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भारतीय स्वातंत्र्य समर के अमर क्रांतिकारी बाघा जतिन

भारतीय स्वाधीनता संग्राम में कुछ ऐसी प्रतिभाओं ने अपने जीवन का बलिदान दिया, जो यदि अंग्रेजों की आधीनता स्वीकार कर लेते तो उन्हें उच्चतम प्रसिद्धि मिल जाती। ऐसे ही बलिदानी थे बाघा जतिन।

उनका नाम जतिनन्द्र नाथ मुखर्जी था, लेकिन वे बाघा जतिन के नाम से भी जाने जाते हैं। उनका जन्म 7 दिसम्बर 1879 को जैसोर क्षेत्र में हुआ था। यह क्षेत्र अब बंगलादेश में है। जब पाँच वर्ष के हुए, तभी पिता का देहावसान हो गया था। माँ ने बड़ी कठिनाई से लालन-पालन किया। वे शरीर से बहुत हृष्ट-पुष्ट थे। किशोर वय में वे जंगल घूमने गये तो बाघ सामने आ गया। वे बाघ से भिड़ गये। बाघ भाग गया। तब से उनका नाम बाघा जतिन पड़ गया।

वे जितने शरीर से सुदृढ़ थे उतने ही पढ़ने में भी बहुत कुशाग्र थे। उन्होंने 18 वर्ष की आयु में मैट्रिक परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की थी। फिर स्टेनोग्राफी सीखी और कलकत्ता विश्वविद्यालय में स्टेनोग्राफर की नौकरी कर ली। अपनी सेवा काल में भी पढ़ाई जारी रखी। लेकिन वे अधिक नौकरी न कर सके।

अपनी सेवा काल में जब भी अंग्रेजों द्वारा भारतीयों के साथ अपमानजनक व्यवहार देखते तो खून खौल उठता, उसका प्रतिकार भी करते। लेकिन परिवार की जरूरत को ध्यान में रखकर समझौता करके नौकरी करते रहे। तभी 1905 आया। अंग्रेज सरकार ने बंगाल विभाजन की घोषणा कर दी। इसका विरोध आरंभ हुआ। यतींद्र नाथ मुखर्जी ने बंगाल विभाजन का विरोध किया। उन्होंने नौकरी छोड़कर आन्दोलन की राह पकड़ी।

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उन्होने युवकों की टोली बनाई और अंग्रेज अधिकारियों की घेराबंदी शुरू की। इस आंदोलन में उनकी आगे की पढ़ाई छूट गई। आंदोलन इतना तीव्र हुआ कि अंग्रेज सरकार को बंगाल विभाजन का निर्णय वापस लेना पड़ा। लेकिन बाघा जतिन ने राह न बदली। उन्हें दोबारा नौकरी पर आने का प्रस्ताव भी आया, पर सरकारी नौकरी में न गये और क्रांतिकारी आंदोलन से सीधे जुड़ गये।

वे 1910 में ‘हावड़ा षड्यंत्र केस’ में गिरफ्तार हुए। एक साल का कारावास मिला। जेल से मुक्त होने पर ‘अनुशीलन समिति’ और ‘युगान्तर’ से जुड़ गये। वे दोनों प्रकार से कार्य करते थे — एक तो क्रांति की गतिविधियों में सीधे भागीदारी और दूसरे आलेख लिखकर जन जागरण करना।

क्रांतिकारियों के पास आंदोलन के लिए धन जुटाने के लिये दुलरिया नामक स्थान पर अपने ही सहयोगी अमृत सरकार घायल हो गए थे। समस्या यह थी कि धन लेकर भागा जाये या साथी के प्राणों की रक्षा। स्वयं अमृत सरकार ने जतिनन्द्र नाथ से कहा कि धन लेकर चले जाओ। पर जतिनन्द्र तैयार न हुए तो अमृत सरकार ने आदेश दिया — “मेरा सिर काट कर ले जाओ ताकि अंग्रेज पहचान न सकें।” पर जतिन ने अपने साथी को वहाँ न छोड़ा और साथ लेकर ही चले। क्रांतिकारियों के ऐसे जज्बे से मिली है स्वतंत्रता।

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कलकत्ता में उन दिनों एक राडा कम्पनी बंदूक-कारतूस का व्यापार करती थी। क्रांतिकारियों ने इस कम्पनी की एक गाड़ी पर धावा बोला, जिसमें 52 माउजर पिस्तौलें और 50 हजार गोलियाँ प्राप्त हुईं। कुछ विश्वासघातियों ने सरकार को यह अवगत करा दिया था कि ‘बलिया घाट’ तथा ‘गार्डन रीच’ घटनाओं में यतींद्र नाथ का हाथ था। पुलिस पीछे लगी। कई मुखबिर छोड़ दिये गये।

अंततः सितंबर 1915 को पुलिस जतिनन्द्र नाथ के अड्डा ‘काली पोक्ष’ स्थित गुप्त निवास पर पहुंच गयी। यतींद्र अपने साथियों के साथ वह जगह छोड़ने ही वाले थे कि पुलिस ने घेर लिया। यतींद्र नाथ ने गोली चला दी। मुखबिर राज महन्ती वहीं ढेर हो गया।

यतीश नामक एक क्रांतिकारी बीमार था। जतिनन्द्र उसे अकेला छोड़कर जाने को तैयार नहीं थे। चित्तप्रिय नामक क्रांतिकारी उनके साथ था। दोनों तरफ़ से गोलियाँ चलीं। चित्तप्रिय भी बलिदान हो गये। वीरेन्द्र तथा मनोरंजन नामक अन्य क्रांतिकारी मोर्चा संभाले हुए थे।

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इसी बीच जतिनन्द्र नाथ का शरीर गोलियों से छलनी हो गया था। वे जमीन पर गिर पड़े। मनोरंजन ने उन्हें उठा कर भागने का प्रयत्न किया, किंतु अंग्रेज अफसर किल्वी ने घेर लिया। सामान्यतः ऐसी स्थिति में क्रांतिकारी स्वयं को गोली मार लिया करते थे, पर मनोरंजन के कंधे पर जतिन थे, इसलिये पकड़े गये।

उनका बलिदान अगले दिन 10 सितंबर को हुआ। यद्यपि अंग्रेज रिकार्ड में घायल होने के कारण उनकी मौत हुई, पर कुछ लोगों का मानना है कि पुलिस प्रताड़ना से उनका बलिदान हुआ। जो भी सत्य हो, 10 सितंबर 1915 को इस महान क्रांतिकारी का बलिदान हो गया।