शिव तत्व की लोक जीवन में व्यापकता
महाशिवरात्रि हिंदू धर्म में एक प्रमुख पर्व है, जिसे शिवभक्त बड़ी श्रद्धा और उत्साह के साथ मनाते हैं। यह पर्व फाल्गुन मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को मनाया जाता है और इसे शिव एवं शक्ति के मिलन, ध्यान, साधना और आत्मज्ञान का पर्व माना जाता है। लोक में जो दार्शनिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक अवधारणा है उसे ही शिवतत्व कहा जाता है।
शिव तत्व भारतीय लोकमानस में गहराई से समाया हुआ है। शिव केवल एक देवता ही नहीं, बल्कि एक संपूर्ण तत्व हैं, जो सृष्टि, संहार, तप, योग, और लोकाचार का प्रतिनिधित्व करते हैं। लोक परंपरा में शिव तत्व का अर्थ केवल धर्म और भक्ति तक सीमित नहीं है, बल्कि वह जीवन की गहराइयों से जुड़ा हुआ एक व्यापक सिद्धांत है।
लोक में शिव किसी मंदिर या मूर्ति तक सीमित नहीं हैं, बल्कि वे प्रकृति के कण-कण में समाए हुए हैं। पहाड़ों, नदियों, वृक्षों और वनस्पतियों में शिव की उपस्थिति मानी जाती है। गाँवों में शिव की आराधना मिट्टी या पत्थर की अनगढ़ मूर्तियों, स्वयंभू लिंगों या किसी विशेष वृक्ष के रूप में होती है। आदिवासी और ग्राम्य समाज में शिव एक सहज, सरल, और अनगढ़ ईश्वर के रूप में पूजे जाते हैं।
शिव तत्व को पंचतत्वों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश) के साथ जोड़ा जाता है। लोकमान्यता में शिव सृष्टि के मूल तत्वों के अधिष्ठाता माने जाते हैं। वे स्वयं में संहारक भी हैं और सृजनकर्ता भी। लोककथाओं और मान्यताओं में शिव का संबंध पहाड़ों (पृथ्वी), गंगाजल (जल), तीसरी आँख (अग्नि), डमरू की ध्वनि (आकाश) और श्वास-प्रश्वास (वायु) से जोड़ा जाता है। इस तरह, शिव तत्व सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्त रहता है।
शिव का स्वरूप अत्यंत सहज, सरल और सर्वसुलभ है। वे किसी बाहरी आडंबर या भव्यता के प्रतीक नहीं हैं, बल्कि एक ऐसे ईश्वर हैं जो सीधे जनमानस से जुड़े हुए हैं। लोकमानस में शिव का स्वरूप भस्मधारी और रुद्राक्ष धारण करने वाले एक तपस्वी का है, जो सांसारिक मोह-माया से परे रहते हैं। शिव का साथ नंदी, भूत-प्रेत और गण देते हैं, जो यह दर्शाता है कि शिव किसी को भी स्वीकार करने वाले देवता हैं। उनके पास किसी जाति, वर्ण या स्थिति का भेदभाव नहीं है। शिव की वेशभूषा और गले में सर्प इस बात का प्रतीक हैं कि वे भय और मृत्यु पर नियंत्रण रखने वाले हैं। लोकपरंपरा में सर्प और शिव का गहरा संबंध है, और यह भी माना जाता है कि नाग देवता शिव के ही रूप हैं।
लोक परंपरा में शिव का तांडव केवल संहार नहीं, बल्कि सृष्टि के चक्र का प्रतीक है। शिव का नृत्य यह दर्शाता है कि जीवन एक निरंतर गति में चलने वाली प्रक्रिया है। भारतीय लोककला और नृत्य शैलियों में भी शिव तत्व की झलक देखने को मिलती है, जहाँ तांडव को ऊर्जा और जीवन शक्ति का प्रतीक माना जाता है।
ग्रामीण और लोक संस्कृति में शिव की पूजा किसी विशेष विधि-विधान की मोहताज नहीं होती। शिव को प्रसन्न करने के लिए बस बेलपत्र, गंगाजल और धतूरा चढ़ाने की परंपरा है, जो शिव की सादगी और सहजता को दर्शाती है। लोक में शिवरात्रि और सोमवार के व्रत शिव की भक्ति का एक प्रमुख अंग हैं, जहाँ विशेषकर महिलाएँ और ग्राम्य समाज के लोग श्रद्धा से शिव की आराधना करते हैं।
