futuredहमारे नायक

आर्य समाज के प्रखर प्रचारक, राष्ट्रवादी विचारक और गदर आंदोलन के क्रांतिकारी भाई परमानंद

भारत की स्वतंत्रता के लिए असंख्य बलिदान हुए। इनमें कुछ बलिदानी ऐसे भी हैं, जिनकी पीढ़ियों ने राष्ट्र, संस्कृति और स्वत्व के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। भाई परमानंद ऐसे ही महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी हैं, जिनके परिवार की हर पीढ़ी ने राष्ट्र रक्षा के लिए जीवन अर्पित किया।

परिवार और प्रारंभिक जीवन

सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी भाई परमानंद का जन्म 4 नवम्बर 1870 को झेलम जिले के करियाला गाँव (अब पाकिस्तान में) में हुआ। राष्ट्र और संस्कृति की रक्षा के लिए उनके परिवार की हर पीढ़ी ने बलिदान दिया है। गुरु तेगबहादुर के साथ अपने प्राणों की आहुति देने वाले भाई मतिदास इन्हीं के पूर्वज थे। भाई सतिदास, भाई बालमुकुन्द जैसे बलिदानी भी इसी वंशवृक्ष के अंग थे।

भाई परमानंद के पिता भाई ताराचंद ने किशोर वय में 1857 की क्रांति में संदेश वाहक के रूप में भूमिका निभाई थी। क्रांति की असफलता के बाद वे आर्य समाज से जुड़े और भारत के सांस्कृतिक गौरव जागरण में लग गए।

शिक्षक, विद्वान और वैदिक धर्म प्रचारक

राष्ट्र और संस्कृति के प्रति समर्पित भाई परमानंद जी बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे। उन्होंने अपने लिए दो भूमिकाएँ निश्चित कीं — पहले, आर्य समाज और वैदिक धर्म के प्रचारक; दूसरे, राष्ट्र और सांस्कृतिक जन-जागरण के लिए युवकों के प्रेरणास्रोत।

See also  प्रदेश में चिकित्सा शिक्षा को नई उड़ान: सरकार ने 1009 नए पदों की दी स्वीकृति, युवाओं को मिलेगा रोजगार का अवसर

वे आदर्श शिक्षक, इतिहास, संस्कृति और साहित्य के मनीषी थे। उन्होंने इतिहास-लेखन में केवल राजाओं, युद्धों या घटनाओं को नहीं, बल्कि भारत की परंपराओं और सांस्कृतिक गौरव को प्रमुखता दी। वे कहते थे कि इतिहास में मानवीय भावनाओं, इच्छाओं, आकांक्षाओं, सांस्कृतिक गौरव एवं सभ्यता की गुणवत्ता को अधिक महत्व दिया जाना चाहिए।

क्रांतिकारी गतिविधियाँ और विदेश प्रवास

1902 में भाई परमानंद ने पंजाब विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त की और लाहौर के दयानन्द एंग्लो महाविद्यालय में अध्यापक बने। भारत की प्राचीन संस्कृति तथा वैदिक धर्म में उनकी रुचि देखकर महात्मा हंसराज ने उन्हें अक्टूबर 1905 में अफ्रीका भेजा।

डर्बन में उनकी भेंट महात्मा गांधी से हुई। अफ्रीका में वे सरदार अजीत सिंह और सूफी अंबाप्रसाद जैसे क्रांतिकारियों के संपर्क में आए। बाद में वे लंदन पहुँचे, जहाँ श्यामजी कृष्ण वर्मा और विनायक दामोदर सावरकर से मिले। वहीं से वे 1907 में भारत लौटे और युवकों में राष्ट्रभक्ति का भाव जगाने लगे।

