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छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक धरोहर भोजली तिहार

छत्तीसगढ़ की धरती को प्रकृति ने अपने अद्वितीय सौंदर्य से आलोकित किया है। यहाँ के जंगल और पहाड़ अपने स्नेह सिक्त आँचल से इस धरती को पुचकारते हैं, तो नदियाँ और झरने अपने ममता के स्पर्श से इसे दुलारते हैं। हरे-भरे खेत इसकी गौरव-गरिमा का बखान करते हैं, जबकि पंछी-पखेरू यहाँ चहक कर लोगों को गाने की प्रेरणा देते हैं। इस प्रकार, प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण यह धरती वास्तव में प्रकृति की आत्मजा है। यहाँ के भोले-भाले, सीधे-सरल और मेहनतकश लोगों में भी प्रकृति के प्रति अनन्य प्रेम है।

लोक जीवन में प्रकृति प्रेम
छत्तीसगढ़ के लोगों का यह प्रकृति प्रेम उनके तीज-त्यौहारों, आचार-विचारों और लोक संस्कारों में प्रतिध्वनि होता है। यहाँ के रीति-रिवाज और त्योहार बिना प्रकृति के अवलम्ब के सम्पन्न नहीं होते। छत्तीसगढ़ का लोक जीवन बड़ी सहृदयता से प्रकृति के साथ अपने कर्तव्यों का निर्वहन करता है। उदाहरण के तौर पर, यहाँ का भोजली पर्व लोक के इसी प्रकृति प्रेम और कर्तव्य बोध का अनुपम उदाहरण है। यह पर्व ग्रामीण जीवन की संस्कृति की उपज है और नागर जीवन में सर्वथा दुर्लभ है।

भोजली पर्व का महत्व
भोजली पर्व सावन महीने में मनाया जाता है। यह पर्व उस प्रकृति के प्रारंभिक सौंदर्य की सुखानुभूति की अभिव्यक्ति है, जिसमें कोई बीज अंकुरित होकर अपने अलौकिक स्वरूप से सृष्टि का श्रृंगार करता है। श्रावण के शुक्ल पक्ष में सप्तमी या अष्टमी के दिन किशोरियों द्वारा गेहूं के दाने पूरी श्रद्धा और भक्ति के साथ बोए जाते हैं। ये उगे हुए पौधे ही भोजली देवी के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त करते हैं। भोजली गंगा के रूप में प्रकृति की पूजा है, जो सृजन और सृजन की प्रेरणा देती है।

भोजली का परिचय
भोजली सावन महीने में मनाया जाने वाला पर्व है, जिसमें किशोरियाँ गेहूं के दाने बोकर भोजली देवी की पूजा करती हैं। यह पर्व नागर जीवन में दुर्लभ है और ग्रामीण संस्कृति की उपज है। भोजली उस प्रकृति के प्रारंभिक सौंदर्य की सुखानुभूति की अभिव्यक्ति है, जिसमें कोई बीज अंकुरित होकर अपने अलौकिक स्वरूप से सृष्टि का श्रृंगार करता है। श्रावण के शुक्ल पक्ष में सप्तमी या अष्टमी के दिन कुम्हार आवा की काली मिट्टी डालकर किशोरियों द्वारा गेहूं के दाने पूरी श्रद्धा अैर भक्ति के साथ बोए जाते हैं। ये उगे हुए पौधे ही भोजली देवी के रूप में प्रतिष्ठा पाते हैं।

भोजली गीतों का आनंद
भोजली गीतों में बालिकाएँ अपनी आस्था और चंचलता को अभिव्यक्ति देती हैं। ये गीत घर, गाँव-गुड़ी को अपनी उपस्थिति से महकाते हैं और दर्शक-श्रोता के हृदय में उतर जाते हैं। भोजली गीतों की पंक्ति-पंक्ति में भोजली की शोभा का बखान होता है। नन्ही-नन्ही बालिकाएँ भोजली की सेवा करते हुए मंगल गीत गाती हैं। ये गीत लोक जीवन को ऊर्जा देते हैं और कर्म के लिए प्रेरित करते हैं। नन्ही बालिकाओं का कुशल गायन सुनकर शास्त्रीय गायन के पंडित भी दांतों तले अँगुली दबा लें, तो आश्चर्य नहीं। यह लोक की सहजता, सरलता और परिपक्वता का पुष्ट प्रमाण है।

