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शक्ति उपासना का पर्व नवरात्र

प्रो अश्विनी केशरवानी

नवरात्रि पर्व- नौ दिन तक देवियों की पूजा-अर्चना का सात्विक पर्व, ग्रामदेवी, ईष्टदेवी और कुलदेवी को प्रसन्न करने का पर्व। शक्ति साधक जगत की उत्पत्तिके पीछे ‘‘शक्ति’’ को ही मूल तत्व मानते हैं और माता के रूप में उनकी पूजा करते हैं। समस्त देव मंडल शक्ति के कारण ही बलवान है, उसके बिना वे शक्तिहीन हो जाते हैं। यहां तक कि सृष्टि के निर्माण में शक्ति ईश्वर की प्रमुख सहायिका होती हैं।

शक्ति ही समस्त तत्वों का मूल आधार है। शक्ति को समस्त लोक की पालिका-पोषिता माना गया है। वह प्रकृति का स्वरूप है। इस प्रकार शाक्तों अथवा शक्ति पूजकों ने प्रकृति की सृजनात्मक शक्ति को पारलौकिक पवित्रता और ब्रह्मवादिता प्रदान की है। अतः शक्ति सृजन और नियंत्रण की पारलौकिक शक्ति है। वह समस्त विश्व का संचालन भी करती है। इसीकारण वह जगदंबा और जगन्माता है।

छत्तीसगढ़ में शिवोपासना के साथ शक्ति उपासना प्राचीन काल से प्रचलित है। कदाचित इसी कारण शिव भी शक्ति के बिना शव या निष्क्रिय बताये गये हैं। योनि पट्ट पर स्थापित शिवलिंग और अर्द्धनारीश्वर स्वरूप की कल्पना वास्तव में शिव-शक्ति या प्रकृति-पुरूष के समन्वय का परिचायक है। मनुष्य की शक्तियों को प्राप्त करने की इच्छा शक्ति ने शक्ति उपासना को व्यापक आयाम दिया है।

मनुष्य के भीतर के अंधकार और अज्ञानता या पैशाचिक प्रवृत्तियों से स्वयं के निरंतर संघर्ष और उनके उपर विजय का संदेश छिपा है। परिणामस्वरूप दुर्गा, काली और महिषासुर मर्दिनी आदि देवियों की कल्पना की गयी जो भारतीय समाज के लिए अजस्र शक्ति की प्ररणास्रोत बनीं। शैव धर्म के प्रभाव में वृद्धि के बाद शक्ति की कल्पना को शिव की शक्ति उमा या पार्वती से जोड़ा गया और यह माना गया कि स्वयं उमा, पार्वती या अम्बा समय समय पर अलग अलग रूप ग्रहण करती हैं।

शक्ति समुच्चय के विभिन्न रूपों में महालक्ष्मी, महाकाली और महासरस्वती प्रमुख बतायी गयी हैं। देवी माहात्म्य में महालक्ष्मी रूप में देवी को चतुर्भुजी या दशभुजी बताया गया है और उनके हाथों में त्रिशूल, खेटक, खड्ग, शक्ति, शंख, चक्र, धनुष तथा एक हाथ में वरद मुद्रा व्यक्त करने का उल्लेख मिलता है। देवी के वाहन के रूप में सिंह (दुर्गा, महिषमर्दिनी, उमा), गोधा (गौरी, पार्वती), पद्म (लक्ष्मी), हंस (सरस्वती), मयूर (कौमारी), प्रेत या शव (चामुण्डा) गर्दभ (शीतला) होते हैं।

देवी की मूर्तियों को मुख्यतः सौम्य तथा उग्र या संहारक रूपों में बांटा जा सकता है। संहारक रूपों में देवी के हाथों में त्रिशूल, धनुष, बाण, पाश, अंकुश, शंख, चक्र, खड्ग और कपाल जैसे आयुध होते हैं। उनका दूसरा हाथ अभय या वरद मुद्रा में होता है। इसी प्रकार संहारक रूपों में अभय या वरद मुद्रा देवी के सर्वकल्याण और असुरों एवं दुष्टात्माओं के संहार द्वारा भक्तों को अभयदान और इच्छित वरदान देने का भाव व्यक्त होता है। उग्र रूपों में महिषमर्दिनी, दुर्गा, काली, चामुण्डा, भूतमाता, कालरात्रि, रौद्री, शिवदूती, भैरवी, मनसा एवं चैसठ योगिनी मुख्य हैं। देवी के सौम्य रूपों में लक्ष्मी एवं क्षमा (पद्मधारिणी), सरस्वती (वीणाधारिणी), गौर, पार्वती और गंगा-यमुना (कलश और पद्मधारिणी) तथा अन्नपूर्णा प्रमुख हैं।

भारतीय शिल्प में लगभग सातवीं शताब्दी के बाद से शक्ति के विविध रूपों का शिल्पांकन मिलता है। इसके उदाहरण खजुराहो, भुवनेश्वर, भेड़ाघाट, हिंगलाजगढ़, हीरापुर, एलोरा, कांचीपुरम्, महाबलीपुरम्, तंजौर, बेलूर, सोमनाथ आदि जगहों में मिलता है। हमारे देश में गंगा, यमुना, नवदुर्गा, द्वादश गौरी, पार्वती, महिषमर्दिनी, सप्तमातृका, सरस्वती एवं लक्ष्मी की मर्तियों की पूजा अर्चना प्रचलित है।

