वैदिक काल से आधुनिक युग तक संस्कृति, परंपरा और पर्यावरण का साथी बाँस

बाँस का नाम सुनते ही मन में बंसरी बजने लगती है, इसका मधुर स्वर कानों में रस घोलने लता है। बाँस एक ऐसा पौधा है, जिसका संबंध मानव के साथ प्राचीन काल से लेकर अद्यतन सतत बना हुआ है। मानव सभ्यता की आरंभिक यात्रा में प्रकृति की वस्तुओं का महत्व हमेशा सर्वोपरि रहा है। इन वस्तुओं में बाँस एक ऐसा पौधा है मनुष्य के संपूर्ण जीवनचक्र का हिस्सा है। बाँस का उल्लेख वेदों से लेकर आज तक हमारी संस्कृति, लोक परंपराओं और पर्यावरणीय चिंतन में मिलता है। यह केवल एक पेड़ या घास नहीं, बल्कि भारतीय लोकजीवन और धार्मिक मान्यताओं आधार रुप से समाहित है।
बांस को अक्सर “हरा सोना” कहा जाता है, केवल एक पौधा नहीं बल्कि संपूर्ण पारिस्थितिकी का आधार है। यह घास परिवार से संबंधित होते हुए भी अपनी मजबूती और ऊँचाई में वृक्षों की तरह कार्य करता है। भारत में लगभग 148 प्रजातियाँ पाई जाती हैं, जो 15.69 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र में फैली हैं। प्राचीन भारतीय समाज में बांस को वंश, वेणु, वैणव और कीचक जैसे नामों से जाना जाता था। संस्कृत साहित्य, वेदों, रामायण, महाभारत और पुराणों में इसका उल्लेख औषधीय, धार्मिक और सांस्कृतिक रूपों में मिलता है।
आज विश्व बांस दिवस 18 सितम्बर के अवसर पर यह समझना जरूरी है कि बांस न केवल हमारी परंपराओं में रचा-बसा है, बल्कि यह जैवविविधता और पारिस्थितिकी संतुलन के लिए भी उतना ही आवश्यक है।
भारत के पूर्वोत्तर राज्यों, असम के मानस राष्ट्रीय उद्यान, और केरल के वायनाड क्षेत्र में बांस के घने जंगल हाथियों, हिरणों, बंदरों और हॉर्नबिल जैसे पक्षियों के लिए जीवनदायी आश्रय स्थल हैं। बांस के झुरमुट मिट्टी की नमी बनाए रखते हैं, जिससे कीट-पतंगों, सरीसृपों और उभयचरों के लिए उपयुक्त वातावरण बनता है। एक अध्ययन से पता चला कि बांस के जंगल प्रति हेक्टेयर लगभग 20% अधिक जैवविविधता को समर्थन करते हैं। उदाहरण के लिए, असम के दीमा हसाओ जिले में बांस के फैलाव ने मानव हस्तक्षेप और जलवायु बदलाव के बावजूद वन्यजीव संरक्षण में बड़ी भूमिका निभाई है।
लेकिन इसके नकारात्मक पहलू भी हैं। युशानिया मालिंग जैसी प्रजातियाँ अत्यधिक आक्रामक हैं, जो पश्चिमी घाट में लगभग 20.8% सदाबहार जंगलों को प्रभावित करती हैं। इनकी तीव्र वृद्धि स्थानीय पौधों की विविधता को घटा सकती है। फिर भी, बांस ग्रामीण समुदायों में बायो-फेंस की तरह खेतों को वन्यजीवों से बचाने का भी कार्य करता है।
ऋग्वेद और अथर्ववेद में बाँस को स्थायित्व, वृद्धि और जीवन की निरंतरता का प्रतीक माना गया है। कुछ मंत्रों में बाँस की डंडियों का उल्लेख यज्ञ सामग्री के रूप में हुआ है। प्राचीन वैदिक अनुष्ठानों में बाँस की छड़ी या डंडे का प्रयोग पवित्रता और संरक्षण के भाव से किया जाता था। बाँस की सीधी, खोखली और दृढ़ प्रकृति को ऋषियों ने साधक की तपस्या और जीवन की सरलता से जोड़ा। वैदिक संस्कृति में बाँस केवल उपयोगी वस्तु नहीं, बल्कि आचार और विचार का प्रतीक भी रहा है।
