गृह शांति एवं व्यावसायिक सफ़लता के लिए सृष्टि के रचयिता भगवान विश्वकर्मा की पूजा उपासना
भगवान विश्वकर्मा को सृष्टि के प्रथम वास्तुकार और शिल्पकार के रूप में जाना जाता है। अंग्रेजों के समय से उनकी पूजा 17 सितंबर को की जाती है, जिसे विश्वकर्मा पूजा कहा जाता है। परन्तु अज्ञानतावश उनका जन्म दिवस 17 सितम्बर को मान लिया जाता है। शास्त्रों के अनुसार भगवान विश्वकर्मा का जन्म माघ सुदी त्रयोदशी हुआ है। जिसका उल्लेख शास्त्रों में है। स्कंदपुराण में भगवान विश्वकर्मा के जन्म का उल्लेख इस प्रकार से मिलता है:
“माघे शुक्ले त्रयोदश्यां दिवापुष्पे पुनर्वसौ।
अष्टा र्विशति में जातो विश्वकर्मा भवानी च॥”
अर्थ:
माघ मास की शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी को, दिवापुष्प नामक तारे के पुनर्वसु नक्षत्र में, भगवान विश्वकर्मा का जन्म हुआ था। वे अठ्ठाईस (28) प्रकार के शिल्पकला के ज्ञाता हैं और उनके साथ भवानी भी जुड़ी हुई हैं।
“माघे शुक्लत्रयोदश्यां विश्वकर्मा प्रजापतिः।
समग्रदेवसंयुक्तः सृष्ट्वा स्रष्टारमव्ययम्।।”
अर्थ:
माघ मास की शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी को भगवान विश्वकर्मा का जन्म हुआ। वे प्रजापति (सृष्टि के निर्माता) हैं और समस्त देवताओं के साथ मिलकर उन्होंने सृष्टि का निर्माण किया। वे स्रष्टा और अविनाशी (अव्यय) हैं।
उपरोक्त श्लोक संदर्भ स्कंधपुराण के तथा 17 सितम्बर का दिन उनके योगदान और शिल्प कौशल को सम्मानित करने के लिए विश्वकर्मा पूजा के रुप में मनाया जाता है। मुख्य रूप से यह पर्व उद्योगों, निर्माण स्थलों, मशीनरी और शिल्प से जुड़े लोगों द्वारा धूमधाम से मनाया जाता है।
भगवान विश्वकर्मा का इतिहास
भगवान विश्वकर्मा का उल्लेख कई हिंदू ग्रंथों, पुराणों और वेदों में मिलता है। उन्हें विश्व का पहला इंजीनियर और देवताओं का शिल्पी कहा जाता है। वेदों में उन्हें ‘ऋषि’ के रूप में भी माना गया है, जिन्होंने अद्वितीय वास्तुकला और शिल्पकला को विकसित किया। ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने ही स्वर्गलोक, लंका, द्वारका और हस्तिनापुर जैसे नगरों का निर्माण किया था।
ऋग्वेद में भगवान विश्वकर्मा को ‘देवताओं के वास्तुकार’ और ‘अन्तरिक्ष व पृथ्वी के निर्माता’ के रूप में वर्णित किया गया है। महाभारत में, उन्हें अद्भुत विमान ‘पुष्पक विमान’ के निर्माता के रूप में वर्णित किया गया है, जिसे बाद में रावण ने हड़प लिया था।
ऋग्वेद में विश्वकर्मा सूक्त
ऋग्वेद के 10वें मंडल में भगवान विश्वकर्मा का उल्लेख “विश्वकर्मा सूक्त” के रूप में मिलता है। इसमें उन्हें सृष्टि के निर्माता, रचयिता और सर्वव्यापक के रूप में वर्णित किया गया है। विश्वकर्मा सूक्त सृष्टि की उत्पत्ति, विस्तार और विकास का वर्णन करता है। विश्वकर्मा को अद्वितीय शिल्पकार और ब्रह्मांड के निर्माता के रूप में पूजा जाता है। यहाँ कुछ श्लोक उनके अर्थ सहित दिए जा रहे हैं:
“विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतोबाहुरुत विश्वतस्पात्।
सं बाहुभ्यां धामति सं पतत्रैर्द्यावाभूमी जनयन्देव एकः।।”
(ऋग्वेद 10.81.3)
अर्थ:
भगवान विश्वकर्मा सर्वदृष्टा हैं। उनका नेत्र, मुख, भुजाएं और पैर सर्वत्र व्याप्त हैं। वे अपनी बाहुओं और पंखों के माध्यम से समस्त जगत का संचालन करते हैं। उन्होंने अकेले ही आकाश और पृथ्वी की रचना की। इस श्लोक में भगवान विश्वकर्मा की सर्वव्यापकता और उनकी सृष्टि रचना की शक्ति का वर्णन है।
“यः त इदं विश्वं भुवनमाविवेश यत्र विश्वानि भुवनानि भान्ति।
