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कुटुम्ब परंपरा का विघटन समाज के पतन का बड़ा कारण

जिस देश में नारी प्रथम पूज्या रही हो, बच्चियों को देवि स्वरूप मानकर चरण छूने की परंपरा है। उस देश में छोटी छोटी मासूम बच्चियों के साथ बलात्कार और हत्या की बढ़ती घटनाओं ने पूरे समाज को लाँछित कर दिया है। सरकार ने ऐसे अपराधियों को फाँसी की सजा का प्रावधान भी कर दिया फिर भी घटनाएँ रुकने के बजाय बढ़ रहीं हैं। इस विकृति पर मनोवैज्ञानिकों ने जहाँ इसे मानसिक विकृति बताया तो समाज शास्त्रियों ने परिवार परंपरा का विखंडन, संस्कार और समाज की संवेदनहीनता भी कारण मान रहे है ।

एक ओर मनुष्य चाँद को पार करके सूर्य पर पहुँचने का प्रयास कर रहा है, अपनी श्रेष्ठता का डंका पीट रहा है। तो दूसरी ओर छोटी छोटी मासूम बच्चियों के साथ बलात्कार करके हत्याएँ की जा रहीं हैं। भारत भी पीछे नहीं। एक ओर भारत अपने परम वैभव पर पहुँचने की नई अंगड़ाई ले रहा है। तो  दूसरी ओर मानवीय चरित्र और समाज जीवन में इतनी गिरावट आ रही है कि छोटी छोटी बच्चियों के अस्तित्व पर रोज नये संकट का समाचार आने लगा है। नन्ही बच्चियों के साथ घटने वाली यह घटनाएँ केवल जघन्य अपराध ही नहीं मानवीय विकृति की पराकाष्ठा है। भारत में अठारह वर्ष से कम आयु की बच्चियों के साथ प्रतिदिन औसतन की तीन बलात्कार की घटनाएँ घटतीं हैं। इनमें एक घटना तेरह वर्ष से कम आयु की बच्ची के साथ घटती है। लेकिन अब तो डेढ़ और दो साल की बच्चियों को भी निशाना जाने लगा। लेकिन पिछले तीन महीनों में स्थिति और भयावह हुई है।

जुलाई, अगस्त और सितम्बर के इन तीन महीनों में आठ साल से छोटी बच्चियों के साथ पहले बलात्कार की बाईस घटनाएँ घटीं हैं। इनमें पाँच साल, तीन साल, दो साल ही नहीं एक बच्ची तो मात्र डेढ़ साल की थी। कुछ घटनाओं में तो सामूहिक बलात्कार हुआ और कुछ बच्चियों को दुष्कर्म के बाद मार डाला गया। डेढ़ वर्ष की जिस नन्हीं सी बच्ची को दुष्कर्म का शिकार बनाया गया, यह घटना राजस्थान में जोधपुर जिले के बोरानाडा थाना क्षेत्र के अंतर्गत है। इस घटना में दो पड़ौसी युवक आरोपी हैं। दोनों को गिरफ्तार कर लिया गया। ऐसी घटनाएँ किसी क्षेत्र विशेष में नहीं देश के लगभग हर प्राँत में घटीं हैं। मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, कर्नाटक, दिल्ली आदि वे प्राँतों हैं जहाँ पाँच वर्ष से छोटी बच्चियों के साथ बलात्कार और हत्याएँ हुईं।

आरोपियों की मनोविकृति : नशा और पोर्न फिल्में

भारत के लिये यह अतिरिक्त चिंता का विषय है कि जिस देश में कन्या पूजन की परंपरा है, नारी को आदिशक्ति का प्रतीक माना उस देश में छोटी छोटी मासूम बच्चियों के ऐसा दुराचार जो पशुओं में नहीं होता। इसके लिये मनोवैज्ञानिकों और समाजशास्त्रियों ने आरोपियों की पृष्टभूमि का अध्ययन किया है। यह अध्ययन उनकी आयु वर्ग के अनुसार भी हुआ और उनकी दिनचर्या का भी। आरोपियों में सभी आयु वर्ग के हैं। चौदह वर्ष से लेकर साठ वर्ष की आयु तक। इनमें 85 प्रतिशत अपराधी नशे के आदी थे। इनमें अधिकांश ऐसे थे जिन्हें नशे का तो शौक था लेकिन कमाने या मेहनत से काम करने का नहीं। वे या तो घर वालों पर बोझ बने हुये थे या छोटी मोटी चोरियां करके काम चलाते थे। भोपाल में दो छोटी बच्ची के साथ बलात्कार और हत्या की दो घटनाएँ घटीं दोनों घटनाओं के आरोपी नशे के आदी थे।

