख रहा है। चिराग पासवान की एलजेपी (आरवी) और उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक मोर्चा (आरएलएम) के लगभग 7% संयुक्त वोट शेयर ने एनडीए के पक्ष में मतांतरण को और मजबूत बनाया है।

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जेडीयू

गिनती से पहले जेडीयू के भीतर 60–65 सीटें मिलने की उम्मीद जताई जा रही थी, क्योंकि पिछले चुनाव में पार्टी मात्र 43 सीटों पर सिमट गई थी। लेकिन चिराग पासवान और उपेंद्र कुशवाहा की एनडीए में वापसी ने जेडीयू को मजबूत आधार दिया है।
नीतीश सरकार की महिला रोज़गार एवं कल्याण योजनाएँ—विशेषकर ‘मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना’ (जिसे आम बोलचाल में ‘दशहज़ारी योजना’ कहा जा रहा है)—ने महिलाओं के बीच बड़ा प्रभाव डाला, जो भारी मतदान से भी स्पष्ट हुआ।

एलजेपी (आरवी)

चिराग पासवान की पार्टी इस चुनाव की सबसे बड़ी जीतने वाली पार्टियों में उभर रही है। लगभग 22 सीटों पर बढ़त के साथ एलजेपी (आरवी) ने सिद्ध कर दिया कि उसे दी गई 29 सीटें किसी जोखिम का हिस्सा नहीं थीं, बल्कि सही रणनीति का परिणाम थीं। अगर मौजूदा रुझान नतीजों में बदलते हैं, तो चिराग राज्य की राजनीति में और प्रभावशाली भूमिका निभाते दिखेंगे।

हम (सेक्युलर) और आरएलएम

जीतन राम मांझी की हम (सेक्युलर) और कुशवाहा की आरएलएम, दोनों ने छह-छह सीटों पर चुनाव लड़ा है और दोनों को अच्छे रुझान मिल रहे हैं। भले ही ये दल तीन-तीन सीटें ही क्यों न जीतें, ये एनडीए की तरफ वोट ट्रांसफर कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते दिख रहे हैं।

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महागठबंधन की स्थिति

आरजेडी

आरजेडी की ओर से 2.5 करोड़ परिवारों को सरकारी नौकरी, 200 यूनिट मुफ्त बिजली और हर महिला को ₹2,500 प्रतिमाह देने का वादा किया गया था, लेकिन मतदाताओं ने इन वादों पर वह भरोसा नहीं जताया जिसकी उम्मीद पार्टी को थी।
तेजस्वी यादव की नौकरियों वाली राजनीति युवाओं को आकर्षित तो कर रही थी, लेकिन व्यापक सामाजिक समीकरण और नेतृत्व की तुलना में वे प्रभावी नहीं हो पाए। वे फिर से ‘एम–वाई’ (मुस्लिम-यादव) नेता की छवि से बाहर नहीं निकल पाए, जबकि नीतीश कुमार सामाजिक इंजीनियरिंग और विकास के मिश्रण से मजबूत पकड़ बनाए रहे।

कांग्रेस

2020 में 70 में से 19 सीटें जीतकर कांग्रेस महागठबंधन के लिए बोझ साबित हुई थी, और इस बार पार्टी का प्रदर्शन और खराब नज़र आ रहा है। 61 सीटों में से शुरुआती रुझानों में महज़ 5 पर बढ़त। राहुल गांधी की “वोट चोरी” थीम भी चुनावी मैदान में असर नहीं दिखा पाई।

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सीपीआई (एम-एल) लिबरेशन

2020 में 12 सीटें जीतने वाली पार्टी इस बार कमजोर होती दिख रही है। माना जा रहा है कि कुशवाहा और चिराग की एनडीए में वापसी से वामपंथी मतदाताओं में भी हलचल हुई है।

वीआईपी और आईआईपी

महा्गठबंधन के डिप्टी सीएम चेहरे और वीआईपी प्रमुख मुकेश सहनी ने खुद को नदी क्षेत्र की सभी जातियों का नेता बताने का दावा किया, लेकिन उनकी यह रणनीति उलटी पड़ती दिख रही है। वह खुद चुनाव मैदान में नहीं उतरे, जो उनके मतदाताओं को रास नहीं आया।
दूसरी ओर, इंडियन इंक्लूसिव पार्टी (आईआईपी) के आई. पी. गुप्ता सीमित संसाधनों के बावजूद महागठबंधन के लिए कुछ जातीय समर्थन जुटाने में सफल रहे हैं।