futuredछत्तीसगढ

उस पार चले गए चले गए – काव्य पुरूष बच्चन

प्रेम, यौवन, सौंदर्य, जीवन, जिजीविषा, मधुशाला, मधुबाला, हाला, प्याला के लोकप्रिय कवि डॉ. हरिवंश राय बच्चन उत्ताल तरंगों से उस पार परात्पर प्रभु का निमंत्रण पाकर चले गए। वे कभी तन्मय होकर गाते थे, तल्लीन होकर गुनगुनाते थे— “इस पार प्रिये तुम हो, मधु है, उस पार न जाने क्या होगा?” स्वयं पूछते कहते— “तीर पर कैसे रुकूं? आज लहरों में निमंत्रण।” वृद्धावस्था की जर्जर देहली पर खड़े होकर कहा— “अब मैं कविता नहीं लिखूंगा।” तो वियोगी कवि ने संस्मरण में कुछ भूलने और कुछ याद करने के लिए कलम उठाई, तो सुंदर रचना का सौंध बन गया।

अंग्रेजी के प्राध्यापक, जिन्होंने अंग्रेजी के कवि पर शोध किया, उन्होंने हिंदी कविता को मधुशाला का हालावाद दिया। छायावादोत्तर काव्य-सृजन में नए युग का प्रारंभ तथा निर्माण किया, इसलिए वे काव्य पुरुष हैं।

प्राणों का पुष्प काँटों में खिला और शैया में मुरझा गया। जरा-रोग-जर्जर कवि ने कभी याचना की थी— “हे कुंभकार, मेरी मिट्टी को मत हैरान करो।” और काल पुरुष ने विनय-पत्रिका पर सही कर दी। मिट्टी की काया अब कभी हैरान नहीं होगी। अब शांति मिल गई। जीवन भर सब कुछ मिलता है, एक शांति ही नहीं मिलती—कंगाल, कुबेर, कवि, कलाकार, काले, गोरे, भूखे, प्यासे सब शांति पाने के लिए तरसते हैं। परंतु वह मृत्यु के पूर्व नहीं मिलती—संत, संन्यासी, सत्यकाम, निष्काम महापुरुष अपवाद होते हैं।

See also  संविधान निर्माण में छत्तीसगढ़ का योगदान उल्लेखनीय : विधानसभा अध्यक्ष डॉ. रमन सिंह

मधुशाला-काव्य की चरम सीमा ‘मिलन यामिनी’ है। जिस तन्मयता, मस्ती को लेकर मधुशाला का सृजन हुआ, उस अनुभूति को मिलन यामिनी में अनिर्वचनीय आनंद का रूप दे दिया। सुधि में संचित थी सांझ—जब तुम मिलो नतशिर, सित-रेशमी सारी में, गुलमोहर तले। प्रेयसी अनुनय कर रही है—
“प्रिय, शेष बहुत है रात, अभी मत जाओ। प्रिय, मौन खड़े जल-जात… अभी मत जाओ।”

रूपक अलंकार के तीन भेद—सांग रूपक, निरंग रूपक व परंपरित रूपक होते हैं। सांग रूपक बच्चन के काव्य की विशेषता है। नारी के रूप की लालसा में हलाहल पान इस तरह है—

“जगत् घट को विष से कर पूर्ण, किया जिन हाथों ने तैयार।
लगाया उसके मुख पर नारि! तुम्हारे अधरों का मधु-सार।।
नहीं तो कब का देता फोड़ पुरुष विष-घट वह ठोकर मार।
इसी मधु का लेने को स्वाद, हलाहल पी जाता संसार।।“

किंतु शाश्वत सत्य—तो मृत्यु को अपनी मधुशाला, मधुबाला, हाला, प्याला के रूपक में बाँध लिया। इतना सच, कटु, किंतु शाश्वत—

