स्वाधीनता संग्राम, सांस्कृतिक पुनर्जागरण और राष्ट्र निर्माण के शिल्पकार : के. एम. मुंशी
भारतीय स्वाधीनता संग्राम में कुछ ऐसी दूरदर्शी विभूतियाँ रहीं हैं, जिन्होंने स्वतंत्रता के लिए सार्वजनिक संघर्ष किया, अनेक बार जेल गए और इसके साथ ही सांस्कृतिक मूल्यों की पुनर्प्रतिष्ठा का अभियान भी चलाया। ऐसे ही महान स्वाधीनता सेनानी थे के. एम. मुंशी।
उनका पूरा नाम कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी था। वे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, राजनेता, गुजराती एवं हिन्दी के ख्यातनाम साहित्यकार और शिक्षाविद थे। उन्होंने भारतीय विद्या भवन की स्थापना की। सोमनाथ मंदिर के जीर्णोद्धार की कल्पना सबसे पहले इन्हीं ने की थी। सरदार वल्लभभाई पटेल ने इन्हीं को आगे करके हैदराबाद रियासत को भारतीय गणतंत्र में विलय करने की रणनीति का क्रियान्वयन किया था।
इनका जन्म 30 दिसंबर 1887 को गुजरात के भड़ौच क्षेत्र में हुआ था। बचपन में वे बहुत आकर्षक और चंचल थे, इसलिए उनका नाम घनश्याम रखा गया। माँ प्यार से उन्हें कन्हैया पुकारती थीं। उनके पिता माणिकलाल व्यास अपने क्षेत्र के प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। यद्यपि परिवार भार्गव ब्राह्मण था, किंतु उच्च शिक्षित पिता कुछ समय न्यायालय में मुंशी रहे और यही उनकी पहचान बनी। वे ‘व्यास’ के स्थान पर ‘मुंशी’ कहलाए और यही उनका उपनाम हो गया।
जब घनश्याम बड़े हुए तो उन्होंने माँ द्वारा दिया गया नाम कन्हैयालाल और पिता का नाम जोड़कर कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी स्वीकार किया और यही उनकी पहचान बनी। माता अत्यंत आध्यात्मिक और धार्मिक विचारों की थीं। वे प्रतिदिन धार्मिक गीत गाया करती थीं और आसपास होने वाले धार्मिक आयोजनों में उन्हें साथ ले जाती थीं। शैशवकाल से मिली यही धार्मिक और आध्यात्मिक शिक्षा के. एम. मुंशी के जीवन की चेतना बनी।
1900 में उनका विवाह अतिलक्ष्मी पाठक से हुआ। विवाह के बाद उन्हें आधुनिक शिक्षा के लिए बड़ौदा भेजा गया। 1907 में उन्होंने अंग्रेजी विषय में प्रथम श्रेणी में स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण की। महाविद्यालयीन शिक्षा के दौरान उन्हें अध्यापक के रूप में अरविंद घोष मिले। अरविंद घोष क्रांतिकारी विचारों के थे और युवाओं में राष्ट्रचेतना जगाने का कार्य कर रहे थे। उन्हीं के सान्निध्य में युवा कन्हैयालाल मुंशी के भीतर स्वत्व और स्वाभिमान की भावना प्रबल हुई और वे अंग्रेजी शासन के विरुद्ध संघर्ष से जुड़ गए।
स्नातक परीक्षा के बाद वे वकालत की पढ़ाई के लिए मुंबई पहुँचे। 1910 में वकालत की परीक्षा उत्तीर्ण कर उन्होंने बॉम्बे उच्च न्यायालय में वकालत प्रारंभ की। अपनी कुशाग्र बुद्धि के कारण कम समय में ही वे प्रतिष्ठित वकीलों में गिने जाने लगे। इसी दौरान वे ऐनी बेसेंट के संपर्क में आए और होमरूल आंदोलन से जुड़े।
1914 में उन्होंने मुंबई को स्थायी निवास बनाया। 1915 में वे होमरूल आंदोलन के सचिव बने और 1917 में बॉम्बे प्रेसीडेंसी एसोसिएशन के सचिव भी रहे। 1920 में अहमदाबाद कांग्रेस अधिवेशन में भाग लेकर वे कांग्रेस से जुड़े। 1921 के असहयोग आंदोलन में भाग लेने के कारण उन्हें गिरफ्तार किया गया।
1927 में वे बॉम्बे विधानसभा के सदस्य चुने गए, किंतु त्यागपत्र देकर बारडोली सत्याग्रह में शामिल हुए और जेल गए। 1930 के सविनय अवज्ञा आंदोलन और 1932 के सत्याग्रह में भी वे जेल गए। उनका जेल जीवन अध्ययन और लेखन में व्यतीत होता रहा। 1937 में वे बॉम्बे प्रेसीडेंसी के गृह मंत्री बने और 1938 में भारतीय विद्या भवन की स्थापना की।
कांग्रेस से मतभेद
1934 के बाद कांग्रेस से उनके मतभेद उभरने लगे। वे समान नागरिक अधिकारों के पक्षधर थे, किंतु मुस्लिम लीग को दी जा रही विशेष राजनीतिक रियायतों के विरोधी थे। मतभेद बढ़ने पर उन्होंने कांग्रेस छोड़ी, हालांकि गांधीजी और सरदार पटेल से उनका व्यक्तिगत संपर्क बना रहा। 1946 में गांधीजी के आग्रह पर वे पुनः कांग्रेस में शामिल हुए और संविधान सभा के सदस्य बने।
हैदराबाद विलय और सोमनाथ मंदिर
स्वतंत्रता के बाद हैदराबाद रियासत के भारत में विलय और सोमनाथ मंदिर के जीर्णोद्धार में उनकी भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही। सरदार पटेल के निकट सहयोगी के रूप में उन्होंने इन दोनों ऐतिहासिक कार्यों की रूपरेखा और क्रियान्वयन में अग्रणी भूमिका निभाई।
1950 में वे केंद्रीय खाद्य और कृषि मंत्री बने और वन महोत्सव की शुरुआत की। 1952 से 1957 तक वे उत्तर प्रदेश के राज्यपाल रहे। 1964 में विश्व हिंदू परिषद की स्थापना बैठक की अध्यक्षता उन्होंने की और उसी वर्ष राजनीति से संन्यास लेकर अध्ययन एवं लेखन में जीवन समर्पित कर दिया। 8 फरवरी 1971 को उनका निधन हुआ।
साहित्य रचना
के. एम. मुंशी ने हिन्दी, गुजराती और अंग्रेजी में विपुल साहित्य रचा। उनका साहित्य राष्ट्रबोध, संस्कृति और इतिहास से अनुप्राणित है। ‘जय सोमनाथ’, ‘कृष्णावतार’, ‘पृथिवीवल्लभ’ सहित अनेक कृतियाँ भारतीय साहित्य की अमूल्य धरोहर हैं।