एक घटना में आरोपी पर इस घटना से पहले के छेड़छाड़ और चोरी के छै प्रकरण पुलिस में दर्ज थे। भोपाल में दूसरी घटना जिसमें पाँच वर्ष की बालिका के साथ सामूहिक बलात्कार और हत्या हुई ये आरोपी भी नशे के साथ मोबाइल पर अश्लील चित्र और वीडियो देखने के शौकीन थे। जो चौदह वर्ष का आरोपी है वह भी इन्टरनेट पर पौर्न फिल्म और दृश्य देखने के आदी था। जयपुर में डेड़ वर्ष की नन्नी बालिका को शिकार बनाने वाले दोनों आरोपी भी नशे के साथ मोबाइल पर अश्लील चित्र और वीडियो देखने के शौकीन थे। एक अन्य घटना में स्कूल शिक्षक और एक अन्य घटना में स्कूल बस का ड्राइवर ने भी छोटी बच्ची को निशाना बनाया। ये दोनों भी नशा और पौर्न सामग्री का व्यसन इन दोनों के शौकीन थे। छोटी बच्चियों के साथ ही नहीं बलात्कार की अधिकांश घटनाओं में आरोपी नशा और अश्लील सामग्री देखने के शौकीन पाये गये ।

कुटुम्ब परंपरा का विघटन, संस्कारों का ह्रास एवं समाज की संवेदनहीनता एक बड़ा कारण

किसी प्राणी में कामुकता का अतिरेक होना एक बात है लेकिन किसी मनुष्य द्वारा दुधमुँही बच्चियों के साथ सामूहिक दुष्कर्म करके हत्या कर देना बिल्कुल दूसरी बात है। यह साधारण नहीं है कि कोई व्यक्ति डेढ़ साल या दो साल की बच्ची को पहले अपनी हबस का शिकार बनाये और फिर उसकी हत्या कर दे। ऐसी घटनाओं को रोकने के लिये सरकारों ने कानूनी प्रावधानों को कड़ा किया है। आरोपियों को जमानत की शर्तें सीमित की हैं और दोष प्रमाणित हो जाने पर फाँसी की सजा का प्रावधान भी किया है फिर भी घटनाएँ घटने के बजाय बढ़ रहीं हैं। इन बढ़ते आँकड़ों को वर्ष 2013 से 2023 के बीच के दस वर्षों में छोटी बच्चियों के होने वाले ऐसे दुष्कर्म के आँकड़े साठ प्रतिशत बढ़े हैं। और चालू वर्ष 2024 के इन नौ माहों के आँकड़े भी बीते वर्ष के पूरे आँकड़ों को छूने लगें हैं।

किसी समस्या का लक्षण देखकर समाधान का मार्ग निकालने का प्रयास करना और समस्या के कारणों का अध्ययन करके उसे समाप्त करना, ये दो अलग अलग बातें हैं। सामाजिक संगठनों द्वारा बच्चियों की सुरक्षा केलिये जाग्रति अभियान चलाना और सरकार द्वारा कठोर कानून बनाना भी समस्या के समाधान केलिये आवश्यक हैं किन्तु इतना करना भर पर्याप्त नहीं हैं। आखिर वे कारण क्या हैं जिनसे छोटी और मासूम बच्चियों का बचपन ही नहीं जीवन भी संकट में पड़ गया है। बच्चियों के बचपन का दमन करने वाली विकृत मनोवृत्ति का कारण क्या है, कैसे उत्पन्न होती है? इस पाशविकता का अंकुरण संस्कार हीनता से होता है और पोर्न सीन, वीडियो जैसी बाहर की घटिया सामग्री उसे विकृति की सीमा तक फैलाती है। अपराधी पर कानून का डर तो होना चाहिए पर ऐसा सामाजिक वातावरण भी आवश्यक है जिससे ऐसी विकृतियों का अंकुरण ही न हो।

