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भारतीय संस्कृति में प्रकृति मानी जाती है जीवन का आधार

आचार्य ललित मुनि

भारतीय संस्कृति में प्रकृति केवल बाहरी दुनिया का एक हिस्सा नहीं है बल्कि जीवन का आधार मानी जाती है। प्राचीन भारतीय चिंतन में प्रकृति को दिव्यता का प्रत्यक्ष स्वरूप माना गया है। वेद हों या उपनिषद, रामायण हों या महाभारत, पुराण हों या स्मृतियाँ, हर ग्रंथ प्रकृति को मानवीय और आध्यात्मिक जीवन का अविभाज्य अंग मानता है। इस दृष्टि में वन जीवन का आश्रय हैं, उपवन देवताओं के स्थान हैं, पशु सहयात्री और परिवार का अंग हैं, और बीज सृष्टि के मूल रहस्य हैं। यह विचार केवल धार्मिक आस्था नहीं है बल्कि मनुष्य और प्रकृति के गहरे जैविक और आध्यात्मिक संबंध का दर्पण है। आज पर्यावरण संकट के बीच भारतीय संस्कृति का यह प्राचीन ज्ञान पहले से कहीं अधिक आवश्यक प्रतीत होता है।

भारतीय संस्कृति में वन का स्थान अत्यंत ऊँचा है। वन केवल पेड़ों का समूह नहीं हैं, वे जीवन की निरंतरता, वर्षा, मिट्टी, हवा और जल का संतुलन बनाए रखते हैं। प्राचीन ऋषि वनों में तपस्या करने जाते थे क्योंकि वे समझते थे कि प्रकृति से दूर होकर ज्ञान का प्रकाश प्राप्त नहीं हो सकता। ऋग्वेद में वनों की महिमा का वर्णन किया गया है।

“वनानां पतयो वृक्षा ध्रुवा धारयन्ति पृथिवीं”
अर्थ: वनों के स्वामी वृक्ष पृथ्वी को स्थिरता प्रदान करते हैं और उसे संभाले रखते हैं।

यह पंक्ति बताती है कि वृक्षों के बिना पृथ्वी की स्थिरता असंभव है। वृक्ष केवल लकड़ी या फल देने वाले साधन नहीं हैं, वे पृथ्वी की धुरी हैं। भारतीय ऋषियों ने यह सत्य अत्यंत पहले समझ लिया था। आज आधुनिक वैज्ञानिक पृथ्वी के पारिस्थितिक संतुलन को जिस तरह व्याख्यायित करते हैं वह वैदिक विचार से पूर्णतः मेल खाता है।

अथर्ववेद में पृथ्वी को माता और वनों को उसकी संतति कहा गया है। यह विचार मानव और प्रकृति के सम्बंध को पारिवारिक भाव देता है और इस संबंध में प्रेम और संरक्षण की भावना जगाता है।

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“पृथिवी माता वनानि सुतानि”
अर्थ: पृथ्वी हमारी माता है और वन उसके पुत्र हैं।

यदि वन पुत्र हैं तो उन्हें नष्ट करना पृथ्वी को पीड़ा देना है। यही कारण है कि प्राचीन भारत में वन विनाश को पाप माना गया। अर्थशास्त्र में वन सुरक्षा के कठोर नियम हैं जिनका उद्देश्य था कि भावी पीढ़ियाँ भी प्रकृति की समृद्धि का लाभ उठा सकें। रामायण में राम वनवास केवल दंड नहीं था। वह प्रकृति का सान्निध्य और आत्मशोधन का मार्ग था। चित्रकूट के वन राम के दुख को समझते हैं और उनका मन शांत करते हैं। यह प्रकृति और मानव के भावनात्मक संबंध का सुंदर उदाहरण है।

महाभारत में वन को शिक्षक कहा गया है। यहाँ एक गहन संदेश मिलता है।

“वनं रक्षति रक्षितः पुरुषः”
अर्थ: मनुष्य यदि वन की रक्षा करे तो वन भी उसकी रक्षा करते हैं।

यह पारस्परिकता भारतीय पर्यावरण दर्शन का सार है। यह वही विचार है जिसे आज पर्यावरण सुरक्षा में मूल सिद्धांत माना जाता है। मनुष्य और वन एक दूसरे के पूरक हैं। यदि वन नष्ट होंगे तो जलवायु, वर्षा, मिट्टी और जीवन का संपूर्ण संतुलन बिगड़ जाएगा।

भारतीय संस्कृति में उपवनों का भी विशेष महत्व है। उपवन यानी देवताओं का निवास स्थान। यहाँ प्रकृति अपने सबसे सुंदर और शांत रूप में प्रकट होती है। ग्रामीण भारत में आज भी उपवन को पवित्र माना जाता है। वेदों में इन्हें तपोवन कहा गया है जहाँ ऋषि ध्यान करते थे। पुराणों में उपवनों को स्वर्ग का अंश कहा गया है।

“उपवने देवानां लीलाभवनं सदा”
अर्थ: उपवन देवताओं का खेल और विश्राम स्थान हैं।

उपवन मनुष्य और प्रकृति के सहअस्तित्व का आदर्श उदाहरण हैं। इन क्षेत्रों में पेड़ काटना या शिकार करना वर्जित था। यही कारण है कि भारत के कई हिस्सों में सैकड़ों वर्षों पुराने पवित्र उपवन आज भी जीवित हैं और दुर्लभ प्रजातियों की रक्षा करते हैं। उपवन केवल प्राकृतिक संरक्षण का साधन नहीं थे बल्कि सामाजिक और आध्यात्मिक जीवन का केंद्र भी थे।

