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आपातकाल से बदलाव तक: बालासाहब देवरस की दूरदृष्टि और संघ का मार्ग

निरंतर हमलों के बीच भी, यदि अपनी शताब्दी यात्रा में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वरूप और कार्य में निरंतर विस्तार हुआ है, तो उसका आधार संघ की समयानुकूल व्यवहारिक कार्यशैली है। तृतीय सरसंघचालक बालासाहब देवरस भी संघ की कार्यशैली में ऐसे ही व्यवहारिक विस्तार देने के लिये जाने जाते हैं। उनकी प्रत्येक भोपाल यात्रा में संघ कार्य में विस्तार हुआ और कार्यकर्ताओं में नया उत्साह आया।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना 1925 में हुई और लगभग डेढ़ वर्ष बाद नियमित शाखाएँ आरंभ हुईं। देवरसजी प्रारंभिक शाखा में ही स्वयंसेवक बने थे। तब उनकी आयु मात्र ग्यारह वर्ष थी। इस शाखा का शुभारंभ संघ के संस्थापक डॉक्टर हेडगेवार ने स्वयं किया था। इस प्रथम शाखा में बालासाहब के साथ केशवराव वकील, त्र्यंबक झिलेदार, अल्हाड़ अंबेडकर, बापुराव दिघोकर, नरहरि पारखी, बाली यशकुण्यवर, माधवराव मुले और एकनाथ रानाडे भी थे।

बालासाहब बचपन से बहुत कुशाग्र और तीक्ष्ण बुद्धि थे। विषय को सुनकर प्रस्तुतिकरण करने की उनमें अद्भुत क्षमता थी। इसलिये वे इस टोली के स्वभाविक समन्वयक के रूप में उभरे। डॉक्टरजी स्वयं इस शाखा के शिक्षक और संचालक थे। इस टोली की पूरी शिक्षा डॉक्टरजी के माध्यम से ही हुई। देवरसजी के विषय प्रस्तुतिकरण में भी डॉक्टरजी की झलक साफ दिखाई देती थी। समय के साथ संघ की संकल्पना, शिक्षा और डॉक्टरजी के मार्गदर्शन से वे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने संघ को माध्यम बनाकर अपना पूरा जीवन राष्ट्र और संस्कृति की सेवा के लिये समर्पित कर दिया।

देवरसजी द्वारा प्रस्तुत विषयों में गहराई और व्यापकता विशिष्ट थी। श्रोता वर्ग एकाग्रता से उनसे बंध जाता था। स्वयंसेवक हों या समाज के अन्य प्रबुद्ध जन, सभी एकाग्र होकर उनका बौद्धिक सुनते थे। उन्होंने प्रचारक से लेकर सरसंघचालक तक संघ के सभी दायित्वों का निर्वहन किया। उन्होंने भारत के प्रत्येक प्रांत और क्षेत्र की यात्रा करके कार्य को विस्तार दिया। वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तीसरे सरसंघचालक थे।

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द्वितीय सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर उपाख्य गुरुजी का निधन 5 जून 1973 को हुआ। संघ की परंपरा अनुसार, गुरुजी अपने जीवनकाल में ही पत्र लिखकर देवरसजी को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर चुके थे। उनकी अंतिम इच्छा के अनुरूप देवरसजी ने 6 जून 1973 को सरसंघचालक का दायित्व संभाला। तब उनकी आयु 58 वर्ष थी। मधुमेह ने उन्हें प्रभावित कर रखा था, फिर भी उन्होंने अपने स्वास्थ्य की परवाह नहीं की और देशव्यापी यात्राएँ करते रहे।

उन्हीं दिनों देश में महंगाई विरोधी आंदोलन आरंभ हुआ था, जिसका नेतृत्व जयप्रकाश नारायण कर रहे थे। जनसाधारण को राहत दिलाने के उद्देश्य से यह आंदोलन तेजी से फैल रहा था और संघ के कार्यकर्ता इसमें बढ़-चढ़कर भाग ले रहे थे। देवरसजी ने व्यापक यात्राएँ कीं और राष्ट्रहित में समाज को एकजुट होने का आव्हान किया। इन यात्राओं से संघ के बारे में विरोधियों द्वारा फैलाई गई भ्रांतियाँ कम हुईं और कार्यकर्ताओं में उत्साह बढ़ा।

महंगाई विरोधी आंदोलन में संघ कार्यकर्ता एक बड़ी शक्ति बनकर उभरे, और सरकार भी इससे अवगत थी। देवरसजी को यह आभास हो गया था कि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी कोई कठोर निर्णय ले सकती हैं। उन्होंने संघ के प्रमुख अधिकारियों को पहले ही सावधान कर दिया था। इसके बाद आपातकाल लगा। संघ पर प्रतिबंध हुआ और संघ कार्यकर्ताओं पर सर्वाधिक दमन हुआ। लगभग एक लाख स्वयंसेवक गिरफ्तार हुए, फिर भी देवरसजी की दूरदृष्टि के कारण संघ की सक्रियता बनी रही। आपातकाल की पूरी अवधि में आंदोलन और गिरफ्तारियाँ जारी रहीं। आपातकाल हटते ही संघ पुनः सक्रिय हो गया।