1910 में उन्हें लाहौर में गिरफ्तार किया गया, परंतु साक्ष्य के अभाव में रिहा कर दिया गया। इसके बाद वे अमेरिका चले गए, जहाँ उन्होंने प्रवासी भारतीयों में वैदिक धर्म का प्रचार किया और लाला हरदयाल के नेतृत्व में गदर पार्टी से जुड़े। करतार सिंह सराबा और विष्णु गणेश पिंगले जैसे युवकों ने भाई जी से प्रेरणा लेकर देश के लिए बलिदान का संकल्प लिया।

See also  ट्रंप का बयान: “मेरे मंत्री भी चीन के मंत्रियों की तरह अनुशासित रहें” — बैठक में कहा, “जेडी वांस बहुत बोलते हैं”

गदर आंदोलन और कारावास

1913 में भारत लौटकर भाई जी ने लाहौर में क्रांतिकारी युवकों की टोली तैयार की और 1914 में ‘तवारिखे-हिन्द’ नामक ग्रंथ की रचना की। 1915 में गदर पार्टी के क्रांतिकारी अभियान के दौरान उन्हें गिरफ्तार किया गया। उन पर अमरीका और इंग्लैंड में अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध षड्यंत्र रचने और सशस्त्र क्रांति के लिए युवकों को प्रेरित करने के आरोप लगे।

उन्हें फाँसी की सजा सुनाई गई, पर पुनर्विचार याचिका के बाद सजा आजीवन कारावास में बदल दी गई। दिसंबर 1915 में उन्हें अंडमान की कालापानी जेल भेज दिया गया, जहाँ उन्हें अमानवीय यातनाएँ दी गईं।

जेल जीवन और लेखन

अंडमान की जेल में उन्होंने “मेरे अन्त समय का आश्रय” और “मेरी आपबीती” जैसी रचनाएँ कीं। जेल में बंदियों पर हो रहे अत्याचारों के विरोध में उन्होंने दो महीने की भूख हड़ताल की। गांधीजी ने 19 नवम्बर 1919 के यंग इंडिया में इन यातनाओं की निंदा करते हुए भाई परमानंद की रिहाई की माँग की।

See also  उत्तर प्रदेश में मतदाता सूची संशोधन पर राजनीतिक दलों की सक्रियता बढ़ी, हर पार्टी ने बनाई विशेष रणनीति

20 अप्रैल 1920 को वे मुक्त हुए और लाहौर लौट आए। वहाँ लाला लाजपत राय ने उन्हें राष्ट्रीय विद्यापीठ का प्राचार्य नियुक्त किया, जहाँ भगतसिंह और सुखदेव जैसे छात्र पढ़ते थे। उन्होंने इन युवाओं को सशस्त्र क्रांति के लिए प्रेरित किया।

लेखन, वैचारिक चेतना और अंतिम जीवन

भाई परमानंद ने “वीर बन्दा वैरागी” जैसी प्रसिद्ध पुस्तक लिखी। असहयोग आंदोलन के दौरान उन्होंने खिलाफत आंदोलन का विरोध किया और “हिन्दू” पत्र का प्रकाशन शुरू किया। 1930 में उन्होंने लिखा कि मुस्लिम नेताओं का उद्देश्य मातृभूमि का विभाजन करना है — और समय ने उनकी यह चेतावनी सत्य सिद्ध की।

1933 में वे हिंदू महासभा के अजमेर अधिवेशन में अध्यक्ष चुने गए। भारत के विभाजन ने उन्हें गहराई से आहत किया, जिससे वे अस्वस्थ रहने लगे और 8 दिसंबर 1947 को उनका देहांत हो गया।

उनके पुत्र डॉ. भाई महावीर (पूर्व राज्यपाल, मध्यप्रदेश) भी राष्ट्र और संस्कृति के लिए जीवनभर समर्पित रहे। उनकी स्मृति में दिल्ली में एक व्यापार अध्ययन संस्थान का नामकरण किया गया है, और 1979 में भारत सरकार ने उनके सम्मान में डाक टिकट जारी किया।