See also  इंफाल में आयोजित 15वें मणिपुर अंतरराष्ट्रीय पोलो टूर्नामेंट में मिली ऐतिहासिक उपलब्धि, मुख्यमंत्री श्री विष्णु देव साय ने दी बधाई

“क्षीण, शुद्र, क्षणभंगुर, दुर्बल मानव मिट्टी का प्याला।
भरी हुई जिसके अंदर कटु मधु जीवन की हाला।
मृत्यु बनी है निर्दया साकी, अपने शत-शत कर फैला।
काल प्रबल है पीने वाला, यह संसृति है मधुशाला॥”

बिलासा की नगरी (बिलासपुर) में वर्तमान प्रौढ़ तथा वृद्ध जनों ने बच्चन जी को गाते तथा काव्य-पठन करते हुए देखा-सुना है। महोदयशी महादेवी वर्मा, डॉ. रामकुमार वर्मा, डॉ. चंद्रप्रकाश वर्मा, वीरेन्द्र मिश्र, तथा नीरज को देखा-सुना है। अपने प्रिय कवि तथा लोकप्रिय आदर्श को देखने-सुनने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। साहित्यिक कार्यक्रम में नारेबाजी ‘नीकी पै फीकी’ अनुचित अवसर की बात है। कवियों के साथ अशालीन व्यवहार कॉलेज के नादान तरुणों का कुंठाजनित प्रतिशोध है।
एस.बी.आर. में बच्चन जी, सी.एम.डी. में नागार्जुन, तथा जनता द्वारा अज्ञेय के साथ कभी ऐसा ही हुआ था।

बच्चन जी कवि सम्मेलनों के अत्यंत लोकप्रिय कवि थे। उनका अपना व्यक्तित्व, अपनी शैली और मौलिक गाने-कहने की विशेषता थी। नये कवियों को अपनी ही कविता याद नहीं रहती, पढ़ते समय वे हकलाते हैं। उन्हें बच्चन, नीरज से पाठ सीखना चाहिए।

See also  मुख्यमंत्री नगरोत्थान योजना: 429 करोड़ से अधिक की स्वीकृतियां, छत्तीसगढ़ के 14 नगर निगमों में तेजी से बदल रही शहरों की तस्वीर

छायावाद के अंत में, जब काव्य-जगत में शून्यता आने लगी थी, तब बच्चन ने मधुशाला प्रस्तुत की। मधुशाला की मधुरता, मदिरता, मांसलता, मसृणता ने पाठकों में एक तूफान, एक उफान ला दिया। जीवन में जिंदादिली की कमी मनुष्य को मनहूस, मुर्दा बना देती है। हमारे यहाँ उत्सव, पर्व, उल्लास, हास-परिहास, नव-मधुमास—साहित्यिक काव्यानंद बारंबार लाते हैं। मधुशाला के कवि का दर्शन—सरल, सहज, भारी-भरकम, गुरु-गंभीर नहीं।

साहित्य-समालोचकों ने बच्चन को हाशिये पर रखने की कोशिश की, वैसे भी साहित्यकारों में अमर्ण का भाव प्रबल होता जा रहा है। आधुनिक साहित्य इसी कारण अलग-अलग खेमों में बँट गया है। सब ताड़ के झाड़ की तरह अकेले खड़े उपवन की शोभा बढ़ा रहे हैं।

भेंट-स्वरूप प्राप्त पुस्तक पर लेखक को धन्यवाद का पोस्टकार्ड भी न भेजना, पुस्तकें न खरीदकर मुफ्त में माँगना—यह प्रवृत्ति हिंदी साहित्य के लिए नुकसानदेह रही। इन मुफ्तखोरों की डलहौज़ी नीति से कब मुक्ति मिलेगी?

बच्चन जी सामान्य पाठक को पत्र लिखकर तुरंत उत्तर देते थे। अनेक पत्रों में उनकी अनुगूँज मुझे प्रतिक्षण प्रमुदित करती है। अक्षर का आराधक अमर रहेगा — यह असत्य नहीं।

– बसंत राघव