अखंड भारत का प्रहरी बाजीराव पेशवा एवं अखंड भारत दिवस

चौदह अगस्त 1947, अखंड भारत दिवस और अट्ठारह अगस्त वर्ष 1700, पेशवा बाजीराव प्रथम का जन्मदिवस ये दोनों प्रसंग एक-दूजे से गहनता से जुड़े हुए हैं। अखंड भारत दिवस को हम विभाजन विभीषिका दिवस के नाम से भी जानते हैं।
अखंड भारत अर्थात वह प्राचीन भारत जिसमें वर्तमान अफगानिस्तान, बांग्लादेश, भूटान, भारत, मालदीव, म्यांमार, नेपाल, पाकिस्तान, श्रीलंका और तिब्बत सम्मिलित थे। पेशवा बाजीराव बल्लाल इस अखंड भारत हेतु दृढ़प्रतिज्ञ थे। इस प्रतिज्ञा की पूर्ति हेतु ही उन्होंने अपना जीवन पुष्प भारत माँ के चरणों में अर्पित कर दिया था। इसके भी पूर्व मध्यावर्त, आर्यावर्त भी एक भौगोलिक इकाई रही जिसे भारतवर्ष भी कहा जाता था। वस्तुतः हमारा मूल भारत तो वही है जिसमें ईरान, इराक, थाईलैंड, इंडोनेशिया, बर्मा आदि भी सम्मिलित थे।
पेशवा बाजीराव वस्तुतः इस अखंड भारत की अवधारणा के ही सशक्त वाहक थे, जिसके शास्त्रों में कहा गया है —
उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्।
वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः।।
अर्थात समुद्र के उत्तर में और हिमालय के दक्षिण में जो देश है उसे भारत कहते हैं तथा उसकी संतानों (नागरिकों) को भारती कहते हैं। यह सूक्त कोई नया या काल्पनिक नहीं, अपितु अष्टादश (अट्ठारह) पुराण में से एक विष्णु पुराण में लिखित है। विष्णु पुराण ऋषि पाराशर द्वारा रचा गया था।
चौदह अगस्त की तिथि को विभाजन विभीषिका दिवस के रूप में मनाते हैं। इसी दिन हमारा राष्ट्र अपने सातवें विभाजन के दंश को झेल रहा था। इसके पूर्व वर्ष, हम केवल सौ वर्षों के इतिहास को देखें, तो हमें दिखता है कि भारतवर्ष के सात विभाजन तो 1857 से लेकर 1947 तक के एक छोटे से कालखंड में ही कर दिए गए थे। ये विभाजन कुछ और नहीं, बल्कि इंग्लैंड के उस सांस्कृतिक भय की देन थे, जिसमें उन्हें दिखता था कि यदि भारत इस रूप में ही अखंड रहा, तो उनका देश व अन्य पश्चिमी ईसाई देश कभी भी ईसाइयत को एक महान धर्म व संस्कृति के रूप में स्थापित नहीं कर पाएंगे। वस्तुतः विस्तारवाद, अन्य देशों की संपत्ति को लूटना और उन देशों को निर्धन बनाकर धर्मांतरित कर लेना ही इन देशों का और उनके रिलीजन का लक्ष्य रहा है।
अखंड भारत को हम इज़राइल और यहूदियों के संदर्भ में भी स्मरण कर सकते हैं। यहूदियों का दुनिया में कोई अपना स्थान नहीं था, और 2500 वर्षों से जब भी एक यहूदी दूसरे यहूदी से, कहीं भी, किसी भी स्थिति में मिलता था, तो वे परस्पर चर्चा में अगले वर्ष यरुशलम में मिलने की इच्छा व्यक्त करते थे। ढाई हज़ार वर्षों तक यहूदी इसी प्रकार अपने यरुशलम में मिलने की इच्छा को पीढ़ी दर पीढ़ी व्यक्त करते रहे, अपने संकल्प को जीते रहे और अंततः एक दिन उन्होंने अपना यरुशलम प्राप्त कर ही लिया। इसी प्रकार हम भारतीयों को भी अखंड भारत के स्वप्न को अपने अंतःकरण में, मानस में, लेखन में, भाषण में, रणनीति में, स्वप्न में जीवित रखना चाहिए। हमें अंततोगत्वा अखंड भारत मिलेगा ही।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अखंड भारत की अवधारणा कोई विस्तारवाद की या भौगोलिक अवधारणा नहीं है। यह अवधारणा वस्तुतः एक भू-सांस्कृतिक अवधारणा है। हम भारतीयों को समय-समय पर इस भू-सांस्कृतिक ‘अखंड भारत’ की अवधारणा को अपनी कल्पना-योजना में विकसित करते रहना चाहिए।
पेशवा बाजीराव मात्र बीस वर्ष की आयु में पेशवाई गद्दी पर आसीन हुए। केवल बीस वर्ष ही शासन किया और बयालीस विकराल, विकट और विषम युद्धों में अविजित, अपराजेय रहे। बाजीराव पेशवा कर्तव्य के इतने दृढ़ कि, भोजन करते हुए भी यह कहते हुए सहजता से भोजन की थाली छोड़कर उठ जाते —