भोजली का सांस्कृतिक महत्व
भोजली की परंपरा प्राचीन है और विभिन्न अंचलों में अपने अलग नामों से जानी जाती है। यथा कजली, खजलैंया आदि। भोजली का उल्लेख तो इतिहास में भी है। आल्हाखंड़ में इसका अप्रतिम उदाहरण है। भोजली पर्व समूचे छत्तीसगढ़ का लोक पर्व है। गाँव-गाँव, मुहल्ले-मुहल्ले और घर-घर में यह पर्व मनाया जाता है। प्रत्येक जाति की बालिकाएँ भोजली उगाती हैं। भोजली का यह लोक पर्व सारे गाँव को एक सूत्र में बांधता है। आज जब लोगों के दिलो-दिमाग में जाति और धर्म के नाम पर दरारें पैदा की जा रही हैं, तब ऐसे ही लोक पर्व इन मतभेदों को समूल मिटाने में कारगर साबित होगें। भोजली पर्व जहाँ प्रकृति प्रेम की पवित्र भावना से प्रेरित है, वही लोगों को प्रेम, एकता, पारिवारिक स्नेह और अटूट मित्रता के बंधन में बांधने का लोक उपक्रम है।

भोजली के लोक गीत
भोजली गीतों की पंक्ति-पंक्ति में भोजली की शोभा का बखान होता है। ग्रामीण जीवन में चाहे वह स्थानीय नदी, तालाब या कुएँ का पानी क्यों न हो, उसे गंगा की संज्ञा दी जाती है। लोक की यह उदात परंपरा अन्यत्र शायद ही मिले। जल में नहायी हुई भोजली का सौंदर्य और भी अप्रतिम होता है। उस पर पड़ी हुई जल की बूंदें प्रकाश में हीरे-मोती की भाँति आभासित होती हैं। चूंकि भोजली पर सूर्य का प्रकाश नहीं पड़ता, इसलिए उसकी हरितिमा स्वार्णिम होती है। उसका यह सलोना स्वार्णिम रूप आँखों को सुख देता है। भोजली गीतों में नन्ही-नन्ही बलिकाओं की सेवा में पली बढ़ी भोजली की शोभा का बखान किया गया है।

भोजली का विसर्जन
सात दिनों की सेवा के बाद बालिकाएँ भोजली को नदी या तालाब में विसर्जित करती हैं। यह प्रकृति के प्रति उनके प्रेम और आस्था का प्रतीक है। बालिकाएँ भोजली की जड़ों को प्रवाहित कर भोजली घर ले आती हैं। नदी-तालाब के तट पर गाँव में आकर सुवा नृत्य करती हैं। बालिकाओं द्वारा गाँव के देव स्थलों में देवताओं को भोजली अर्पित किया जाता है। भोजली की सेवा के बिना चाहे ओ संतान हो, या पौधा तैयार नहीं होता। इनकी वृद्धि के लिए निरंतर और सजग देखभाल जरूरी है। छत्तीसगढ़ में यह उक्ति भीं है- “बात बात म बात बढ़े, पानी म बाढ़े धान। तेल फूल म लईका बाढ़े, फोही म बाढ़े कान।” अतः भोजली के लिए भी सेवा की आवश्यकता होती है।

भोजली बदना और सामाजिक बंधन
भोजली पर्व के दौरान लोग एक-दूसरे को भोजली बदते हैं, जिससे उनके बीच मित्रता और आत्मीयता का बंधन मजबूत होता है। भोजली बदने के लिए उम्र का कोई बंधन नहीं होता। भोजली एक दूसरे को सीताराम भोजली कहकर अभिवादन करते हैं। यह बंधन परिवारिक और आत्मीय रिश्तों में तब्दील हो जाता है। बंधन में बंधने वाला मित्र या सहेलियां एक-दूसरे का नाम नहीं लेते, बल्कि भोजली कहकर संबोधित करते है। एक-दूसरे की माँ को परस्पर फूल दाई तथा बाप को फूल ददा कहकर मान देते हैं। भोजली का यह लोक पर्व सारे गाँव को एक सूत्र में बांधता है और सामाजिक एकता को बढ़ावा देता है।

लेखक छत्तीसगढ़ी संस्कृति के जानकार एवं वरिष्ठ साहित्यकार हैं।

One thought on “छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक धरोहर भोजली तिहार

  • August 21, 2024 at 08:21
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    बहुत सुंदर जानकारी सुंदर त्योहार ❤️❤️🌺🌺

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