दुर्गासप्तमी एवं पुराणों में दुर्गा के नौ रूपों क्रमशः शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघण्टा, कूष्माण्डी, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी एवं सिद्धदात्री का उल्लेख मिलता है। भारतीय शिल्प में सभी नौ दुर्गा के अलग अलग उदाहरण नहीं मिलते लेकिन चतुर्भुजा या अधिक भुजाओं वाली सिंहवाहिनी की मूर्ति खजुराहो के लक्ष्मण और विश्वनाथ मंदिर में, एलोरा, हिंगलाजगढ़, महाबलीपुरम् एवं ओसियां में मिले हैं। दुर्गा का एक विशेष रूप चित्तौड़गढ़ में मिला है जो क्षेमकरी के रूप में भारतीय शिल्प में लोकप्रिय था। दक्षिण भारत के मंदिरों में द्वादश गौरी की मूर्ति मिलती है जिनमें प्रमुख रूप से उमा, पार्वती, रम्भा, तोतला और त्रिपुरा उल्लेखनीय है। द्वादश गौरी के नाम और उनके आयुध निम्नानुसार है:-
1. उमा:- अक्षसूत्र, पद्म, दर्पण, कमंडलु।
2. पार्वती:- वाहन सिंह और दोनों पाश्र्वो में अग्निकुण्ड और हाथों में अक्षसूत्र, शिव, गणेश और कमंडलु।
3. गौरी:- अक्षसूत्र, अभय मुद्रा, पद्म और कमण्डलु।
4. ललिता:- शूल, अक्षसूत्र, वीणा तथा कमण्डलु।
5. श्रिया:- अक्षसूत्र, पद्म, अभय मुद्रा, वरद मुद्रा।
6. कृष्णा:- अक्षसूत्र, कमण्डलु, दो हाथ अंजलि मुद्रा में तथा चारों ओर पंचाग्निकुंड।
7. महेश्वरी:- पद्म और दर्पण।
8. रम्भा:- गजारूढ़, करों में कमण्डलु, अक्षमाला, वज्र और अंकुश।
9. सावित्री:- अक्षसूत्र, पुस्तक, पद्म और कमण्डलु।
10. त्रिषण्डा या श्रीखण्डा:- अक्षसूत्र, वज्र, शक्ति और कमण्डलु।
11. तोतला:- अक्षसूत्र, दण्ड, खेटक,चामर।
12. त्रिपुरा:- पाश, अंकुश, अभयपुद्रा और वरदमुद्रा।

द्वादश गौरी के सामूहिक उत्कीर्णन का उदाहरण मोढेरा के सूर्य मंदिर की वाह्यभित्ति की रथिकाओं में देखा जा सकता है। अभी केवल दस आकृतियां ही सुरक्षित हैं। इसी प्रकार हिंगलाजगढ़ में द्वादश रूपों में केवल नौ रूप की दृष्टब्य है। परमार कालीन ये मूर्तियां वर्तमान में इंदौर के संग्रहालय में सुरक्षित हैं। ऐलोरा से पार्वती की 14 मूर्तियां मिली हैं जिनमें रावणनुग्रह, शिव के साथ चैपड़ खेलती पार्वती और स्वतंत्र मूर्तियां मिली हैं। इसीप्रकार भुवनेश्वर में महिषमर्दिनी की 21, ऐलोरा में 10, खजुराहो, वाराणसी और छत्तीसगढ़ के चैतुरगढ़ और मदनपुरगढ़ में मूर्तियां हैं।

देवी पूजन की परंपरा मुख्यतः दो रूपों में मिलती है- एक मातृदेवी के रूप में और दूसरी शक्ति के रूप में। प्रारंभ में देवी की उपासना माता के रूप में अधिक लोकप्रिय थी। पुराणों में दुर्गा स्तुतियों में जगन्माता या जगदम्बा स्वरूप की अवधारणा में देवी के माता स्वरूप का स्पष्ट संकेत मिलता है।

भारत, मिस्र, मेसोपोटामिया, यूनान और विश्व की प्राचीन सभ्यताओं में धर्म की अवधारणा के साथ ही मातृपूजन की परंपरा आरंभ हुई। सृष्टि की निरंतरता बनाये रखने में योगदान के कारण ही मातृ देवियों का पूजन प्रारंभ हुआ। माता की प्रजनन शक्ति जो सभ्यता की निरंतरता का मूलाधार है, मातृदेवी के रूप में उनके पूजन का मुख्य कारण रही है। सिंधु सभ्यता के समय से मातृदेवियों की पूजा प्रचलित थी। शक्ति वस्तुतः क्र्रियाशीलता का परिचायक और उसी का मूर्तरूप है।

शक्ति पूजन के अंतर्गत विभिन्न देवताओं की क्रियाशीलता उनकी शक्तियों में निहित मायी गयी। तद्नुरूप सभी प्रमुख देवताओं की शक्तियों की कल्पना की गयी। देवताओं की शक्तियों की कलपना सांख्यदर्शन की प्रकृति और पुरूष तथा दोनों के अंतरावलंबन के भाव से संबंधित है। इसी कारण शिव भी शक्ति के बिना शव या निष्क्रिय बताये गये हैं। योनिपट्ट पर स्थापित शिवलिंग और अर्द्धनारीश्वर स्वरूप की परिकल्पना वस्तुतः शिवशक्ति या प्रकृति पुरूष की समन्वय का परिचायक है। मनुष्य की विभिन्न प्रकार की शक्तियों को प्राप्त करने की अनंत इच्छा ने शक्ति की उपासना को व्यापक आयाम दिया है।

लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं लोक संस्कृति के जानकार हैं।

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