भय से भक्ति तक की दिव्य यात्रा भैरव उपासना

हिंदू धर्म की विशाल परंपरा में हर पर्व केवल उत्सव नहीं, बल्कि जीवन का एक गूढ़ संदेश होता है। ये त्योहार लोक और पारलौकिक, दोनों संसारों के बीच सेतु बनाते हैं। इन्हीं में से एक पर्व है भैरव जयंती। यह वह रात्रि है जब भक्त भय को भक्ति में बदल देते हैं। जब मंदिरों की घंटियां देर रात तक गूंजती हैं, जब दीयों की लौ हवा में थरथराती है, और जब लोग उस देवता के चरणों में सिर झुकाते हैं जो समय का स्वामी है काल भैरव।
भैरव, शिव का वह रूप हैं जो रौद्रता में भी करुणा समेटे हुए हैं। नटराज के नृत्य में सृष्टि का ताल है, अर्धनारीश्वर में संतुलन है, लेकिन भैरव में वह चेतावनी है जो अधर्म को मिटा देती है। ‘भैरव’ शब्द संस्कृत के ‘भीरु’ से जुड़ा है, जिसका अर्थ है भय। किंतु यह भय नकारात्मक नहीं, यह सजगता का प्रतीक है। यह वही भय है जो मनुष्य को अपने कर्तव्यों की ओर लौटाता है। भैरव को ‘काल भैरव’ कहा जाता है क्योंकि वे समय के नियंत्रक हैं। जो क्षण की कीमत समझ ले, वही भैरव का भक्त बन पाता है।
शास्त्रों में भैरव के 64 रूप बताए गए हैं, जिनमें से असितांग, रुरु, चंड, क्रोध, उन्मत्त, कपाल, भीषण और संहार अष्ट भैरव प्रमुख हैं। ये काशी के आठ दिशाओं में स्थित मंदिरों की रक्षा करते हैं। भैरव का वाहन कुत्ता है, वफादारी, सतर्कता और निर्भीकता का प्रतीक। यह सरल प्रतीक बताता है कि सच्ची रक्षा केवल शक्ति से नहीं, जागरूकता से होती है।
भैरव जयंती की जड़ें पुराणों में हैं। शिव पुराण, लिंग पुराण और स्कंद पुराण में उनके जन्म की अनेक कथाएं मिलती हैं। यह पर्व कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मनाया जाता है, वह रात्रि जो अंधकार के बीच भी प्रकाश की राह दिखाती है। वर्ष 2025 में यह शुभ तिथि 12 नवंबर, बुधवार को पड़ेगी, जो भैरव की उपासना के लिए विशेष फलदायी मानी जाती है।
भैरव के जन्म की कथा ब्रह्मा और विष्णु के विवाद से जुड़ी है। ब्रह्मा ने स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए असत्य का सहारा लिया, तब शिव के क्रोध से अग्निज्वाला निकली और उससे प्रकट हुए भैरव। उन्होंने ब्रह्मा के पाँचवें सिर को काट दिया, जो अहंकार का प्रतीक था। इस कर्म से उन पर ब्रह्महत्या का पाप लगा और वे प्रायश्चित के लिए भिखारी का रूप लेकर समूचे संसार में भटके। जब वे काशी पहुँचे, तभी उनके हाथ से ब्रह्मा का सिर गिरा और वे मुक्त हुए। तभी से उन्हें काशी का कोतवाल कहा जाता है। यह कथा हमें सिखाती है कि न्यायपूर्ण क्रोध भी धर्म का अंग है, और अहंकार का अंत ही मुक्ति का आरंभ।
विष्णु पुराण में भैरव को रक्षक के रूप में दर्शाया गया है। राक्षस दारुक के अत्याचार से देवताओं की रक्षा के लिए शिव ने भैरव रूप धारण किया। उन्होंने राक्षस का संहार किया और ब्रह्मांड में संतुलन बहाल किया। दक्षिण भारत में उन्हें ‘स्वेत भैरव’ कहा जाता है, जो शांति का प्रतीक हैं, जबकि बंगाल में वे काली के साथ पूजे जाते हैं। इससे स्पष्ट है कि भैरव का स्वरूप जितना रौद्र है, उतना ही दयालु भी।
