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‘भगवा आतंकवाद’ शब्द को गढ़ने वाले अब क्षमा मांगें

डॉ. प्रवीण दाताराम गुगनानी

जब भगवा आतंकवाद जैसा शब्द जबरन गढ़ दिया गया था तब मैंने मेरी “कांग्रेस मुक्त भारत की अवधारणा” पुस्तक में लिखा था कि “भगवा आतंकवाद” जैसा कोई शब्द या टर्म हो ही नहीं सकता, यह एक “अशब्द” है जिसे हमें बोलचाल, लेखन व विमर्श से निकला फेंकना होगा। इस शब्द को मप्र के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंग, केंद्र में एकाधिक विभागों के मंत्री रहे पी. चिदंबरम, तत्कालीन गृहमंत्री सुशील शिंदे और कांग्रेस ने केवल मोहरा बनकर गढ़ा था। इस शब्द के पीछे वस्तुतः तो वामपंथी छुपे हुए हैं जो प्रेत बनकर वेताल यानि कांग्रेस की पीठ पर अब भी सवार है।

वर्ष 2019 के लोकसभा चिनावों में जब भोपाल से साध्वी प्रज्ञा जी के विरुद्ध दिग्विजय सिंग चुनाव में उतरे थे तब उन्होंने समूचे चुनाव को ‘भगवा आतंकवाद’ को केंद्र में रखकर चुनाव लड़ा था। इस चुनाव के मध्य समाचार पत्रों में मेरा एक आलेख भी प्रकाशित हुआ था, जिसका शीर्षक था – ‘भगवा आतंकवाद शब्द की अंत्येष्टि का सटीक समय’। इस चुनाव में जानता ने दिग्विजय सिंह को ‘भगवा आतंकवाद’ जैसा शब्द गढ़ने का यथोचित दंड दे दिया था। इस चुनाव में कम्युनिस्ट नेता सीताराम येचुरी भी भोपाल के सुंदर तालाब के किनारे पर बैठकर हिंदुत्व को मछली समझकर जाल डालकर बैठे हुए दिखे थे। उन्होंने भोपाल के ताल में एक नया शाब्दिक विष उँडेला था – “हिंदू तो सदा से हिंसक रहा है”।

अरे, दिग्विजय जी, येचुरी जी, सहित भगवा आतंकवाद शब्द के सभी कथित नेताओं सुनो; हिंदू सदा से सहिष्णु रहा है, इतना सहिष्णु कि कई अवसरों पर इसका भूगोल और इतिहास ही बदल गया और कई अवसरों पर इस “हिंदू सहिष्णुता” ने हिंदूत्व के कुछ अध्यायों का समापन ही करवा दिया। यदि ऐसा नहीं होता तो, बाबर हजार मील दूर से भारत में आकर हमारे देश के आराध्य श्रीराम की जन्मभूमि पर बने मंदिर को नेस्तनाबूद कर बाबरी मस्जिद का निर्माण नहीं कर पाता। और, न ही दुर्दांत मुस्लिम शासक तैमुरलंग दिल्ली से हरिद्वार के समूचे मार्ग में हिंदू नरमुंड बिछा पाता, हिंदू हिंसक होता तो बख्तियार खिलजी भारतीय ज्ञान के प्रतीक, नालंदा को यूं आग के हवाले न कर पाता, न ही औरंगजेब काशी विश्वनाथ का मंदिर तोड़ पाता और न ही लाखों भारतीय मातृशक्ति को जौहर करने को मजबूर होना पड़ता।

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यदि हिंदू हिंसक होता तो गुरु गोविन्द सिंह के दोनों पुत्रों को जीवित दीवार में चुनकर मार डालने जैसी दुर्दांत घटना न हुई होती और न ही, मोहम्मद गजनवी श्रीकृष्ण जन्म स्थान को मथुरा में ध्वस्त कर कब्जा पाता। मालेगांव मामले में आए हुए निर्णय का मर्म यही है कि “यदि हिंदू सहिष्णुता और उस पर हुए अत्याचारों का इतिहास और पढ़ना हो तो वे संत मतिदास को पढ़ लें, गुरु तेगबहादुर को पढ़ लें, जलियांवाला बाग़ पढ़ लें, भगतसिंह के बम फेंकने की मानवीय शैली पढ़ लें, भारत का धर्म आधारित विभाजन और उसके बाद यहां की भूमि पर मुस्लिमों की बसाहट व पाकिस्तान से हिन्दूओं का मारकाट भरा निर्वासन पढ़ लें, वे सोहरावरदी पढ़ लें, मोपला काण्ड पढ़ लें।

और यदि पुराना इतिहास न पढ़ना हो ‘भगवा आतंकवाद’ की माला जपने वाले नेताओं को हाल ही का ‘रामसेतु विध्वंस’ ‘भगवान राम को काल्पनिक कहने का शपथपत्र’ और ‘ऐन दीवाली की रात्रि पूज्य शंकराचार्य जी की गिरफ्तारी का तालिबानी आदेश’ पढ़ लेना चाहिए। इन घटनाओं सहित लाखों अन्य इतिहास सिद्ध घटनाओं ने यह ब्रह्मसत्य स्थापित किया है कि हिंदू हिंसक नहीं सहिष्णु रहा है, क्षमाशील रहा है, सर्वसमावेश को, सर्वस्पर्श को आतुर व उत्सुक समाज रहा है!