भारतीय मनीषियों ने इस समस्या का समाधान खोजकर कुटुम्ब परंपरा विकसित की थी। इसमें व्यक्ति के ऐसे व्यक्तित्व का निर्माण होता था जो परिवार की शक्ति होता था। कुटुम्ब में परिवार के सभी बच्चे साथ खेलते थे, साथ बैठकर भोजन करते थे। एक दूसरे वस्तुओंको साँझा करना और सहयोग करने के भाव जन्म लेते थे। रूठना, मनाना, समझना, समझाना ही नहीं संबंधों की मर्यादा भी बिना सिखाये सीख जाते थे। एक दूसरे का सहयोग करने से, और एक दूसरे को काम करते देखकर एक दूसरे में कर्मशीलता आती थी। कोई निकम्मा सा घर में बैठता था। यदि ऐसा रह भी जाता था तो वह सबकी नजरों के सामने रहता था। कुटुम्ब की वह परंपरा समाज को सशक्त और संवेदनशील बनाती थी। समाज की यह संवेदन शीलता इतनी प्रभावकारी थी कि गाँव की कोई बेटी पूरे गाँव में सबकी बेटी होती थी। गाँव के सब बेटों से उसके चरण छूने को कहा जाता था। इसमें कोई ऊँच नीच या गरीबी अमीरी की रेखा नहीं होती थी। इससे समाज की संवेदनाएँ और संस्कार इतने सशक्त बन जाते थे कि उन्हें कोई वाह्य विचार कलुषित ही नहीं कर सकता था।

विलुप्त होती कुटुम्ब परम्परा

आज भारत की वह कुटुम्ब समन्वय परंपरा कहीं विलुप्त हो रही है। वह पश्चिमी जगत की समाजशैली का अंधानुकरण हो अथवा रोजगार के लिये घर से दूर रहना। परिवार एकाकी हो रहे हैं। एकाकी परिवारों में पढ़ाई के लिये बच्चे घरों से दूर जा रहे हैं। इससे उनके भीतर कुल परंपरा या संस्कार आना तो दूर वे किसी की मानवीय अस्मिता को भी स्वीकार नहीं कर पाते। इस कथाकथित आधुनिक पीढ़ी को अपनी बात या अपनी इच्छा के अतिरिक्त कुछ स्वीकार नहीं होता। छोटी बच्चियों के साथ पाशविक दुष्कर्म करने वाले आरोपी इसी मानसिकता से पले बढ़े हैं। हाँ एक बात अवश्य थी कि तब पोर्न सामग्री की इतनी बरसात नहीं थी। पर बरसात से बचने का भी मार्ग होता है। जब बरसात आती है तो समाज उससे बचने केलिये छाते का प्रबंध करता है। लेकिन आज मोबाइल और इन्टरनेट पर हो रही अश्लील वीडियो, चुटकुले और चित्रों की बरसात से बचने केलिये कोई उपाय नहीं ढूंढे। उल्टे छोटे बच्चों को मोबाईल और कम्प्यूटर दिलाने की कोई स्पर्धा चल पड़ी है। हर माता पिता अपने बेटे को कम्प्यूटर या मोबाइल दिलाकर गर्वोन्नत अनुभव करते हैं। उन्हें इस बात की परवाह नहीं होती कि उनके बच्चे क्या देख रहे हैं।

यह कहानी आज भारत के अधिकांश परिवारों की है। यह संस्कारों का अभाव ही तो है कि अब बेटियों के प्रति गरिमा और सम्मान का भाव नहीं कुत्सित कामुकता के भाव से देखने वालों की संख्या बढ़ रही है। और यह समाज की संवेदनहीनता है कि किसी यह परवाह नहीं कि उनके पड़ौस की, या उनके मोहल्ले की किस बेटियों को कौन कैसी दृष्टि से घूर रहा है। दूसरी ओर घूरने वाले को भी न समाज का भय है और न यह भाव कि उसके अपने उसके बारे में क्या सोचेंगे या लोग क्या कहेंगे? जो नन्नी बच्चियाँ  शिकार बनी वे सभी “लोअर मिडिल क्लास” के ऐसे परिवारों से थीं, जिनके माता पिता को अपनी आजीविका कमाने में ही व्यस्त रहे। उन्हें इतनी फुर्सत नहीं थी कि वे यह देख सकें कि उनकी नन्हीं गुड़िया पर कौन कैसी दृष्टि डाल रहा है। कुटुम्ब परंपरा में नन्ही परियों की सुरक्षा और संरक्षण स्वयंमेव हो जाता था। अब यह संभव नहीं है। बदलते समय के अनुरूप उन्होंने दिखावट सजावट की कूछ सामग्री खरीदना तो सीख लिया लेकिन बढ़ती चुनौतियों का सामना करना नहीं सीखा। छोटी बच्चियों के साथ वारदात करने वाले नब्बे प्रतिशत परिचित लोग थे। कुछ तो घरेलू संबंधों और शुभ चितक होने का दावा भी करते थे। फिर भी ऐसी दरिन्दगी की जिसके घाव जीवन भर नहीं भरेंगे। इसीलिए बदलते समय के अनुरूप जीवन शैली जीने को प्रगति समझने वाले समाज को बढ़ती चुनौतियों को भी समझना होगा और अपनी बेटियों की सुरक्षा बहुत सावधानी से करनी होगी।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं टिप्पणीकार हैं।

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