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प्रकृति और लोक जीवन का संगम : लोक पर्व भोजली

प्रो अश्विनी केशरवानी

श्रावण मास में जब प्रकृति अपने हरे परिधान में चारों ओर हरियाली बिखेरने लगती है तब कृषक अपने खेतों में बीज बोने के पश्चात् गांव के चौपाल में आल्हा के गीत गाने में मग्न हो जाते हैं। इस समय अनेक लोकपर्वो का आगमन होता है और लोग उसे खुशी खुशी मनाने में व्यस्त हो जाते हैं। इन्हीं त्योहारों में भोजली भी एक है। कृषक बालाएं प्रकृति देवी की आराधना करते हुए भोजली त्योहार मनाती हैं। जिस प्रकार भोजली एक सप्ताह के भीतर खूब बढ़ जाती है, उसी प्रकार हमारे खेतों में फसल दिन दूनी रात चैगुनी हो जाए… और वे सुरीले स्वर में गा उठती हैं:-

अहो देवी गंगा !
देवी गंगा, देवी गंगा, लहर तुरंगा,
हमर भोजली दाई के भीजे आठों अंगा।

अर्थात् हमारे प्रदेश में कभी सूखा न पड़े। वे आगे कहती हैं:-

आई गईस पूरा,
बोहाइ गइस कचरा।
हमरो भोजली दाई के,
सोन सोन के अचरा।।

गंगा माई के आगमन से उनकी भोजली देवी का आंचल स्वर्ण रूपी हो गया। अर्थात् खेत में फसल तैयार हो रही है और धान के खेतों में लहलहाते हुए पीले पीले बाली आंखों के सामने नाचने लगती है। कृषक बालाएं कल्पना करने लगती हैं:-

आई गईस पूरा, बोहाइ गइस मलगी।
हमरो भोजली दाई के सोन के कलगी।।
लिपी पोती डारेन, छोड़ डारेन कोनहा,
सबो लाली चुनरी, भोजली पहिरै सोनहा।
आई गिस पमरा बोहाई गिस डिटका,
हमरो भोजली दाई ला चंदन के छिटका।।

यहां पर धान के पके हुए गुच्छों से युक्त फसल की तुलना स्वर्ण की कलगी से की गई है। उनकी कल्पना सौष्ठव की पराकाष्ठा पर पहुंच जाती है। फसल पकने के बाद क्या होता है देखिए उसकी एक बानगी:-

कुटी डारेन धाने, छरी डारेन भूसा।
लइके लइके हवन भोजली झनि होहा गुस्सा।।

अर्थात् खेत से धान लाकर कूट डालें इससे ठरहर चांवल और भूसा अलग अलग कर डालें। चूंकि यह नन्ही नन्ही आलिकाओं के द्वारा किया गया है, अतः संभव है कुछ भूल हो गई हो? इसलिए नम्रता पूर्वक वे क्षमा मांग रही हैं। ‘‘झनि होहा गुस्सा‘‘ और उस बांस के कोठे में रखा हुआ अनाज कैसा है इसके बारे में वे कहती हैं:-

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बांसे के टोढ़ी मा धरि पारेन चांउर,
महर महर करे भोजली के राउर।।

देवी को समीप्य जन्य घनिष्ठता के कारण कुदुरमाल मेला चलने और श्रद्धा भक्ति की औपचारिकता से आगे बढ़कर संगीनी की तरह पान का बीड़ा खिलाने की बात कही जाती है। देखिए एक बानगी –

कनिहा म कमरपट्टा, हाथ उरमाले,
जोड़ा नरियर धर के भोजली दाई जाबो कुदुरमाले।
नानमुन टेपरी म बोयेन जीरा धाने,
खड़े रहा भोजली दाई खवाबो बीरा पाने।।

सवान महिना के कृष्ण पक्ष अष्टमी नवमीं को भोजली बोई जाती है और रक्षाबंधन के दूसरे दिन उसका विसर्जन किया जाता है। उसकी सेवा गीत गाई जाती है –

आठे के चाउर, नवमीं बोवाइन
दसमी के भोजली, जराइ कस होइन।
एकादशी के भोजली, दूदी पान होइन।
दुआस के भोजली मोती पानी चढ़िन।
तेरस के भोजली, लसि बिहंस जाइन।
चोदस के भोजली पूजा पाहुर पाइन।
पुन्नी के भोजली ठंडा होये जाइन।।

समस्त फसलों के राजा धान को बालिका ने बांस के कोठे में रख दिया है जिसके कारण उनकी सुंदर महक चारों ओर फैल रही है। कृषकों का जीवन धान की खेती पर ही अवलंबित होता है अतः यदि फसल अच्छी हो जाए तो वर्ष भर आनंद ही आनंद होगा अन्यथा दुख के सिवाय उनको कुछ नहीं मिलेगा। फिर धान केवल वस्तु मात्र तो नहीं है, वह तो उनके जीवन में देवी के रूप में भी है। इसीलिए तो भोजली देवी के रूप में उसका स्वागत हो रहा है:-

सोने के कलसा, गंगा जल पानी,
हमरों भोजली दाई के पैया पखारी।
सोने के दिया कपूर के बाते,
हमरो भोजली दाई के उतारी आरती।।

सोने के कलश और गंगा के जल से ही कृषक बाला उनकी पांव पखारेंगी। जब जल कलश सोने का है तो आरती उतारने का दीपक भी सोने का होना चाहिए। कल्पना और भाव की उत्कृष्टता पग पग पर छलछला रही है… देखिए उनका भाव:-

