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स्वामी श्रद्धानंद का बलिदान इस्लामिक कट्टरपंथ के विरुद्ध सनातन चेतना का संघर्ष

आर्य समाज के प्रखर वेदज्ञ वक्ता, उच्चकोटि के अधिवक्ता, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और क्रांतिकारियों की एक पूरी पीढ़ी तैयार करने वाले स्वामी श्रद्धानंद की हत्या एक कट्टरपंथी ने की थी। यह हत्या एक ऐसे षड्यंत्र का अंग थी, जो भारत में हिन्दुओं की घर वापसी के अभियान को रोकने के लिए सतत चल रहा है। बहाना कोई भी हो, लेकिन भारत में कट्टरपंथियों के निशाने पर हर वह व्यक्ति और संस्था रही है, जो सनातन परंपराओं के लिए समर्पित है। इनके विरुद्ध अभियान पहले भी था और आज भी है।

स्वामी श्रद्धानंद के बलिदान को अब लगभग सौ वर्ष होने जा रहे हैं। सत्ता ही नहीं, पीढ़ियाँ भी बदल गईं। भारत का विभाजन भी हो गया, लेकिन कट्टरपंथ का कुचक्र और उसकी क्रूरता में कोई अंतर नहीं दिखता। आज भी वही प्रवृत्तियाँ दिखाई देती हैं, जिनके कलुषित प्रभाव से स्वामी श्रद्धानंद का बलिदान हुआ था।

स्वामी श्रद्धानंद का पूरा जीवन भारत राष्ट्र के स्वत्व और स्वाभिमान की प्रतिष्ठापना के लिए समर्पित रहा। उनका सार्वजनिक जीवन हिन्दू-मुस्लिम एकता के सिद्धांत पर आधारित था। वे मानते थे कि एकता का आधार पूर्वजों की वंश परंपरा से होना चाहिए। उनका स्पष्ट मत था कि भारतवर्ष के समस्त मुसलमानों के पूर्वज हिन्दू रहे हैं। यदि किसी को नई धर्म-परंपरा अच्छी लगती है तो वह उसे अपनाए, किंतु जो भय, लालच अथवा भ्रम के कारण धर्मांतरित हुए हैं, वे चाहें तो घर वापसी कर सकते हैं।

उनका विश्वास था कि सभी भारतीयों के पूर्वज एक हैं, और इस विषय पर उनके तर्क अत्यंत अकाट्य थे। उनके संपर्क भी अत्यंत व्यापक थे। इतिहास में यह उल्लेख मिलता है कि उन्होंने दिल्ली के जामा मस्जिद क्षेत्र में एक विशाल आमसभा को संबोधित किया था, जिसमें बड़ी संख्या में मुस्लिम समाज के लोग उपस्थित थे। यह सभा वर्ष 1919 में हुई थी। स्वामीजी ने वेद की ऋचा से अपना उद्बोधन आरंभ किया और ‘ॐ शांति’ के साथ समापन किया। बीच-बीच में ‘अल्लाहो-अकबर’ के उद्घोष से उनका स्वागत भी किया गया।

उन्होंने उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, पंजाब और बिहार में असंख्य लोगों की घर वापसी कराई, जो कभी भय और विवशता के कारण धर्मांतरित हो गए थे। उत्तर प्रदेश के मलकान राजपूतों की घर वापसी की घटना पूरे देश में चर्चित हुई। यह घटना वर्ष 1920 की है। स्वामीजी के अभियान के अंतर्गत अनेक गाँवों में निवास करने वाले मलकान राजपूत पुनः सनातन परंपरा में लौटे। वे कहते थे कि यदि राष्ट्रभाव प्रबल होगा तो लोग अपने पूर्वजों को पहचानेंगे, भले ही उनकी पूजा-उपासना की पद्धति अलग हो। इससे संघर्ष नहीं होगा।