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कुछ परंपराओं को व्यवहारिक बनाया

बालासाहब देवरस ने संघ की कुछ परंपराओं को समयानुकूल व्यवहारिक रूप दिया। सबसे पहले उन्होंने “परम पूजनीय” संबोधन को स्पष्ट किया कि यह संबोधन व्यक्ति के लिये नहीं, बल्कि “सरसंघचालक” के पद के लिये होना चाहिए।

उन्होंने बौद्धिक परंपरा को भी संवाद आधारित बनाया। उनका मानना था कि कार्यकर्ताओं के मन में उठने वाले प्रश्नों का समाधान होना आवश्यक है। इसलिये बौद्धिक कार्यक्रमों में संवाद और शंका समाधान के लिये समय निर्धारित किया जाने लगा।

सरसंघचालक के उत्तराधिकार की पारंपरिक प्रक्रिया में भी उन्होंने परिवर्तन किया। यह परंपरा थी कि सरसंघचालक अपने उत्तराधिकारी का नाम पत्र में लिखकर छोड़ते थे, जिसे उनके निधन के बाद खोला जाता था। लेकिन देवरसजी ने अपने जीवनकाल में ही रज्जू भैया को दायित्व सौंप दिया। रज्जू भैया और सुदर्शनजी ने भी आगे इसी परंपरा को अपनाया और अपने उत्तराधिकारियों को जीवनकाल में ही दायित्व सौंपा।

देवरसजी की कुछ प्रमुख भोपाल यात्राएँ

अपने देशव्यापी दौरे में देवरसजी अनेक बार भोपाल आए—सरसंघचालक के रूप में, सरकार्यवाह के रूप में और सहसरकार्यवाह के रूप में भी। उनकी एक प्रमुख यात्रा सरस्वती शिशु मंदिरों के विद्यार्थियों के समागम के लिए थी। यह आयोजन तात्या टोपे नगर के स्टेडियम में हुआ, जिसमें लगभग चार हजार से अधिक बच्चे और बड़ी संख्या में प्रबुद्ध नागरिक उपस्थित थे।

इस अवसर पर उन्होंने हिंदुत्व और सामाजिक स्वरूप की व्याख्या की। वे आधुनिकता के समर्थक थे, लेकिन अपने स्वत्व और आत्मगौरव के साथ। उनका मानना था कि व्यक्ति का स्वत्व ही उसकी जड़ है, और जड़ मजबूत होने पर वह आकाश जितनी ऊँचाई छू सकता है। उनके संबोधन में बच्चों के लिये एक संदेश था—सिद्धांतों पर अडिग रहकर समय के अनुरूप व्यवहारिक बनें। वहीं प्रबुद्ध जनों से उन्होंने समाज की भ्रांत धारणाओं को दूर करने और आने वाली पीढ़ी को सही मार्ग दिखाने का आग्रह किया।

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उनकी एक यात्रा भारतीय मजदूर संघ और विद्यार्थी परिषद भवन के भूमि पूजन के लिए थी। इन दोनों संस्थाओं की प्रकृति भिन्न होने पर भी देवरसजी का संबोधन सभी के लिए प्रेरक था। उन्होंने मीडिया से भी भेंट की और कई पत्रकारों ने उनके साथ भोजन किया। उनका तर्कपूर्ण और प्रभावी संवाद सभी पर गहरी छाप छोड़ता था।

संक्षिप्त जीवन परिचय

बालासाहब देवरस का पूरा नाम मधुकर दत्तात्रेय देवरस था। उनका परिवार मूलतः आंध्र प्रदेश का था, लेकिन पिता दत्तात्रेय जी सरकारी सेवा के कारण मध्यप्रदेश के बालाघाट में थे। बालासाहब का जन्म बालाघाट जिले के करंजा में हुआ। उनकी जन्मतिथि पौष शुक्ल पक्ष पंचमी, विक्रम संवत 1972 तथा अंग्रेजी तिथि 11 दिसंबर 1915 थी।

उनकी शिक्षा नागपुर में हुई। 1931 में उन्होंने मैट्रिक उत्तीर्ण किया और बाद में वकालत की पढ़ाई पूरी की। वे बाल स्वयंसेवक थे और पढ़ाई के बाद पूर्णकालिक प्रचारक बने। पहला दायित्व उन्हें बंगाल प्रांत का मिला। 1946 में वे सहसरकार्यवाह बने और 1965 में सरकार्यवाह। 6 जून 1973 को वे सरसंघचालक बने।

आपातकाल के दौरान उन्हें गिरफ्तार कर यरवदा जेल में रखा गया। वे 20 महीनों से अधिक समय तक जेल में रहे। उनके कार्यकाल में 1992 में संघ पर दूसरी बार प्रतिबंध लगा, जो छह महीनों तक रहा। 1994 में स्वास्थ्य कारणों से उन्होंने पद छोड़ दिया और रज्जू भैया को दायित्व सौंपा। 17 जून 1996 को उन्होंने देह त्याग किया।