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मालेगांव के संदर्भ में कांग्रेसी नेताओं द्वारा यह भी कहा गया था कि “आतंकवादी घटनाओं में मुस्लिमों से अधिक हिंदू सम्मिलित रहते हैं”। 2008 के बाद, विशेषकर 26/11 के मुंबई हमले से ठीक पहले, मालेगांव केस को आधार बनाकर कम्युनिस्ट रिमोटेड कांग्रेस्टिस्टों ने एक ऐसा नैरेटिव खड़ा किया था कि भारत में आतंकवाद को हिंदू संगठन बढ़ा रहें हैं। लेकिन यह एक वैचारिक आगजनी वाला झूठ था – राजनीतिक लाभ के लिए रचा गया नैरेटिव, जिसकी कीमत निर्दोष हिंदुत्व के मासूम संतों, सैनिकों व नागरिकों ने चुकाई है।

लेफ्ट-लिबरल मीडिया, कुछ स्वघोषित बुद्धिजीवी और वामपंथी इतिहासकारों ने इस नैरेटिव को खुलकर समर्थन दिया। प्रज्ञा ठाकुर, कर्नल श्रीकांत पुरोहित, स्वामी असीमानंद जैसे लोग, जो राष्ट्रवादी विचारधारा से जुड़े थे, उन्हें ‘आतंकवादी’ की तरह पेश किया गया, मीडिया ट्रायल चला, और तथाकथित सेकुलर ताकतों ने उनकी छवि को नष्ट-भ्रष्ट करने के प्रयास किए।

साध्वी प्रज्ञा जी ठाकुर को गंभीर स्थिति के कैंसर की स्थिति में भी कारावास में रखा गया, उन्हें अमानवीय यातनाएं दी गईं। क्या इस पीड़ा के लिए कोई जिम्मेदार ठहराया जाएगा? क्या झूठे मुक़दमों के लिए जांच एजेंसियों की जवाबदेही तय होगी?

अब जब सच्चाई सामने आ चुकी है, तो वे चुप हैं – कोई आत्मचिंतन नहीं, कोई क्षमा नहीं। यह उनकी नैतिकता की हार है और इस देश के विवेक के लिए एक चेतावनी भी। आज की आवश्यकता है कि वे हिंदू समाज से उनके द्वारा गढ़े गए छद्म शब्दों के लिए क्षमा मांगे और उनका उत्तरदायित्व हमारा समाज तय करे। कांग्रेस नेतृत्व को अपने इस झूठे नरैटिव गढ़ने के दोष हेतु देश से क्षमा माँगनी चाहिए।

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मालेगांव 2008, बम विस्फोट केस में कोर्ट द्वारा सभी आरोपियों को बाइज्ज़त बरी कर देना एक बहुत बड़ा न्यायिक पड़ाव है – न केवल उन निर्दोषों के लिए, जिन्होंने वर्षों तक अपमान, पीड़ा और मानसिक प्रताड़ना को भोगा, बल्कि यह भारत की लोकतांत्रिक चेतना के लिए भी एक महत्वपूर्ण मोड़ है। न्यायालय ने स्पष्ट कहा कि अभियोजन पक्ष आरोपों को साबित करने में असफल रहा।

अब जब न्यायपालिका ने अपना निर्णय सुना दिया है, तब समय आ गया है कि इस केस के जरिए रची गई उस सुनियोजित ‘राजनीतिक कथा’ का गहराई से विश्लेषण किया जाए – जिसे ‘हिंदू आतंकवाद’ कहा गया था। इस अभियान का मकसद स्पष्ट था — ‘जिहादी आतंकवाद’ से ध्यान हटाना और राष्ट्रवादी शक्तियों को कठघरे में खड़ा करना। उस समय पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद, विशेषकर मुंबई हमलों, संसद हमले, और कंधार कांड जैसे मामलों ने कांग्रेस सरकार की अंतरराष्ट्रीय छवि को प्रभावित किया था। ऐसे में उन्होंने एक नया नैरेटिव गढ़ा, जिसमें कुछ राष्ट्रवादी चेहरों को आतंकवादी घोषित करके यह दिखाया जाए कि भारत में आतंकवाद केवल एक समुदाय तक सीमित नहीं है।

सोलह वर्षों तक झूठे मुक़दमों का सामना करने के बाद जब आरोपी बरी हो गए, तब न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि मामले में कोई प्रत्यक्ष सबूत नहीं था। अब प्रश्न यह है कि क्या यह सब केवल भूल थी, या किसी बड़ी राजनीतिक साजिश का हिस्सा?

डॉ. प्रवीण दाताराम गुगनानी,

नियमित स्तंभकार

guni.pra@gmail.com