वीर योद्धा कुँवर चैनसिंह और उनकी सैन्य टुकड़ी की शौर्य गाथा
24 जुलाई 1824 : क्राँतिकारी कुंवर चैनसिंह का बलिदान
निसंदेह भारत पर दासत्व का अंधकार एक लंबे समय तक छाया रहा। पर ऐसा कोई दिन नहीं, कोई क्षेत्र नहीं जहाँ मुक्ति केलिये संघर्ष न हुआ हो, बलिदान न हुये हों। ऐसे ही अमर बलिदानी हैं नरसिंहगढ़ मध्यप्रदेश के कुँवर चैनसिंह। जिन्होंने विषम परिस्थिति में एक सैन्य टुकड़ी गठित कर अंग्रेजों से मुक्ति का अभियान छेड़ा।
क्राँतिकारी कुँअर चैन सिंह का जन्म 10 अप्रैल 1801 को मध्यप्रदेश के अंतर्गत नरसिंहगढ़ राज परिवार में हुआ था। जन्म की तिथि पर इतिहासकारों के मतभेद हैं। चैनसिंह बचपन से ही स्वाभिमानी स्वभाव के थे। बहुत चुस्त और ऊर्जावान व्यक्तित्व के धनी थे। तलवार और अन्य अस्त्र-शस्त्र चलाना बचपन में सीख लिया था। वे कुशल शिकारी भी थे।
उन्नीस वर्ष की आयु में उनका विवाह कुँवरानी राजवत के साथ हुआ। वे खीची राजवंश की थीं। पिता सौभाग्य सिंह आध्यात्मिक प्रवृत्ति के राजा थे। परिवार की पृष्ठभूमि राजस्थान के राजपूताने से थी। यह राज परिवार मराठों का समर्थक रहा है। उत्तर भारत के लगभग प्रत्येक अभियान में मराठा सेना ने इस रियासत के अंतर्गत कैंप किया है।
नरसिंहगढ़ राज परिवार की ओर से भरपूर सहायता दी गई। मराठों के पतन के बाद क्षेत्र में अंग्रेजों का दबाव बढ़ा। नरसिंहगढ़ से लगी भोपाल रियासत ने अंग्रेजों के सामने समर्पण कर दिया था और अंग्रेज पोलिटिकल एजेंट ने भोपाल रियासत के अंतर्गत सीहोर को अपनी सैन्य बनाकर अपना कैंप बना लिया था।
इसके अंतर्गत तोपखाना सहित लगभग एक हजार से अधिक फौजी रहते थे। अंग्रेज एजेंट ने आसपास रियासतों पर दबाव बनाना शुरु कर दिया। कुँअर चैनसिंह अंग्रेजों से दबना नहीं चाहते थे। अंग्रेजों ने दबाव बनाया तो राजा सौभाग्य सिंह ने अपने दो मंत्रियों आनन्दराव बख्शी और रूपराम वोहरा को समझौते के लिये सीहोर भेजा।
दोनों मंत्रियों ने राजा की ओर से अंग्रेजों से आरंभिक संधि पर हस्ताक्षर कर दिये। जिसमें नरसिंहगढ़ रियासत अंग्रेजों के अंतर्गत आने की शर्त थी। इसे कुँअर चैनसिंह ने विश्वासघात माना। उन्हे अंग्रेजों की आधीनता स्वीकार नहीं थी। उन्होंने और दोनों को प्राण दंड दे दिया।
यही नहीं कुँअर चैनसिंह ने आसपास के राजाओं की बैठक भी बुलाई। उनदिनों जनरल मेंढाक सीहोर में ब्रिटिश शासन की ओर से राजनीतिक एजेण्ट नियुक्त था। उसने नाराज होकर चैनसिंह को बुलावा भेजा। बातचीत के लिये भोपाल रियासत के अंतर्गत बैरसिया स्थान निश्चित हुआ।
कुँअर चैन सिंह अपने कुछ विश्वस्त साथियों के साथ बैरसिया पहुँचे।जनरल मेंढाक चाहता था कि चैनसिंह पेंशन लेकर सपरिवार काशी रहें और राज्य में उत्पन्न होने वाली अफीम की आय पर अंग्रेजों का अधिकार रहे। कुँअर चैनसिंह इसके लिए तैयार नहीं हुए। वार्ता असफल हो गई और चैनसिंह नरसिंहगढ़ लौट गये।
