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बस्तर की सांस्कृतिक विरासत : मांझीनगढ़ में भव्य भादोम जातरा कल

बस्तर की समृद्ध संस्कृति और परंपराओं की अनूठी झलक एक बार फिर मांझीनगढ़ की पहाड़ियों में देखने को मिलेगी, जहां शनिवार को ऐतिहासिक भादोम जातरा का आयोजन किया जाएगा। यह आयोजन खल्लारी ग्राम के गढ़मावली याया देवी मंदिर परिसर में होगा, जहां हजारों श्रद्धालु देवी-देवताओं और पुरखों के साथ परंपरागत ढंग से एकत्रित होंगे।

यह जातरा लिंगो मुदिया और सोनकुंवर बाबा की अगुवाई में आयोजित होता है, जिसमें मांझीनगढ़ क्षेत्र के आसपास के गांवों के लोग अपने-अपने पेन शक्तियों (स्थानीय देव-पुरखों) के साथ शामिल होते हैं। वर्षों से चली आ रही यह परंपरा आज भी बस्तरवासियों के धार्मिक जीवन का अभिन्न हिस्सा है।

देवी-देवताओं का होता है परीक्षण

इस जातरा की विशेषता यह है कि इसमें केवल श्रद्धा या पूजा ही नहीं, बल्कि देवी-देवताओं का परीक्षण भी होता है। मान्यता है कि जातरा स्थल पर एक प्रतीकात्मक अदालत लगती है, जहां पेन-देवताओं को उनके कार्यों के आधार पर परखा जाता है। यदि कोई देवी-देवता दोषी पाए जाते हैं, तो उन्हें चेतावनी दी जाती है या विशेष परिस्थितियों में सजा भी सुनाई जाती है।

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जो देवी-देवता गांव या परिवार के नहीं होते, उन्हें विशेष विधि से खाई में ‘रवागनी’ (त्याग) कर दिया जाता है। इसके बाद सभी पेन शक्तियों को सेवा और अर्जी के रूप में फल-फूल, जीव बलि आदि अर्पित की जाती है। जातरा की रात श्रद्धालु पहाड़ पर ही विश्राम करते हैं और सूर्योदय से पहले अपने गांवों की ओर प्रस्थान करते हैं।

बस्तर की विरासत: परंपरा और समर्पण

यह जातरा केवल धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि बस्तर की सांस्कृतिक विरासत का प्रतीक है। यहां की परंपराओं में ग्राम देवता को सर्वोच्च मान्यता प्राप्त है, और कोई भी सामाजिक या कृषि कार्य करने से पहले देवी से अनुमति ली जाती है। भादोम जातरा के बाद ही गांव में बालिंग पंडुम (पोला) पर्व के अंतर्गत नए फसल की पूजा होती है और फिर नवखाई उत्सव मनाया जाता है।

इस परंपरा को सभी समुदायों के लोग मिलजुल कर निभाते हैं, जिससे यह त्योहार एकता, विश्वास और सामुदायिक सौहार्द का जीवंत उदाहरण बन जाता है।

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सावधानियां और अनुशासन

भादोम जातरा में सम्मिलित होने के लिए कुछ पारंपरिक नियम और सावधानियों का पालन अनिवार्य होता है, जैसे पवित्रता, संयम और जातरा स्थल पर मर्यादा बनाए रखना। यह आयोजन न केवल धार्मिक भावनाओं से जुड़ा है, बल्कि सामाजिक जिम्मेदारी और सांस्कृतिक शिक्षा का माध्यम भी है।

बस्तर की मिट्टी में रची-बसी ये परंपराएं आज भी पीढ़ी दर पीढ़ी सहेजी जा रही हैं और यही इसे दुनिया भर से अलग और अद्भुत बनाती हैं।

-कृष्णदत्त उपाध्याय,केशकाल