लोक परंपराओं में बाँस की उपस्थिति और भी व्यापक है। जन्म से लेकर मृत्यु तक के संस्कारों में बाँस किसी न किसी रूप में शामिल होता है। घर बनाने से लेकर विवाह मंडप तक बाँस का उपयोग होता आया है। ग्रामीण समाज में बाँस की टोकरी, चटाई, बांसुरी, डलिया और घरेलू उपयोग की असंख्य वस्तुएँ जीवन का हिस्सा रही हैं। छत्तीसगढ़, झारखंड, असम, नागालैंड और पूर्वोत्तर भारत के आदिवासी समाजों में बाँस को जीवन का अभिन्न अंग माना जाता है। यह न केवल आजीविका का साधन है बल्कि उनकी लोककथाओं, गीतों और नृत्यों का भी हिस्सा है।
धार्मिक दृष्टि से भी बाँस का विशेष महत्व है। कई क्षेत्रों में विवाह के समय मंडप बाँस की खंभियों से बनाया जाता है, क्योंकि इसे शुभता और स्थायित्व का प्रतीक माना जाता है। पितृ पक्ष और श्राद्ध कर्म में भी बाँस की पत्तियों और डंडियों का प्रयोग होता है। लोककथाओं में बाँस को आत्मनिर्भरता, धैर्य और सामूहिकता का प्रतीक माना गया है। बाँस की जड़ें एक-दूसरे से जुड़ी रहती हैं, जो समाज की एकता का रूपक बन जाती हैं।
पर्यावरणीय दृष्टि से बाँस की भूमिका आज और भी महत्वपूर्ण हो गई है। यह धरती का सबसे तेज़ी से बढ़ने वाला पौधा है जो बहुत कम समय में परिपक्व हो जाता है। बाँस कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित करने और ऑक्सीजन उत्सर्जन में अत्यधिक सक्षम है। यही कारण है कि इसे जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए एक प्रभावी साधन माना जाता है। मिट्टी संरक्षण, जल धारण क्षमता और जैव विविधता को बनाए रखने में भी बाँस की महत्वपूर्ण भूमिका है। बाँस के जंगल अनेक पक्षियों, कीटों और छोटे जीवों का आश्रय स्थल हैं।
आज आधुनिक युग में बाँस की उपयोगिता और भी विस्तृत हो गई है। बायोप्लास्टिक, फर्नीचर, घरों के निर्माण, कागज, वस्त्र और सजावटी वस्तुओं तक में बाँस का प्रयोग किया जा रहा है। यह स्टील की तरह मजबूत और लकड़ी का विकल्प बनकर उभर रहा है। भारत ही नहीं, पूरी दुनिया में बाँस को “ग्रीन गोल्ड” कहा जाता है। यह सतत विकास और हरित अर्थव्यवस्था की दिशा में एक महत्वपूर्ण साधन है।
इस प्रकार, बाँस की कहानी केवल एक वनस्पति की नहीं, बल्कि मानव सभ्यता और संस्कृति की कहानी है। वेदों से आरंभ होकर लोक परंपराओं और आधुनिक जीवन तक बाँस हमारे जीवन का साथी बना हुआ है। यह धार्मिक आस्था का आधार है, लोक संस्कृति की धड़कन है, जैव विविधता का संरक्षक है और पर्यावरणीय संतुलन का प्रहरी है। बाँस हमें यह संदेश देता है कि प्रकृति और संस्कृति जब एक-दूसरे के पूरक बनते हैं, तभी जीवन संतुलित और सुंदर बनता है।