राष्ट्रगीत ‘वन्दे मातरम्’ इन्ही की रचना
27 जून 1838 सुप्रसिद्ध साहित्यकार और पत्रकार बंकिम चंद्र चटोपाध्याय का जन्म
देश की स्वतंत्रता के लिये हुये असंख्य बलिदानों की श्रृंखला के पीछे असंख्य प्रेरणादायक महाविभूति भी रहे हैं। जिनके आव्हान से समाज जाग्रत हुआ और संघर्ष के लिये सामने आया। ऐसे ही महान विभूति हैं बंकिम चंद्र चटोपाध्याय। जिनका आव्हान मानों स्वाधीनता संघर्ष का एक महामंत्र बन गया। उनके द्वारा सृजित वंदेमातरम का उद्घोष सशस्त्र क्रान्तिकारियो ने भी किया और अहिसंक आँदोलनकारियों ने भी किया।
राष्ट्र और सांस्कृतिक वोध जागरण केलिए अपना संपूर्ण जीवन समर्पित करने वाले सुप्रसिद्ध पत्रकार, साहित्यकार और गीतकार बंकिम चंद्र चटोपाध्याय का जन्म 27 जून 1838 को बंगाल के उत्तरी चौबीस परगना जिला अंतर्गत कंठालपाड़ा नैहाटी में हुआ था। (कहीं कहीं यह तिथि 26 जून भी लिखी है) उनके पिता यादवचन्द्र चटोपाध्याय के परिवार की संपन्न और सुसंस्कृत थी।
माता दुर्गा देवी भी परंपराओं के प्रति पूर्णतयः समर्पित थीं। राष्ट्र स्वाभिमान और सांस्कृतिक वोध उनके संस्कारों में था। उनकी शिक्षा हुगली कॉलेज और प्रेसीडेंसी कॉलेज में हुई। देश में जब 1857 की क्रान्ति आरंभ हुई तब वे महाविद्यालयीन छात्र थे। बी ए कर रहे थे। अंग्रेजों ने क्रान्ति के दमन के लिये जो सामूहिक नरसंहार किये उनके समाचार प्रतिदिन आ रहे थे।
उन्होंने क्रान्ति के कारणों को भी समझा और असफलता को भी। इस पूरी अवधि में वे मानसिक रूप से उद्वेलित तो हुये पर अपनी पढ़ाई से विचलित न हुये। 1857 में ही प्रेसीडेंसी कालेज से बी. ए. की उपाधि लेने वाले वे पहले भारतीय विद्यार्थी थे। इस कारण तत्कालीन अंग्रेज सरकार ने उनका स्वागत किया और शिक्षा पूरी होने के साथ उनकी नियुक्ति डिप्टी मजिस्ट्रेट पद पर हो गई। कुछ समय वे बंगाल सरकार में सचिव पद पर भी रहे। लेकिन उन्होंने नोकरी छोड़ दी।
1869 में वकालत पास की और इसके साथ ही उन्होंने वैचारिक रूप से समाज जागरण का अभियान आरंभ किया। वे अतीत में हुये संघर्ष से जितने प्रभावित थे उतने ही कुछ लोगों द्वारा परिस्थतियों के समक्ष झुक कर अपना स्वत्व और स्वाभिमान खो देने की मानसिकता से भी आहत थे। इसलिये उन्होंने स्वत्व जागरण और संगठन पर जोर देने के संकल्प के साथ अपनी रचना यात्रा आरंभ की।
उनकी पहली प्रकाशित रचना राजमोहन्स वाइफ थी। यह अंग्रेजी में थी। इसमें परिस्थतियों की विवशता को बहुत सावधानी से प्रस्तुत किया। बंगला में उनकी पहली रचना 1865 में ‘दुर्गेशनंदिनी’ प्रकाशित हुई। यह एक आध्यात्मिक रचना है पर इसके माध्यम से समाज की आंतरिक शक्ति से ठीक उसी प्रकार परिचित कराया गया जैसा मुगल काल में बाबा तुलसी दास ने रामचरित मानस के द्वारा जन जागरण करने का प्रयास किया था।