विश्वकर्मा सविता धाम गृभ्णन् वेदाध्यश्रीः सविता मयोभूः।।”
(ऋग्वेद 10.82.2)
अर्थ:
जो इस समस्त ब्रह्मांड में प्रविष्ट हुआ है और जिसके माध्यम से यह संपूर्ण सृष्टि प्रकाशित होती है, वह भगवान विश्वकर्मा ही हैं। वह सविता (सूर्य) के रूप में इस ब्रह्मांड के केंद्र में स्थित हैं, और सृष्टि के नियमों और आधारों को अपने हाथों में धारण करते हैं। इस श्लोक में विश्वकर्मा को सविता के रूप में संबोधित किया गया है, जो सृष्टि के स्रोत और प्रकाश हैं।
“यो नः पिता जनिता यो विदाता धामानि वेद भुवनानि विश्वा।
यो देवाना नामधा एक एव तं संप्रश्नं भुवना यन्त्यन्या।।”
(ऋग्वेद 10.82.3)
अर्थ:
जो हमारे पिता, निर्माता और संपूर्ण ज्ञान के धनी हैं, वही भगवान विश्वकर्मा समस्त धामों (स्थानों) और ब्रह्मांडों को जानते हैं। वही एकमात्र देव हैं जो सभी देवताओं के नामों और कार्यों को धारण करते हैं। समस्त प्राणी और संसार उन्हीं की ओर उन्मुख होते हैं। इस श्लोक में भगवान विश्वकर्मा को सृष्टि के ज्ञाता और पालनहार के रूप में संबोधित किया गया है।
“कदर्धा विश्वकर्मणः प्रथमं धाम यदस्मिन्स्तभितं यत्त्समुद्रे।
हिरण्ययेन सविता रथेन देवानां लोकं प्रवि एष याति।।”
(ऋग्वेद 10.82.5)
अर्थ:
भगवान विश्वकर्मा का वह प्रथम स्थान कहाँ है, जहाँ उन्होंने इस सृष्टि की नींव रखी? वह स्थान, जहाँ समुद्र स्थित है। सविता (सूर्य) अपने स्वर्णिम रथ पर सवार होकर देवताओं के लोक में प्रवेश करते हैं। यह श्लोक सृष्टि की उत्पत्ति और भगवान विश्वकर्मा की भूमिका का विवरण करता है, जिसमें उनके प्रथम धाम और देवताओं के स्थान की बात की गई है।
“यो विश्वस्य प्रतिमानं बभूव एकः कविः यश्चरति भ्रुवाणः।
प्रत्यङ्जा अनिधत्पदं वेदगोपां स प्रजापतिर्विश्वस्य सृष्टेः।।”
(ऋग्वेद 10.82.6)
अर्थ:
जो इस समस्त विश्व का आकार और रूप धारण करते हैं, वही भगवान विश्वकर्मा हैं। वे एकमात्र ज्ञानवान और कवि हैं, जो अपने संकल्प से संसार का निर्माण करते हैं। वे ही उस स्थान को जानते हैं जो समस्त ज्ञान का आधार है। इस श्लोक में भगवान विश्वकर्मा को समस्त ज्ञान और सृष्टि के संरक्षक के रूप में चित्रित किया गया है।
अथर्ववेद में भगवान विश्वकर्मा का उल्लेख:
अथर्ववेद में भगवान विश्वकर्मा का संदर्भ “सृष्टिकर्ता” और “विश्व के नियंता” के रूप में आता है। इसका उद्देश्य यह बताना है कि विश्वकर्मा ही वह शक्ति हैं जिन्होंने ब्रह्मांड का निर्माण किया, इसे संतुलित रखा और समस्त प्राणियों के लिए उचित स्थान निर्मित किया।
“यो विश्वकर्मा बिभर्ति ध्रुवाणि, विश्वान्यत्र चरथं वि चष्टे।
देवश्च यो धरुणं कर्म सीदन्, स नो मिमीत विश्वतमं धियं धाः।।”
(अथर्ववेद 10.2.29)
अर्थ:
जो विश्वकर्मा ध्रुव (स्थिर) और चर (गतिमान) सभी वस्तुओं का धारणकर्ता है, वह देवता सब कुछ देखता और नियंत्रित करता है। जो देवता धरती और आकाश के कार्यों को धारण करता है, वही हमें सर्वोत्तम बुद्धि और शक्ति प्रदान करे। यहाँ भगवान विश्वकर्मा को सृष्टि के स्थिर और गतिशील दोनों तत्वों के नियंत्रक के रूप में वर्णित किया गया है।
“विश्वकर्मणि धीमहि देवस्य, स नः प्रजां यशसं शर्धो अस्मे।
कविर्देवः स मिमीत न ऋतं, यथा धरुणं भवतु व्रतं नः।।”
(अथर्ववेद 11.5.19)
अर्थ:
हम भगवान विश्वकर्मा, जो देवताओं के महान शिल्पकार हैं, का ध्यान करते हैं। वे हमारी संतान को यशस्वी और शक्तिशाली बनाएं। वह देवताओं का कवि (ज्ञानी) है और सत्य का धारणकर्ता है। उसका नियम हमारे लिए स्थायी और विश्वसनीय हो। इस श्लोक में विश्वकर्मा को देवताओं का ज्ञानी और सत्य को धारण करने वाला कहा गया है, और उनसे संतान, यश और शक्ति की प्रार्थना की गई है।