शिव केवल एक पूज्य देवता नहीं, बल्कि एक लोकनायक भी हैं। वे त्याग और साधना के प्रतीक हैं, इसलिए लोकमानस में संन्यासियों और तपस्वियों को शिव का रूप माना जाता है। वे करुणा और क्षमा के प्रतीक हैं, इसलिए लोककथाओं में शिव को सहज भाव से भक्तों को वरदान देने वाला देवता बताया गया है। वे प्रकृति से सीधे जुड़े हुए हैं, इसलिए पर्यावरण और प्रकृति संरक्षण में भी लोकमान्यता में शिव का महत्वपूर्ण स्थान है।
भारत की सन्यासी परम्परा से जुड़े हुए शैव अखाड़ों के विषय में तो सभी जानते हैं, ये अखाड़े भगवान शिव की आराधना से संबंधित हैं। इन अखाड़ों का संबंध आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित दशनामी संन्यास परंपरा से है। ये अखाड़े कुंभ मेले के दौरान शाही स्नान में शामिल होते हैं और शैव साधुओं के संगठन और प्रशासन का कार्य करते हैं। शैव संप्रदाय से जुड़े कुल ७ प्रमुख अखाड़े हैं, जो संन्यासी परंपरा का पालन करते हैं। ये अखाड़े नाथ संप्रदाय, दशनामी संप्रदाय और अन्य शैव परंपराओं से संबंधित हैं। इन अखाड़ों को अह्वान अखाड़ा, अटल अखाड़ा, अग्नि अखाड़ा, आनंद अखाड़ा, जूना अखाड़ा (सबसे बड़ा शैव अखाड़ा), निरंजनी अखाड़ा तथा महानिर्वाणी अखाड़ा के नाम से जाना जाता है।
महाशिवरात्रि से जुड़ी कई कथाएं लोक में प्रचलित हैं, जिनमें पौराणिक कथाएं विशेष रुप से मान्यता प्राप्त हैं। एक कथा के अनुसार, महाशिवरात्रि वह दिन है जब भगवान शिव और माता पार्वती का विवाह संपन्न हुआ था। पार्वती ने शिव को पति रूप में प्राप्त करने के लिए कठोर तपस्या की थी, जिसके फलस्वरूप शिव ने उन्हें स्वीकार किया और यह दिन उनके पावन विवाह के रूप में मनाया जाने लगा।
एक अन्य मान्यता के अनुसार, जब देवता और असुरों ने अमृत प्राप्त करने के लिए समुद्र मंथन किया, तब उसमें से कालकूट विष निकला, जो संपूर्ण सृष्टि को नष्ट कर सकता था। देवताओं की रक्षा के लिए भगवान शिव ने इस विष को अपने कंठ में धारण कर लिया। विष के प्रभाव से उनका कंठ नीला पड़ गया और वे नीलकंठ कहलाए। शिव ने इस विष को पीकर जगत की रक्षा की, और इस दिन को महाशिवरात्रि के रूप में मनाया जाता है।
एक अन्य कथा के अनुसार, एक बार ब्रह्मा और विष्णु में यह विवाद हुआ कि उनमें से कौन श्रेष्ठ है। तभी एक विशाल अग्निस्तंभ (शिवलिंग) प्रकट हुआ, जिसका आदि और अंत किसी को दिखाई नहीं दिया। जब ब्रह्मा और विष्णु इस रहस्य को नहीं समझ पाए, तब शिव स्वयं प्रकट हुए और उन्होंने बताया कि यह अनादि-अनंत शिव तत्व का प्रतीक है। इस दिन को शिव के लिंगोद्भव के रूप में मनाया जाता है।
लोक में शिव तत्व जीवन की सहजता, सरलता, और व्यापकता को दर्शाता है। वे एक ऐसे ईश्वर हैं जो आडंबर से दूर हैं, जो सबको स्वीकार करते हैं, जो सृजन, पालन और संहार तीनों को साधते हैं। लोकमानस में शिव केवल एक देवता नहीं, बल्कि जीवन और अस्तित्व के सत्य का प्रतीक हैं। यही कारण है कि शिव हर गाँव, हर संस्कृति, और हर व्यक्ति के हृदय में बसते हैं।