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भारतीय संस्कृति पशुओं के प्रति अद्भुत संवेदना रखती है। पशु उपयोगिता से परे जीवन के सहयात्री माने गए हैं। उन्हें देवताओं का वाहन माना गया और कई पशु स्वयं देव रूप में पूजे गए। अहिंसा का विचार इसी संवेदना पर आधारित है। याज्ञवल्क्य स्मृति ने पशु हिंसा को महापाप कहा है।

“पशु हत्या न कर्तव्या तत् पापं महद् भवेत्”
अर्थ: पशु हत्या नहीं करनी चाहिए क्योंकि यह महापाप है।

महाभारत मनुष्य और पशु के बीच की समानता को अद्भुत रूप से प्रस्तुत करता है।

“सर्वं खल्विदं ब्रह्म पशुश्चात्मा समः”
अर्थ: यह सम्पूर्ण जगत ब्रह्म है और पशु भी उसी आत्मा का स्वरूप हैं।

गीता इस विचार को और विस्तृत करती है जो भारतीय पर्यावरण नैतिकता का हृदय है।

“सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि”
अर्थ: ज्ञानी व्यक्ति प्रत्येक जीव में अपने ही स्वरूप को देखता है और प्रत्येक जीव को अपने समान मानता है।

विष्णु के मत्स्य, कूर्म, वराह और नरसिंह अवतार इस बात का प्रतीक हैं कि पशु जीवन भी दिव्यता का वाहक है। यही कारण है कि भारतीय संस्कृति में पशु संरक्षण केवल कर्तव्य नहीं बल्कि आध्यात्मिक साधना का हिस्सा बन गया।

सृष्टि के रहस्य को समझने में भारतीय संस्कृति बीज को अत्यधिक महत्व देती है। बीज में जीवन की अनंत संभावना छिपी होती है। बीज छोटा होता है पर उसमें विशाल वृक्ष, countless पत्तियाँ और अनगिनत जीवों का आश्रय समाया होता है।

विष्णु पुराण में बीज की इसी अद्भुत क्षमता को सृष्टि के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया गया है।

“न्यग्रोध बीजं यथा संनादति तथैव जगत्”
अर्थ: जैसे छोटे से बरगद के बीज में विशाल वृक्ष छिपा रहता है वैसे ही सम्पूर्ण जगत ब्रह्म से प्रकाशित होता है।

वराह पुराण वृक्षारोपण को पुण्य का कार्य बताता है।

“पीपलं एकं निम्बं एकं रोपयित्वा पुण्यं भवति”
अर्थ: एक पीपल और एक नीम का वृक्ष लगाने से पुण्य मिलता है।

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यह बीज संरक्षण की वह परंपरा है जिसने भारत को कृषि और प्राकृतिक विविधता में विश्व का अग्रणी बनाया। वृक्षायुर्वेद जैसा ग्रंथ बीज विज्ञान की विस्तृत जानकारी देता है जिसमें मिट्टी की जाँच, बीज भंडारण और रोग निवारण के नियम दिए गए हैं।

इन सभी विचारों की जड़ में भारतीय आध्यात्मिक दृष्टि है जो प्रकृति में ईश्वर का साक्षात्कार करती है। ईशावास्य उपनिषद इसका सर्वोत्तम सार प्रस्तुत करता है।

“ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्”
अर्थ: यह सम्पूर्ण जगत ईश्वर से व्याप्त है।

यह विचार मानव को प्रकृति का स्वामी नहीं बल्कि संरक्षक बनाता है। छांदोग्य उपनिषद में जल से पौधों, पौधों से भोजन और भोजन से प्राणियों की उत्पत्ति बताई गई है जो जीवन चक्र का वैज्ञानिक और आध्यात्मिक दोनों रूपों में वर्णन करता है।

आज पर्यावरण पृथ्वी के सबसे बड़े संकटों में से एक है। वन कट रहे हैं, उपवन विलुप्त हो रहे हैं, पशु प्रजातियाँ समाप्त हो रही हैं और बीज विविधता खो रही है। ऐसे समय में भारतीय संस्कृति का प्राचीन पर्यावरण दर्शन हमें दिशा दिखाता है। यह बताता है कि प्रकृति से प्रेम करना जीवन से प्रेम करना है। वन हमारी साँस हैं, पशु हमारे साथी, उपवन हमारी शांति, और बीज हमारा भविष्य।

भारतीय संस्कृति मनुष्य को यह संदेश देती है कि वह प्रकृति का शोषक नहीं बल्कि उसका रक्षक है। यदि हम इन प्राचीन मूल्यों को अपनाएँ तो पृथ्वी फिर से हरी भरी हो सकती है। यह दर्शन न केवल धार्मिक है और न ही पुरातन बल्कि आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है। प्रकृति और मनुष्य का संबंध एक साझेदारी है जिसमें दोनों का कल्याण एक दूसरे पर निर्भर है। यही वह संदेश है जिसे भारतीय संस्कृति हजारों वर्षों से देती आई है और जो आज भी उतना ही सत्य है जितना वेदों के समय में था।