डॉ. सुमित शर्मा : घुम्मकड़ी हमें परिपक्व इंसान बनाती है.
1 – आप अपनी शिक्षा दीक्षा, अपने बचपन का शहर एवं बचपन के जीवन के विषय में पाठकों को बताएं कि वह समय कैसा था?@ शिक्षा दीक्षा इंदौर मे ही हुई। पढ़ाई में भी औसत ही था, लेकिन दादा जी हर वक़्त पढ़ाई मे अच्छा करने के लिए प्रेरित करते रहते थे, आज तक पढ़ाई मे थोड़ा सा जो भी ख़ास किया है,उन्हीं उत्प्रेरक की बदौलत किया । दादा जी स्वयं होम्योपैथीक चिकित्सक थे, तो शुरू से ही माहौल भी मिला था, होम्योपैथिक चिकित्सा मे ग्रेजुएशन बी.एच.एम.एस. के बाद योग मे रूचि के कारण योग मे पोस्ट ग्रेजुएशन एम.ए योग किया है।
जन्म इंदौर शहर मे हुआ, तो में जन्म से ही इंदौरी हूँ और मामा जी का गाँव भी देवास के पास ही है। तो बचपन इन दोनों शहरों के इर्दगिर्द ही बीता। इन दोनों शहरों से गहरा लगाव है। स्कुल और कॉलेज की पढ़ाई भी अपने शहर इंदौर मे ही हुई, कॉलेज के दिनों मे दोस्तों के साथ कई बार शहर मे रात-रात भर घूमे है, वे दिन बहुत याद आते है। मेरा शहर एक उत्सव प्रेमी शहर है, रंगपंचमी हो या गणेश विसर्जन या हो सावन उत्सव यहाँ खूब रंगत होती है।
2 – वर्तमान में आप क्या करते हैं एवं परिवार में कौन-कौन हैं?वर्तमान मे इंदौर मे ही होम्योपैथीक चिकित्सक हूँ, खुद का क्लीनिक है। परिवार मे माता-पिता, पत्नी और 7 महीने का बेटा है। बड़ी बहन की शादी हो चुकी है,उनका परिवार महु(MHOW) में है।
3 – घूमने की रुचि आपके भीतर कहाँ से जागृत हुई?@ मुझे लगता है कुछ रुचिया जन्म से ही होती है, बचपन मे जब मामा-भुआ के घर जाते थे, तो छोटे से सफ़र का भी बड़ा मज़ा आता था। मामा जी के यहाँ तो खेत खलिहान, बैलगाड़ी ट्रेक्टर वाला वातावरण था। वहाँ बहुत मज़ा आता था। इसके अलावा दादा जी भी वर्ष मे तीन-चार बार तीर्थ यात्रा पर जाते रहते थे तो उनसे नई नई जगहों की जानकारी मिलती रहती थी। तब से ही घूमने की उत्सुकता बनी रहती थी। तो समझ लो कि यह संक्रमण तो बचपन से ही है। जब संक्रमण बहुत बढ़ जाता है तो मोटरसाइकल उठा के निकल पड़ता हूँ।
4 – किस तरह की घुमक्कड़ी आप पसंद करते हैं, ट्रेकिंग एवं रोमांचक खेल भी क्या सम्मिलित हैं, कठिनाइयाँ भी बताएँ?
@ घुमने को मिले तो नापसंद कुछ नही, सभी पसंद है। एक बात ये जरूर है कि मोटरसाइकिल चलाने का बहुत शौक है तो जब भी समय मिलता है लम्बी दूरी की मोटरसाइकिल यात्रा पर दूरस्थ वीरान जगहों की तलाश मे निकल पड़ता हूँ/ ऐसी जगहें मुझे बहुत पसंद आती है। घूमने जाता हूँ तो माइंड सेट ऐसा हो जाता है कि कैसी भी चुनौती आये सामना कर ही लेता हूँ। मेरा कोई भी डिसकम्फर्ट जोन नही होता।
एक बार एक बाइक पर हम तीन भाई लोग इंदौर ओम्कारेश्वर पहुँच गये। तीनों वापस एक बाइक पर ही रात को वापसी कर रहे थे दस किमी ही चले थे कि बाइक की हेडलाइट का काँच और मास्क वाला भाग उबड़ खाबड़ रोड के कारण नीचे गिर गया, उसे खूब ढूंढा लेकिन अंधेरे मे नही मिला। अब बाइक की हेड लाइट मे बल्ब तो चालू था लेक़िन उसकी फीटिंग के लिए काँच वाला भाग नही था। बल्ब ऐसे ही लटक रहा था,रात की 11 बजे मिस्त्री भी नही मिलना था। इंदौर 70 किलोमीटर दूर था।
तीनों ने वापस ओम्कारेश्वर वापस जाने का निर्णय लिया॥ लटके हुवे बल्ब को एक भाई ने मेरे आगे बैठकर हाथ मे लेकर रोशनी दिखाई। उसके पीछे बैठकर मेंने गाड़ी चलाई। एक भाई मेरे पीछे बैठ गया। यह दस किलोमीटर की वापसी बहुत कठनाई वाली थी। मेरा पेशा ऐसा है की लम्बी यात्राओं का समय नही निकाल पाता हूँ, इस कारण से ट्रेकिंग और रोमांचक खेलों का अनुभव नही ले पाया।
5 – उस यात्रा के बारे में बताएं जहाँ आप पहली बार घूमने गए और क्या अनुभव रहा?