इसी श्रृंखला में 1866 में उपन्यास कपालकुंडला प्रकाशित हुआ और 1872 में मासिक पत्रिका बंगदर्शन का भी प्रकाशन किया। इस पत्रिका के माध्यम से वे एक कुशल पत्रकार के रूप में सामने आये। इस पत्रिका में बंगाल के अतीत, और गौरव की चर्चा के माध्यम से समाज को जाग्रत करने की सामग्री होती थी। अपनी इस पत्रिका में उन्होंने अपने विषवृक्ष उपन्यास को भी धारावाहिक रूप से प्रकाशित किया।
जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट है कि इस उपन्यास में समाज के उस स्वभाव और अदूरदर्शिता का प्रतीकात्मक वर्णन था जो भारत राष्ट्र के पतन का कारण बना। इसी प्रकार अपनी कृष्णकांतेर रचना में उन्होंने ने अंग्रेजी शासकों पर तीखे व्यंग्य किये। बंगाल के कांतल गाँव में 7 नवम्बर 1876 को गीत “वंदे मातरम” की रचना की। जो 1882 में कालजयी उपन्यास ‘आनंद मठ’ पूर्ण हुआ। वंदेमातरम इस उपन्यास का प्रमुख अंश है। मूलरूप से ‘वंदे मातरम’ के प्रारंभिक दो पद संस्कृत में थे, जबकि शेष गीत बांग्ला भाषा में था। गीत वंदे मातरम् का अंग्रेजी अनुवाद सबसे पहले अरविंद घोष ने किया।
यूँ तो उनकी प्रत्येक रचना भारतीय समाज को जाग्रत करने वाली हैं पर फिर भी “आनंदमठ” उपन्यास और इसके अंतर्गत गीत वंदेमातरम संघर्ष और बलिदान का महामंत्र बना। इस उपन्यास की भूमिका बंगाल में हुये सन्यासी विद्रोह से पड़ गई थी। बंगाल में संतों और सन्यासियों ने 1873 में समाज जागरण का कार्य किया था ताकि अंग्रेजी कुचक्र से राष्ट्र संस्कृति और परंपराओ की रक्षा हो सके।
संतो के इस अभियान को संयासी विद्रोह का नाम दिया गया जिसे अंग्रेजों ने बहुत क्रूरता से दमन किया था। आनंदमठ में संन्यासियों द्वारा की गई क्रान्ति के प्रयास का वर्णन था। जब इस उपन्यास के रूप में यह विवरण सामने आया तो मानो पूरे समाज राष्ट्रवोध जाग्रत हो गया और समाज अंग्रेजों के विरुद्ध एक जुट सामने आने लगा। तब बंगाल के सामाजिक और सार्वजनिक आयोजन में वंदेमातरम का घोष मानों एक परंपरा ही बन गई थी।
बंकिम बाबू का अंतिम उपन्यास 1886 में सीताराम आया। इसमें सल्तनकाल के वातावरण और उसके प्रतिरोध को दर्शाया गया था। उनके अन्य उपन्यासों में मृणालिनी, इंदिरा, राधारानी, कृष्णकांतेर, देवी चौधरानी और मोचीराम जीवनचरित शामिल है। उन्होंने धर्म, सामाजिक और समसामायिक विषयों पर आधारित कई निबंध और कविताएँ भी लिखीं।
यह उनके रचना संसार से समाज में उत्पन्न जाग्रति का ही परिणाम था कि उस काल-खंड में हुये प्रत्येक आन्दोलन के प्रतिभागी उनसे प्रेरित रहे। उनके चिंतन और जीवन में भारत राष्ट्र की संस्कृति और परंपरा का आव्हान था। वे स्वतंत्रता के आदर्शों के प्रति गहराई से प्रेरित थे।