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स्वामी श्रद्धानंद संत और संन्यासी होने के साथ-साथ स्वाधीनता संग्राम सेनानी भी थे। उन्होंने अमृतसर के कांग्रेस अधिवेशन में स्वागत भाषण दिया और पूर्ण स्वतंत्रता का प्रस्ताव रखा, जो पारित नहीं हो सका। यह घटना दिसंबर 1919 की है। उन्होंने कांग्रेस के आह्वान पर असहयोग आंदोलन में भी भाग लिया, किंतु वे असहयोग आंदोलन में खिलाफत आंदोलन को जोड़ने के पक्ष में नहीं थे। उन्होंने गांधीजी सहित अन्य नेताओं को चेताया था कि इससे कट्टरपंथी शक्तियाँ प्रबल होंगी, जो छल-बल से सनातन परंपराओं को नष्ट करना चाहती हैं। उनकी चेतावनी को अनसुना कर दिया गया। इसके बाद उन्होंने कांग्रेस से नाता तोड़ लिया और राष्ट्रसेवा में पूर्ण रूप से लग गए।

उनका समर्पण स्वराष्ट्र के लिए था। वे स्वदेश और स्वभाषा के लिए जिए और स्वसंस्कृति के लिए बलिदान हो गए। स्वामी श्रद्धानंद के जीवन का प्रत्येक क्षण भारत राष्ट्र, संस्कृति, स्वत्व और स्वाधीनता के लिए समर्पित रहा।

जीवनवृत्त

स्वामी श्रद्धानंद का जन्म 22 फरवरी 1856 को पंजाब के जालंधर जिले के अंतर्गत ग्राम तालवान में हुआ था। उनके पिता नानकचंद विज ब्रिटिश सरकार में पुलिस अधिकारी थे। बचपन में उनका नाम बृहस्पति मुंशी राम विज रखा गया, किंतु वे मुंशी राम नाम से ही प्रसिद्ध हुए।

पिता की पदस्थापना अलग-अलग स्थानों पर होने के कारण उनकी प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही हुई। उनका यज्ञोपवीत संस्कार दस वर्ष की आयु में हुआ, जिसके बाद उनका विद्यालय जाना नियमित हो सका। उनकी आरंभिक शिक्षा जालंधर में हुई। उन्होंने बनारस के क्वींस कॉलेज और प्रयागराज के म्यो कॉलेज से भी अध्ययन किया। वकालत की परीक्षा उन्होंने लाहौर से उत्तीर्ण की और वकालत प्रारंभ की। शीघ्र ही उनकी गणना अपने समय के श्रेष्ठ अधिवक्ताओं में होने लगी।

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उनके जीवन में परिवर्तन के चार प्रमुख कारण रहे। प्रथम, उनके पिता भले ही अंग्रेजी शासन की पुलिस सेवा में थे, लेकिन घर का वातावरण भारतीय संस्कृति और परंपराओं से जुड़ा था। इसी कारण कम आयु में ही उनका यज्ञोपवीत संस्कार हुआ और घर में संस्कृत तथा हिंदी का अध्ययन चलता रहा। वे अंग्रेजी और उर्दू के साथ-साथ हिंदी, संस्कृत और गुरुमुखी के भी अच्छे ज्ञाता थे।

दूसरा कारण 1857 की क्रांति से जुड़ा था। उस समय उनके पिता जालंधर में पदस्थ थे। अंग्रेजों के अत्याचार और पुलिस बल में भारतीय जवानों के साथ होने वाले अपमानजनक व्यवहार की अनेक घटनाएँ उन्होंने अपने पिता से सुनी थीं। इससे उनके मन में बचपन से ही स्वत्व और आत्मसम्मान का भाव जागृत हो गया। वे हनुमान चालीसा का नियमित पाठ करते और देश को अंग्रेजों के अत्याचार से मुक्त करने की प्रार्थना करते थे।

तीसरा कारण एक पादरी द्वारा एक भारतीय बालिका के साथ की गई दरिंदगी की घटना बनी। उस समय ऐसी घटनाएँ आम थीं, लेकिन न रिपोर्ट होती थी और न ही कोई कार्रवाई। इस अमानवीय घटना ने उनके मन को भीतर तक झकझोर दिया।