“अगर मुझे पहुँचने में देर हो गई तो इतिहास लिखेगा कि एक राजपूत ने मदद मांगी और ब्राह्मण भोजन करता रहा।”
इतिहास में यह भी अमिट है कि बाजीराव पेशवा ने दिल्ली पर आक्रमण करने हेतु दस दिन की दूरी पांच सौ अश्वों के बेड़े के साथ दो दिन में पूर्ण की थी। सामरिक या युद्ध साहित्य/इतिहास में यह अब तक का सबसे तेज जमीनी आक्रमण माना जाता है। इस आक्रमण से किशोरवय बाजीराव ने दिल्ली में, आज के तालकटोरा स्टेडियम के स्थान पर, डेरा डालकर मुग़लों की घेराबंदी कर दी थी। “तेज गति से आक्रमण करो और दुश्मन को संभलने का मौका मत दो” — यह वीर बाजीराव की युद्ध नीति थी। इस युद्धनीति के बल पर ही उन्होंने मराठा शासन को दिल्ली तक विस्तारित कर दिया था।
बाजीराव पेशवा विश्व के उन तीन ऐतिहासिक सेनापतियों में गिने जाते हैं, जिन्होंने कभी पराजय का मुँह नहीं देखा। नेपोलियन बोनापार्ट व जूलियस सीज़र दो अन्य अविजित योद्धा हैं। बाजीराव की युद्धनीति इतनी प्रखर, प्रचंड व अभेद्य रहती थी कि अमेरिका भी इसे आदर्श युद्ध नीति मानता है। अमेरिका सहित कई देशों में सैनिकों को आज भी पेशवा बाजीराव द्वारा पालखेड में उपयोग की गई युद्ध नीति सिखाई जाती है।
विश्वप्रसिद्ध पालखेड युद्ध में पेशवा ने निजाम के दाँत खट्टे कर दिए थे और उसे ‘मुगी शिवगांव’ संधि के लिए घुटने के बल होना पड़ा था। इस युद्ध के बाद बाजीराव ने निजाम पर कई शर्तें लाद दी थीं। इसके पश्चात वीर बाजीराव ने 1731 में निजाम को पुनः पराजित किया और इसके बाद तो जैसे समूचा उत्तर भारत पेशवा के अधीन हो गया था।
द्वितीय विश्व युद्ध में ब्रिटेन की ओर से जर्मन को पराजित करने वाले प्रसिद्ध व कुशल सेनापति विसकाउंट मोंटगोमरी पेशवा बाजीराव के प्रशंसक व युद्धनीति में बाजीराव के अनुगामी थे। मोंटगोमरी ने अपनी पुस्तक ‘A Concise History of Warfare’ में लिखा है —
“The Palkhed Campaign of 1728 in which Baji Rao I out-generalled Nizam-ul-Mulk, is a masterpiece of strategic mobility.”
छत्रपति शिवाजी की कुल परंपरा का यह दिग्गज योद्धा अटक से कटक तक और कन्याकुमारी से हिमालय तक हिन्दवी स्वराज की स्थापना में सफल रहा था। बाजीराव ने भारत का लगभग अस्सी प्रतिशत भूभाग हिन्दवी साम्राज्य का हिस्सा बना दिया था।
28 अप्रैल सन् 1740 को उस पराक्रमी “अपराजेय” योद्धा ने मध्यप्रदेश के रावेरखेड़ी में, नर्मदा तट पर अस्वस्थता के कारण प्राणोत्सर्ग किया था।
बाजीराव पेशवा का वर्ष 1731 का मालवा अभियान इतिहास में स्वर्णाक्षर से दर्ज है। 1737 के बुंदेलखंड अभियान में राजा छत्रसाल की रक्षा की, जिसके कारण छत्रसाल ने उन्हें झाँसी, कालपी, सागर जैसे क्षेत्र दे दिए थे। बाजीराव का 1737 का दिल्ली अभियान तो उनकी वीरता, युद्ध नीति, संगठन क्षमता व संकल्पशीलता का अद्भुत उदाहरण है। इस युद्ध में बाजीराव सुदूर महाराष्ट्र से चलकर, मार्ग भर में विजयी सैन्य अभियान चलाते हुए, मुगल स्वामित्व वाली दिल्ली में प्रवेश कर गए थे।
इसी प्रकार 1738 के भोपाल युद्ध में भी वीर बाजीराव ने मुगलों और निजाम की संयुक्त सेना को धूल चटाई थी। इस युद्ध के बाद मुगलों को मराठों की अधीनता स्वीकार करनी पड़ी थी।
बाजीराव पेशवा ने अखंड भारत, हिन्दवी स्वराज हेतु केवल सैन्य अभियान ही नहीं चलाए, बल्कि अनेकों राज्यों से मित्रता, संधि, परस्पर निर्भरता के नए आयाम भी स्थापित किए, जिससे मराठों व राजपूतों में अद्भुत समन्वय स्थापित हो गया था।
डॉ. प्रवीण दाताराम गुगनानी
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