पर वे चुप न बैठे उन्होंने सेना में भरती आरंभ कर दी। जब यह समाचार जनरल मेंढाक को मिला तो उसने चैनसिंह को सीहोर छावनी में बुलाया और चेतावनी दी कि यदि वे नहीं आये तो नरसिंहगढ़ के विरुद्ध सैन्य कार्रवाई की जायेगी। कुँअर चैनसिंह अपनी सैन्य टुकड़ी के साथ सीहोर पहुँचे।
वह 24 जुलाई 1824 का दिन था। बात नहीं बनी। और संघर्ष आरंभ हो गया। अंग्रेज पोलिटिकल एजेंट ने पूरी तैयारी करके ही कुँअर को सीहोर बुलाया था। संघर्ष आरंभ हो गया। पर नरसिंहगढ़ के अधिकांश सैनिकों के पास केवल तलवारें थीं जबकि अंग्रेज सैन्य टुकड़ी न केवल संख्या में अधिक थी अपितु उनके पास बंदूकें भी थीं। यह संघर्ष बमुश्किल आधे दिन चल पाया।
कुँअर के साथ कुल 43 सैनिक आये थे कोई सैनिक जीवित न बचा। सबका बलिदान हो गया। यह युद्ध सीहोर छावनी के लोटनबाग क्षेत्र में हुआ। और वहीं उनका बलिदान हुआ। वहाँ उनकी समाधि बनी है। उनके साथ बलिदान होने वालों में खुमान सिंह दीवान, शिवनाथ सिंह राजावत ठिकाना मुआलिया, अखेसिंह चंद्रावत ठिकाना कड़िया, हिम्मत खाँ, बहादुर खाँ, रतन सिंह राव जी, गोपाल सिंह रावजी पठार, उजीरखाँ, बख्तावरसिंह, गुसाई चिमनगिरि जमादार पैडियो मोहन सिंह राठौड़ , रूगनाथ सिंह राजावत, तरवर सिंह, प्रताप सिंह गौड़, बाबा सुखराम दास, बदनसिंह नायक, लक्ष्मण सिंह, बखतो नाई, ईश्वर सिंह, मौकम सिंह सगतावत, फौजदार खलील खाँ, हमीर सिंहजमादार सुभान, श्यामसिंह, बैरो रूस्तम, बखतावर सिंह सगतावत नापनेरा, चोपदार देवो, उमेद सिंह सोलंकी, मायाराम, प्यार सिंह सोलंकी, केशरी सिंह, कौक सिंह, मोती सिंह, गजसिंह सींदल दईया गुमान सिंह का बलिदान हुआ।
इस घटना के बाद अंग्रेज फौज नरसिंहगढ़ पहुँची और राजा से समर्पण को कहा। यहाँ स्वाभिमानी सैनिकों ने तलवारें खींच लीं और लगभग 150-200 वीरों का बलिदान हुआ। इनके अतिरिक्त गागोर राघौगढ़ राजा धारू जी खीची के उत्तराधिकारी गोपाल सिंह एवं जालम सिंह सहित लगभग 40 घायल हुऐ।
रानी कुँअरानी राजावत ने नरसिंहगढ़ के हार बाग में उनकी समाधि का निर्माण कराया। बाद में उनके बलिदान स्थल सीहोर में और उनके जन्म स्थान नरसिंहगढ़ में उनकी छत्री बनाई गई।
चैनसिंह के इस बलिदान की चर्चा घर-घर में हुई। उन्हें अवतारी पुरुष माना गया। आज भी उन्हे ग्राम देवता के रूप में पूजा जाता है। नरसिंहगढ़ के हारबाग में बनी उनकी समाधि पर लोग कंकड़ रखकर अपनी मनौती मानते हैं। इस प्रकार कुँवर चैनसिंह ने स्वत्व और स्वाभिमान के लिये अपना बलिदान देकर भारतीय स्वतन्त्रता का इतिहास रचा। प्रति वर्ष जुलाई माह में राज्य शासन इनके सम्मान में कार्यक्रम आयोजित करता है और गार्ड ऑफ़ ऑनर दिया जाता है। मध्य प्रदेश सरकार ने गार्ड ऑफ ऑनर देने की यह परंपरा वर्ष 2015 में आरंभ की।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं टिप्पणीकार हैं।