चौथा और अत्यंत महत्वपूर्ण कारण उनकी पत्नी शिवा देवी रहीं। उनका विवाह 21 वर्ष की आयु में हुआ। उनकी पत्नी विदुषी, वैदिक और पतिव्रता थीं। पत्नी के आग्रह पर घर में ‘सत्यार्थ प्रकाश’ पत्रिका आने लगी, जिसका संपादन स्वामी दयानंद सरस्वती करते थे। स्वयं स्वामी श्रद्धानंद ने अपनी आत्मकथा ‘कल्याण मार्ग का पथिक’ में पत्नी के प्रभाव और पादरी की घटना का उल्लेख किया है।

वर्ष 1889 में बरेली में स्वामी दयानंद सरस्वती के प्रवचन सुनकर उनका जीवन पूरी तरह बदल गया। इसके बाद वे आर्य समाज से जुड़ गए और जालंधर लौटकर आर्य समाज के प्रचार-प्रसार में लग गए। वे जालंधर आर्य समाज के अध्यक्ष भी बने।

उनके दो पुत्र हरिश्चंद्र और इंद्रचंद्र तथा दो पुत्रियाँ अमृतकला और वेदकुमारी थीं। एक बार उन्होंने अपनी पुत्री अमृतकला को ईसाई भजन गाते सुना, जिससे वे व्यथित हो उठे। इसी से प्रेरित होकर उन्होंने भारतीय शिक्षा पद्धति पर आधारित विद्यालयों की स्थापना का निर्णय लिया। वर्ष 1901 में उन्होंने देश का पहला गुरुकुल कांगड़ी स्थापित किया।

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उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे गांधीजी को आर्थिक सहायता भी भेजी। इसी काल में वे कांग्रेस से जुड़े और स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय हुए। इसी दौरान उनकी पत्नी का 35 वर्ष की आयु में निधन हो गया। पत्नी के निधन के बाद 24 अप्रैल 1917 को उन्होंने संन्यास ले लिया।

संन्यास के बाद उनकी दो प्राथमिकताएँ थीं—एक, अंग्रेजों से भारत की मुक्ति और दूसरी, सनातन संस्कृति की पुनर्प्रतिष्ठा। केरल के मालाबार क्षेत्र में हिन्दुओं के नरसंहार की सूचना मिलने पर वे डॉ. मुंजे और डॉ. केशव हेडगेवार के साथ वहाँ गए। वे चाहते थे कि कांग्रेस इस हिंसा की निंदा करे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। खिलाफत आंदोलन के विरोध के कारण उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी और राष्ट्रभाव के प्रचार में जुट गए।

बलिदान

मेवाती और मलकान राजपूतों की बड़ी संख्या में घर वापसी कराने से कट्टरपंथी शक्तियाँ बुरी तरह उत्तेजित हो गईं और उनकी हत्या का षड्यंत्र रचने लगीं। 23 दिसंबर 1926 को स्वामी श्रद्धानंद दिल्ली के चांदनी चौक स्थित नया बाजार के अपने आवास पर विश्राम की तैयारी कर रहे थे। तभी अब्दुल रशीद नामक एक युवक उनसे धर्म चर्चा के बहाने मिलने आया। स्वामीजी ने उसे भीतर बुला लिया। भीतर आते ही उसने पिस्तौल निकालकर गोलियाँ चला दीं।

उस समय स्वामी श्रद्धानंद की आयु लगभग सत्तर वर्ष थी। वे अपने नश्वर शरीर को त्यागकर परम ज्योति में विलीन हो गए। यह घटना किसी एक व्यक्ति की उन्मादी कार्रवाई नहीं थी, बल्कि इसके पीछे संगठित शक्तियाँ सक्रिय थीं। स्वामीजी की हत्या से मिशनरी, मुस्लिम लीग और जमात जैसी शक्तियों को राहत मिली।

उनके बलिदान के बाद कट्टरपंथियों का साहस और बढ़ा। देश में ऐसी अनेक घटनाएँ घटित हुईं। भारत का विभाजन भी हुआ, लेकिन यह क्रम आज तक थमा नहीं है। स्वामी श्रद्धानंद का बलिदान आज भी राष्ट्र और समाज के लिए चेतावनी और प्रेरणा दोनों है।