@ वर्ष 1998 की बात है,उम्र 15 वर्ष थी, स्कूल की तरफ से स्काउट-गाइड केम्प मे इंदौर से रेलगाड़ी कालाकुंड गया था। यह जगह इंदौर खंडवा रेलवे लाइन पर महु से आगे है। तब इस जगह पर पहली बार गया था। दो दिन का केम्प था, आसपास की जगह मे घूमे, दो रातें टेंट मे रहे। वहाँ से आने के बाद पातालपानी और ओम्कारेश्वर तक ट्रेन की छत पर बैठ कर दोस्तों के साथ गया। ये दिन बहुत याद आते है।
6 – घुमक्कड़ी के दौरान आप परिवार एवं अपने शौक के बीच किस तरह सामंजस्य बिठाते हैं?
@ परिवार से पहले मुझे अपने मरीजों के साथ सामंजस्य बनाना होता है। दस दिन या पन्द्रह दिन के लिये उनको उनके ही हाल पर छोड़ना बहुत मुश्किल होता है। एकलौता पति और एकलौता बेटा हूँ तो परिवार में भी पहले बहुत विरोध होता था। जब अनुमति नही मिली तो बिना बताए चले गया। एक दो बार ऐसा होने पर अब घर से अनुमति मिल ही जाती है। तो अब विरोध नही होता है। साथ देते है। एक बार तो श्रीमती जी भी इंदौर-पचमढ़ी मोटरसाइकल यात्रा मे पिछली सीट पर सवार हो गई थी।
7 – आपकी अन्य रुचियों के साथ बताइए कि आपने ट्रेवल ब्लाॅग लेखन कब और क्यों प्रारंभ किया?
@ बचपन मे क्रिकेट का खुब शौक था, गली क्रिकेट खुब खेला, जब घर मे टेलीविजन नही था तो पान की दुकान पर मैच देखा करता था। खैर अब सब कुछ है, तो समय नही है। ब्लॉग लेखन पहली बार 2015 मे किया था लेकिन अब तक दो या तीन पोस्ट ही लिखी है। लेखन केवल अपने शौक के लिए करता हूँ।
8 – घुमक्कड़ी (देशाटन, तीर्थाटन, पर्यटन) को जीवन के लिए आवश्यक क्यों माना जाता है?
@ घुम्मकड़ी हमें परिपक्व इंसान बनाती है, इस दौरान जो अनुभव और ऊर्जा मिलती है, वो घर बैठे नही मिल सकती। यूँ कह लीजिए हर इंसान की आँखों में एक चश्मा लगा हुआ होता है। जिससे उसकी सोच और परिस्थितियों को देखने का नज़रिया स्पष्ट होता है। घुमक्कड़ लोगों का चश्में का दायरा अधिक वृहत और साफ़ होता है और इनकी सोच और परिस्थितियों की समझ भी परिपक्व होती है।
9 – आपकी सबसे रोमांचक यात्रा कौन सी थी, अभी तक कहाँ कहाँ की यात्राएँ की और उन यात्राओं से क्या सीखने मिला?
@ सबसे रोमांचक यात्रा मे जनवरी 2015 मे की गई किन्नौर-स्पिति यात्रा है। यह मेरी पहली ही हिमालय यात्रा थी। बहुत कुछ सीखने को भी मिला, हिमालय मे सबसे पहले मौसम और परिस्थितियों का सम्मान करना होता है। नहीं तो वहाँ फसने मे भी देर नही लगती। इसके अलावा अगर हमें अनुभव नही है तो अनजान जग़ह अकेले ना जाना ही बेहतर होता है। एक से भले दो वाली बात हिमालय के लिए अटूट सत्य है।
10 – नये घुमक्कड़ों के लिए आपका क्या संदेश हैं?
@ जब भी घर से निकले सारी विलासिता त्याग के निकले, कुछ समय होटलों को छोड़कर होमस्टे का और लोकल रेहड़ी के व्यंजनों का, लोकल पब्लिक के साथ वहाँ की परम्पराओं का मज़ा भी जरूर लेवें आपको निश्चित ही मज़ा आएगा….
बहुत बढ़िया डॉक्टर साहब…।
बहुत बहुत धन्यवाद अनिल जी…
डॉ साहब , अब तक मुझे मिलें लोगो मे से बेहतरीन इंसानों में से एक है । ललित जी को हार्दिक आभार ।
डॉ साहब का अनुभव भी आपके साथ ऐसा ही है कविवर…
“विलासिता को त्याग कर लोकल रेहड़ियों का, स्थानीय लोगों के साथ वहां की परम्पराओं का मजा भी जरूर लें ” यह कथन मेरे दिल दिमाग सब जगह घुस गयी । मुझे इसी तरह के यात्रा पसन्द हैं जहाँ सिर्फ बर्फ से लदी पहाड़ ,जंगल नदियाँ अथवा स्वर्ण की परत बिछी रेगिस्तान और वास्तुकला का अनुपम कृति किला व महल ही देखना नही, वहाँ की संस्कृतियों व लोगों की जीवन से जुड़ी गूढ़ बाते को महसूस करने में अन्तरात्मा तृप्त होती है।
धन्यवाद कपिल जी….
Very nice ji
धन्यवाद सिन्हा जी…
बहुत बढ़िया डॉक्टर साहब आपके बारे में जान कर अच्छा लगा ।
बहुत बहुत बधाई भाई साहब