पराधीनता के काल में राष्ट्रभाव जाग्रत करने की दिशा में बंकिमबाबू का योगदान सबसे बड़ा है। उन्होंने एक आदर्श सत्ता की स्थापना के लिये आवश्यक तत्वों को समाज के सामने लाने के लिये निबंध ‘कृष्णचरित्र’ प्रकाशित किया। जब उनका गीत ‘वन्देमातरम्’ पहली बार 1876 में ‘बंगदर्शन’ समाचार पत्र में प्रकाशित हुआ, तो उससे मानों पूरे देश में वैचारिक आवेग उत्पन्न हुआ। उन्होने सनातन परंपराओ और राष्ट्र के लिये अनिवार्य आदर्शों के बीच एक अद्भुत पूरकता और सामंजस्य स्थापित किया।
वही हिन्दुओं के बीच फैली विभ्रम की स्थिति के बारे में मानों एक प्रकार से शोक व्यक्त किया था। उन्होने इस बात पर गहरा क्षोभ व्यक्त किया और झकझोरने का प्रयास किया। उनके इन शब्दों में कि “हिन्दु समाज “कुमारसंभव को छोड़कर स्वाइनबर्न पढ़ता है”, गीता को छोड़ कर मिल को पढ़ता है। उड़ीसा की पत्थर कला को छोड़ देते हैं और साहिबों की चीनी गुड़िया को देखते हैं।” कितनी व्यथा और स्वत्व का आव्हान है इसे इन्ही शब्दों में छुपे संदेश से सहज समझा जा सकता है।
उन्होेंने अपनी रचना ‘धर्मशास्त्र’ में देशभक्ति को सभी धर्मों से ऊपर रखा। ‘लोक रहस्य’ में उदारवादियों के भीख मांगने पर व्यंग्य किया और देश को अपने पैरों पर खड़ा होने पर जोर दिया। निबंध ‘अमर दुर्गोत्सव’ में उन्होंने विधवा विवाह, महिलाओं की स्वतंत्रता के बारे में बात की और अंधी अंग्रेजी नकल का जोरदार विरोध किया। उन्होंने अपनी मातृभूमि को अपनी मां के रूप में प्रस्तुत किया।
इस प्रकार उनका पूरा जीवन भारत राष्ट्र और उसकी संस्कृति के प्रति समाज को जाग्रत करने के लिये समर्पित रहा। लेख लिखे, कविताएँ लिखीं, उपन्यास लिखे और संगोष्ठियों में भाग लिया। स्वत्व, स्वाभिमान और राष्ट्र संस्कृति जागरण के इस महानायक ने 8 अप्रैल 1894 को संसार से विदा हो गये। पर संसार से यह विदाई केवल शरीर की थी। वे और उनका व्यक्तित्व आज भी प्रत्येक भारतीय के मन में विराजे हैं।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं टिप्पणीकार हैं।
बहुत अच्छा पोस्ट है पर कुछ तथ्य मेल नहीं खाते
यह सही है कि 1857 में उन्होंने बीए पास किया।
प्रेसीडेंसी कालेज से शिक्षासमाप्ति के तुरंत बाद डिप्टी मजिस्ट्रेट पद पर नियुक्ति हो गई।
कुछ काल तक बंगाल सरकार के सचिव पद पर भी रहे। रायबहादुर और सी. आई. ई. की उपाधियाँ पाईं।
1869 में क़ानून की डिग्री हासिल की।
इसके बाद उन्होने फिर सरकारी नौकरी कर ली और १८९१ में सेवानिवृत्त हुए।
8अप्रैल 1894 को उनका निधन हुआ।
मेरी और मेरे जैसे लोगों की समझ है कि बंकिम चंद्र उस पीढ़ी के थे जिसमें शासन की नौकरी करना और राष्ट्रवादी विचारधारा तथा साहित्य में सक्रिय योगदान करना संभव था. दोनों धाराएं एक दूसरे के विपरीत नहीं थी.