भैरव जयंती का महत्व केवल धार्मिक दृष्टि से नहीं, बल्कि आत्मिक विकास के लिए भी गहरा है। काल भैरव हमें समय के प्रति सजग बनाते हैं। हर बीतता क्षण जीवन की अनमोलता का स्मरण कराता है। इस दिन व्रत रखने से पापों का क्षय होता है और बाधाओं का निवारण। ज्योतिष में भैरव की आराधना विशेष रूप से उन लोगों के लिए फलदायी बताई गई है जो शनि या राहु की दशा से प्रभावित हैं।
आध्यात्मिक रूप से, भैरव तंत्र साधना के अधिपति हैं। उनका नाम आते ही रहस्य, शक्ति और आत्मानुशासन का भाव जागृत होता है। तंत्र शास्त्र कहता है कि जो व्यक्ति भय पर विजय पा लेता है, वह आत्मज्ञान के करीब पहुँच जाता है। भैरव पूजा का उद्देश्य डर को नष्ट करना नहीं, बल्कि उसे समझना और साधना है। यही कारण है कि कुत्तों को भोजन कराना इस दिन विशेष महत्व रखता है। यह केवल एक धार्मिक कर्म नहीं, बल्कि दया और समानता का संदेश है।
काशी में भैरव जयंती का दृश्य अद्भुत होता है। मध्य रात्रि में मंदिरों में दीप जलते हैं, भक्त घंटियां बजाते हैं, और भैरव के नाम से नगरी गूंज उठती है। अष्ट भैरव यात्रा में लोग आठों मंदिरों की परिक्रमा करते हैं। कहीं भैरव नृत्य होता है, कहीं तंत्र साधना, तो कहीं भक्ति की संगीतमय लहरें बहती हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में यह उत्सव लोक आस्था से जुड़ा है, राजस्थान में भैरव नृत्य और छत्तीसगढ़ के ग्राम्य मंदिरों में रात्रि जागरण इसका प्रमाण हैं।
आधुनिक समय में, भैरव जयंती ने नई व्याख्या पाई है। अब भक्त ऑनलाइन पूजा, ध्यान सत्र और डिजिटल आरती के माध्यम से इससे जुड़ते हैं। योग और ध्यान में रुचि रखने वाले लोग भैरव ध्यान को मानसिक शांति का साधन मानते हैं। यह पर्व अब भय का नहीं, आत्मविश्वास का प्रतीक बन रहा है।
आज के दौर में जब मनुष्य तनाव, असुरक्षा और समय के दबाव से जूझ रहा है, भैरव जयंती का संदेश पहले से अधिक प्रासंगिक है। भैरव सिखाते हैं कि भय को दबाने की नहीं, समझने की आवश्यकता है। मनोविज्ञान भी यही कहता है कि डर को स्वीकार करना आत्म-सशक्तिकरण की पहली सीढ़ी है। इसी तरह, पर्यावरणीय संकटों के युग में भैरव का विनाशक रूप हमें चेतावनी देता है कि जब सृष्टि असंतुलित होती है, तो प्रकृति का रौद्र रूप सामने आता है।
भैरव जयंती आत्मनिरीक्षण का अवसर है। यह दिन पूछता है, क्या हम समय का सम्मान कर रहे हैं? क्या हमारा जीवन अनुशासित है? क्या हम अपने भीतर के अहंकार को पहचान पाए हैं? भैरव वही शक्ति हैं जो हमें भीतर झाँकने का साहस देती है।
जब 11 नवंबर की रात्रि को अष्टमी का चंद्रमा आसमान में ठहरेगा, तब कोई दीपक जलाकर उस ऊर्जा को महसूस कीजिए जो भय को भक्ति में बदल देती है। भैरव की उपासना किसी बाहरी शक्ति का आह्वान नहीं, बल्कि अपने भीतर के साहस को जगाने का अभ्यास है। यह पर्व हमें सिखाता है कि भय से भागिए मत, उसे भक्ति में रूपांतरित कीजिए। यही भैरव का संदेश है, जो काल को जीत ले, वही अमर है।