जल बिन मछरी, पवन बिन धान,
सेवा बिन भोजली के तरथते प्रान।

जब भोजली देवी की सेवा-अर्चना की है तो वरदान भी चाहिए लेकिन अपने लिए नहीं बल्कि अपने भाई और भतीजों के लिए, देखिए एक बानगी:-

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गंगा गोसाई गजब झनि करिहा,
भइया अऊ भतीजा ला अमर देके जइहा।

भारतीय संस्कृति का निचोड़ मानों यह कृषक बाला है, भाई के प्रति सहज, स्वाभाविक, त्यागमय अनुराग की प्रत्यक्ष मूर्ति! ‘‘देवी गंगा देवी गंगा‘‘ की टेक मानों वह कल्याणमयी पुकार हो जो जन-जन, ग्राम ग्राम को नित ‘‘लहर तुरंगा‘‘ से ओतप्रोत कर दे। सब ओर अच्छी वर्षा हो, फसल अच्छी हो और चारों ओर खुशहाली ही खुशहाली हो…!

भोजली का पर्व रक्षा बंधन के दूसरे दिन मनाया जाता है। इस दिन संध्या 4 बजे भोजली लिए बालिकाएं घरों से निकलकर गांव के चौपाल में अथवा राजा, जमीदार या गौंटिया के घर में इकट्ठा होती हैं। वहां उसकी पूजा अर्चना के बाद बाजे गाजे के साथ उनका जुलूस निकलता है। गांव का भ्रमण करते हुए भोजलियों का जुलूस नदी अथवा तालाब में विसर्जन के लिए ले जाया जाता है। इस अवसर पर ग्रामीण बालाएं नए नए परिधान धारण कर अपने भोजली को हाथ में अथवा सिर में लिए आती हैं। वे सभी मधुर कंठ से भोजली गीत गाते हुए आगे बढ़ती हैं। नदी अथवा तालाब के घाट को पानी से भिगोकर घोया जाता है फिर भोजली के वहां पर रखकर उनकी पूजा-अर्चना की जाती है फिर उसका जल में विसर्जन किया जाता है।

बालाएं भोजली की बाली को लिए मंदिरों में चढ़ाती हैं। इस दिन अपने समवयस्क बालाओं के कान में भोजली की बाली लगाकर ‘‘भोजली‘‘ अथवा ‘‘गींया‘‘ बदने की प्राचीन परंपरा है। जिनसे भोजली अथवा गींया बदा जाता है उसका नाम जीवन भर नहीं लिया जाता और भोजली अथवा गींया संबोधित किया जाता है। माता-पिता भी उन्हें अपने बच्चों से बढ़कर मानते हैं। उन्हें हर पर्व और त्योहार में आमंत्रित कर सम्मान देते हैं। इसके अलावा घर और गांव में अपने से बड़े को भोजली की बाली को देकर आशीर्वाद लिया जाता है और छोटों को देकर अपना स्नेह प्रकट करती हैं। भोजली, छत्तीसगढ़ में मैत्री का बहुत ही सुंदर और पारंपरिक त्योहार है। इसकी तुलना आज के फ्रेंड्स डे से की जा सकती है।
भोजली गीत को बाबु प्यारेलाल गुप्त चार भागों में वर्गीकृत करते हैं:-

    1. भोजली के जन्म और जल में विसर्जिक करने का वर्णन।
    2. गंगा देवी से भोजली के अंगों को भिगा देनी की प्रार्थना।
    3. भोजली की सेवा, प्रशंसा और वरदान के गीत।
    4. प्रबंध कथात्मक गीत।
      उनके कथनानुसार भोजली बोते समय गीतों को प्रश्नोत्तर शैली में गाया जाता है। जैसे किसके घर की टोकरी, किसके घर की मिट्टी और किसके घर की जवा भोजली है।
      कुम्हार घर के खातू माटी, तुनिया घर के टुकनी।
      बइगा घर के जवा भोजली, चढ़य मोतिम पानी।। अहो देवी गंगा

      एक अन्य भोजली गीत:-
      कंडरा घर के चुरकी, कुम्हार घर के खातू।
      राजा घर के जवा भोजली लिहय अवतारे।। अहो देवी गंगा
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डॉ. पीसीलाल यादव के अनुसार प्रत्येक जाति की बालाएं भोजली उगाती हैं। किंतु लोधी जाति में इस पर्व को विशेष रूप से मनाया जाता है। लोधी बहुल गांव में भोजली का विशिष्ट आकर्षण होता है। इस जाति में इसी अलग मान्यता और विधान है। एक संस्कार के रूप में इसका निर्वहन किया जाता है। भले ही आज इसका चलन कम होते जा रहा है, लेकिन भोजली के प्रति इसका आकर्षण बरकरार है। इस जाति में सावन महिने में जिस लड़की का भोजली उगोना होता है, यानी आने वाले महिने में उसका गवना होने वाला रहता है वह सात दिनों तक मिट्टी की ‘‘बांटी भवरें‘‘ बनाती है। सातवें दिन उसे कुआ बावली में ठंडा किया जाता है। इसी प्रकार भोजली उगाकर, उसकी सेवा करके रक्षासूत्र और प्रसाद चढ़ाकर विसर्जित किया जाता है। भोजली के विसर्जन के लिए उगोना वाली लड़की श्रृंगार कर भोजली की टोकरी सिर में और दाहिने हाथ में पर्री रखकर सबसे आगे चलती है और पीछे पीछे अन्य बालाएं भोजली गीत गाते चलती हैं। इस दृश्य को देखकर लोग सहज अनुमान लगा लेते हैं कि किस लड़की का गवना होने वाला है। यह अनोखी परंपरा प्रकृति और लोक जीवन से जुड़ी हुई है।

राघव, डागा कालोनी,
चांपा-495671 (छ.ग.)