क्यों देखनी चाहिए “छावा” मुवी, जानिए
आजादी के पूर्व एवं बाद में ऐतिहासिक एवं पौराणिक पात्रों को लेकर देश भक्ति की फ़िल्म बनाई जाती थी और वे जनमानस पर अपना सकारात्मक गहन प्रभाव छोड़ती थी। परन्तु एक ऐसा काल खंड आया जिसमें एजेंडा आधारित फ़िल्में बनने लगी एवं दर्शकों को मारधाड़ एवं अश्लीलता परोसी जाने लगी। फ़िल्म बनाने वाले कहते थे कि दर्शक जो देखना चाहते हैं वही निर्माता बनाता है, दर्शक कहते थे कि जो निर्माता बनाता है वहीं फ़िल्में देखी जाती है। लेकिन मैं समाजिक ताने बाने को बिगाड़ने षड़यंत्र आधारित फ़िल्में बनाने का दोष निर्माताओं को ही दूंगा।
कुछ वर्षों से रजत पटल पर ऐतिहासिक एवं पौराणिक पात्र आधारित फ़िल्मों का दौर फ़िर शुरु हुआ है तथा ये फ़िल्में अच्छा व्यवसाय कर रही हैं जो इतिहास के छिपाए हुए पहलुओं को उजागर करते दर्शकों को आक्रांताओं की क्रूरता से परिचित कराती हैं। ऐसी ही एक फ़िल्म ‘छावा’ मराठी साहित्यकार शिवाजी सावंत द्वारा लिखित प्रसिद्ध उपन्यास छावा पर आधारित है, जो छत्रपति संभाजी महाराज के जीवन पर केंद्रित है। यह फ़िल्म दर्शकों को मराठा साम्राज्य के वीर योद्धा संभाजी महाराज की बहादुरी, नेतृत्व और संघर्षों से परिचित कराती है।
कहानी की शुरुआत छत्रपति शिवाजी महाराज के निधन के बाद मराठा साम्राज्य की बागडोर संभाजी महाराज द्वारा संभालने से होती है। फ़िल्म में दिखाया गया है कि किस प्रकार मुगल सम्राट औरंगज़ेब मराठा साम्राज्य को ध्वस्त करने की कोशिश करता है, लेकिन संभाजी महाराज अपनी वीरता और चतुराई से लगातार प्रतिरोध करते हैं। संभाजी, मुगलों की शान बुरहानपुर में ऐसी तबाही मचाते हैं कि मुगल बादशाह औरंगजेब उन्हें पकड़कर तड़पा-तड़पाकर मारने की कसम खाता है। औरंगजेब का यह सपना पूरा होने में नौ साल लगते हैं।
संभाजी महाराज का जीवन केवल युद्ध और रणनीति तक सीमित नहीं था, फ़िल्म में उनके व्यक्तिगत संघर्षों, उनकी पत्नी येसुबाई (रश्मिका मंदाना) के साथ उनके संबंधों और उनके चरित्र की गहराई को भी दिखाया गया है। संभाजी महाराज को एक स्वाभिमानी, तेजस्वी, और विद्वान राजा के रूप में चित्रित किया गया है, जिन्होंने संस्कृत, फ़ारसी और मराठी में गहरी पकड़ रखी थी तथा औरंगजेब की क्रूरता को भी प्रदर्शित किया है।
विक्की कौशल ने छत्रपति संभाजी महाराज की भूमिका में जान डाल दी है। उनकी शारीरिक भाषा, संवाद अदायगी, और युद्ध दृश्यों में उनका आत्मविश्वास चरित्र को जीवंत बना देता है। उन्होंने न केवल युद्ध के दृश्यों में कमाल किया है, बल्कि एक भावनात्मक और विचारशील राजा के रूप में भी प्रभावित किया है। जब विक्की कौशल ओम नमो पार्वती पतये हर हर महादेव का उद्घोष करते हैं तो सिनेमा हाल गूंज उठता है और जोश की एक लहर सी रगों में दौड़ जाती है।संभाजी को गिरफ़्तार कर औरंगजेब के सामने जंजीरों से बांधकर दिखाकर उनके घावों पर नमक रगड़वाने वाला दृश्य अत्याचार की पराकाष्ठा को प्रदर्शित करता है।
येसुबाई छत्रपति संभाजी के जीवन की आस छोड़ देती है, तो सिंहासन पर बैठाकर छत्रपति घोषित करने तिलक करवाती है। इसकी सूचना औरंगजेब तक पहुंचती है तो उसकी हताशा देखने लायक होती है क्योंकि मराठों से युद्ध के दौरान वह अपने जीवन का एक बड़ा कालखंड दक्कन में तम्बुओं में गुजार चुका होता है और नये छत्रपति के राजतिलक की सूचना से इतना हताश हो जाता है कि दक्कन पर अधिकार का उसका सपना चूरचूर होते दिखाई देता है तब सूचना देने वाले को हिस्टिरियाई अंदाज में मार डालता है और स्वयं वहीं दम तोड़ देता है।
कहानी में ऐतिहासिक तथ्यों का अनुसरण किया गया है, लेकिन कुछ जगह पर सिनेमाई छूट ली गई है, फ़िल्म का पहला भाग थोड़ा धीमा है, जिससे कुछ दर्शकों को शुरुआती हिस्से में धैर्य रखना पड़ सकता है। लेकिन फ़िर भी फ़िल्म अच्छी बनी है।
औरंगज़ेब की भूमिका में अक्षय खन्ना ने अपने सधे हुए अभिनय से गहरी छाप छोड़ी है। उनकी संवाद अदायगी और उनकी आँखों में छलकता धूर्तता और क्रूरता का भाव इस किरदार को और अधिक प्रभावशाली बनाता है। रश्मिका मंदाना ने येसुबाई की भूमिका में शानदार अभिनय किया है। उन्होंने केवल एक सहायक किरदार के रूप में काम नहीं किया, बल्कि मराठा साम्राज्य की शक्ति और नारीशक्ति को भी दर्शाया है। आशुतोष राणा और विनीत कुमार जैसे वरिष्ठ कलाकारों ने भी अपने-अपने किरदारों में जान डाल दी है।
निर्देशक लक्ष्मण उतेकर ने फ़िल्म में इतिहास और सिनेमा के संतुलन को बनाए रखा है। उन्होंने इस बात का ध्यान रखा कि फ़िल्म न केवल एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ की तरह लगे, बल्कि इसे एक मनोरंजक और भावनात्मक अनुभव भी बनाया जाए। यही संतुलन अंतिम तक दर्शक को बांधे रखने में सफ़ल होता दिखाई देता है।
फ़िल्म की सिनेमैटोग्राफी शानदार है। युद्ध के मैदान, महलों और किलों के भव्य दृश्य दर्शकों को 16वीं शताब्दी के मराठा साम्राज्य की यात्रा पर ले जाते हैं। एक्शन दृश्यों की कोरियोग्राफी उच्च स्तरीय है, जिससे युद्ध के दृश्य वास्तविक और रोमांचक लगते हैं। संगीत प्रसिद्ध संगीतकार ए. आर. रहमान ने तैयार किया है। उनका संगीत फ़िल्म के भावनात्मक और युद्ध दृश्यों को और भी प्रभावशाली बनाता है। इस फ़िल्म को परिवार के साथ अवश्य एक बार देखना चाहिए। जिससे बच्चे भारतीय इतिहास के नायकों से परिचित हो सकें।
ललित शर्मा