“यः पृथिवीमोत द्यामुत द्रापिं, विश्वकर्मा बिभर्ति विश्वतस्पात्।
स नो देवः सविता शर्म यच्छतु, स नः प्रजां रक्षतु विश्ववारः।।”
(अथर्ववेद 10.7.70)
अर्थ:
जो विश्वकर्मा पृथ्वी, आकाश और अन्य संपूर्ण संसार का धारणकर्ता है, वही देवता सविता हमें सुरक्षा प्रदान करे और हमारी संतानों की रक्षा करे। इस श्लोक में विश्वकर्मा को समस्त संसार के धारणकर्ता और रक्षक के रूप में पूज्य माना गया है, जो सभी प्राणियों की रक्षा करते हैं।
पुराणों में उल्लेखित भगवान विश्वकर्मा के कार्य
भगवान विश्वकर्मा को न केवल स्थापत्य कला का जनक माना जाता है, बल्कि उन्होंने विभिन्न औजारों, हथियारों और रथों का भी निर्माण किया था। शास्त्रों के अनुसार, उन्होंने इंद्र का वज्र, भगवान विष्णु का सुदर्शन चक्र, भगवान शिव का त्रिशूल और भगवान सूर्य का रथ तैयार किया था। उनकी रचनात्मकता और वास्तु कला के अनुपम उदाहरण आज भी विभिन्न धर्मग्रंथों और पुराणों में वर्णित हैं। उनके द्वारा निर्मित स्थान और उपकरण हमेशा अजेय और अद्वितीय माने जाते हैं।
विश्वकर्मा पूजा का महत्व और प्रभाव
विश्वकर्मा पूजा का महत्व सकल समाज के लिए है, क्योंकि भगवान विश्वकर्मा वास्तु, तकनीकी शिल्प कौशल देवता हैं। हमारा दैनिक जीवन तकनीकि एवं शिल्प के बिना शुन्य है, हम इसके बगैर जीवन को सुचारु रुप से चलाने की कल्पना भी नहीं कर सकते। इसलिए सृष्टि के निर्माता भगवान विश्वकर्मा किसी एक समाज के आराध्य देव नहीं हैं, वे सकल समाज के अराध्य हैं और उनकी पूजा सकल समाज को करनी चाहिए। प्राचीन काल में देवता सकल समाज के होते थे, वर्तमान में देवताओं को भी लोगों ने जातियों में बांट और बांध लिया। हम हिन्दू समाज में विघटन और संघर्ष का देख रहे हैं, उसका मुख्य कारण यही है।
इसलिए देवताओं को जातियों में न बांधे, आपकी जाति की श्रेष्ठता सभी देवों से सिद्ध होती है। जो भी मनुष्य घर में रहता है, उसे वास्तु के देव विश्वकर्मा जी की पूजा अवश्य करनी चाहिए तथा सुंदर, सरल एवं समृद्धियुक्त जीवन के प्रति उन्हें उपासना द्वारा कृतज्ञता अर्पित करना चाहिए। जैसे अन्य देवों की पूजा घर में होती है, वैसे ही यदि शिल्प के देवता विश्वकर्मा की पूजा उपासना करेंगे तो गृह शांति होगी, कलह नहीं होगा और मंगलकारी सुख समृद्धि प्राप्त होगी।
वैसे इसे कारखानों का उत्सव बना लिया गया है, इस दिन उद्योगों, कारखानों, निर्माण स्थलों और कार्यशालाओं में भगवान विश्वकर्मा की मूर्ति की पूजा की जाती है और विश्वकर्मारुपी उपकरणों और मशीनों का आशीर्वाद लिया जाता है। भगवान विश्वकर्मा की कृपा से श्रमिकों को अपने कार्य में निपुणता, समृद्धि और सुरक्षा की प्राप्ति होती है।
औद्योगिक क्षेत्रों में यह दिन विशेष रूप से हर्षोल्लास से मनाया जाता है, जहां मशीनों की सफाई और उनका पूजन किया जाता है। कर्मचारियों और मालिकों के बीच समर्पण और कार्य के प्रति निष्ठा का माहौल बनता है। यह पूजा तकनीकी दक्षता, नवाचार और उद्योगों के विकास का प्रतीक भी मानी जाती है।
भगवान विश्वकर्मा की पूजा के हमारे पास वर्ष में दो अवसर आते हैं, 17 सितम्बर एवं माघ सुदी त्रयोदशी, 17 सितम्बर को कारखानों एवं संस्थानों में पूजा करनी चाहिए एवं माघ सुदी त्रयोदशी को मंगल एवं स्मृद्धि की कामना करते हुए घर में विधिपूर्वक उपासना करनी चाहिए, जिससे वास्तु दोष समाप्त होंगे और जीवन सरल एवं सफ़ल हो जाएगा।
लेखक लोक संस्कृति के जानकार एवं न्युज एक्सप्रेस के प्रधान सम्पादक हैं।