मारवाड़ की मिट्टी से जन्मा वह शेर जिसने औरंगजेब की नींद उड़ा दी थी

भारतीय इतिहास में कई ऐसे नाम हैं जो कथा नहीं, बल्कि किंवदंती की तरह सुनाई देते हैं। समय बीतता है, राज बदलते हैं, साम्राज्य ढहते हैं, लेकिन ऐसे योद्धाओं की गाथाएँ पीढ़ियों तक कायम रहती हैं। राजस्थान के धोरों में जन्मा एक ऐसा ही महानायक था वीर दुर्गादास राठौड़। उनका जीवन केवल साहस की कहानी नहीं, बल्कि स्वामिभक्ति, न्याय और अदम्य इच्छा शक्ति का अद्भुत संगम है और आज, जब 22 नवंबर की तारीख आती है, तो मारवाड़ की हवा में मानो उस वीर की तलवार की चमक अब भी दिखाई देती है।
दुर्गादास का जन्म 1638 में सालवा गांव में हुआ। पिता आसकरण राठौड़ मारवाड़ नरेश जसवंत सिंह के विश्वसनीय मंत्री थे और मां नेतकुंवर धार्मिक स्वभाव की थीं। बाल्यकाल में जो संस्कार बालक को मिले, वही आगे चलकर उसके चरित्र की जड़ें बने। दुर्गादास का बचपन लूणावा गांव में बीता। उस उम्र में भी उनमें न्याय और आत्मसम्मान की लौ तीव्र थी। एक घटना जिसे इतिहास ने याद रखा, बताती है कि इस किशोर में भविष्य का महान योद्धा कैसे आकार ले रहा था।
एक दिन जसवंत सिंह के ऊंट चरवाहों के साथ दुर्गादास के खेत में चरने लगे। चरवाहे को चेतावनी भी कारगर नहीं हुई। दुर्गादास ने बिना झिझक तलवार निकाली और ऊंट की गर्दन उड़ा दी। जसवंत सिंह स्वयं इस घटना की जांच के लिए आए। उन्होंने कारण पूछा तो दुर्गादास ने निर्भय होकर कहा कि कोई भी राजा इतना बड़ा नहीं कि एक गरीब किसान की मेहनत को रौंद दे। यह जवाब केवल साहस नहीं था, बल्कि उस न्यायप्रियता का संकेत था, जो आगे चलकर मारवाड़ की रक्षा की रीढ़ बनेगी। जसवंत सिंह इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने दुर्गादास को अपनी सेना में शामिल कर लिया।
दुर्गादास के जीवन का असली परीक्षा काल तब शुरू हुआ जब 1678 में जसवंत सिंह की मृत्यु हो गई। औरंगजेब सदैव से मारवाड़ पर अपना शासन स्थापित करना चाहता था। जसवंत सिंह की मौत उसके लिए स्वर्ण अवसर थी। उसने मारवाड़ को खालसा घोषित कर दिया और गद्दी पर इंद्र सिंह को बिठा दिया। उधर जसवंत सिंह की दोनों रानियां गर्भवती थीं। औरंगजेब प्रतीक्षा करता रहा कि कहीं कोई पुत्र वारिस न जन्मे। लेकिन नियति ने एक नया अध्याय लिखा। दिल्ली में एक रानी ने पुत्र को जन्म दिया। यही बालक आगे चलकर अजीत सिंह कहलाया।
औरंगजेब ने तुरंत उसे अपने हरम में भेजने की योजना बनाई। उसकी मंशा साफ थी। यदि इस बालक को मुस्लिम बनाकर हरम में रखा जाए तो राठौड़ वंश स्वतः समाप्त माना जाएगा और मारवाड़ पर मुगल शासन स्थायी रूप से स्थापित हो जाएगा। लेकिन औरंगजेब की यह चाल दुर्गादास की निगाहों से नहीं बच सकी।
यहीं से इतिहास के पन्नों में वह घटना दर्ज हुई जिसे राजपूत शौर्य का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण माना जाता है। दुर्गादास ने 300 राजपूतों के साथ अजीत सिंह को दिल्ली से बचाने की योजना बनाई। धाय मां गोरा धाय ने असाधारण बलिदान दिया। उसने अपने पुत्र को अजीत सिंह की जगह रख दिया ताकि दुश्मन भ्रमित हो जाए। फिर रानियों को पुरुष वेश पहनाकर दुर्गादास दिल्ली की गलियों से निकले और मुगल सैनिकों से भिड़ गए। तलवारें टकराईं, रक्त बहा, औरंगजेब की राजधानी युद्धभूमि बन गई। 300 राजपूतों में से केवल 7 बच पाए, लेकिन दुर्गादास ने अजीत सिंह को सुरक्षित निकाल लिया। यह संघर्ष केवल एक युद्ध नहीं था; यह उस अटूट प्रतिज्ञा का प्रतीक था जो राठौड़ों ने अपनी मातृभूमि और अपने स्वामी के प्रति निभाई।
1679 से 1707 तक के तीन दशकों में दुर्गादास ने जो युद्ध लड़े, उनसे मारवाड़ के इतिहास में नया युग शुरू हुआ। औरंगजेब बार-बार सेना भेजता रहा, लेकिन दुर्गादास उसकी पकड़ से दूर रहे। उन्होंने अजीत सिंह को मेवाड़ के जंगलों, अरावली की गुफाओं और सिरोही के दुर्गम इलाकों में सुरक्षित रखा। वे कभी खुले युद्ध में उतरे, कभी छापामार पद्धति से मुगलों को धूल चटाई। वे मुगल काफिलों पर धावा बोलते, हथियार और खजाना छीनते, और फिर रेगिस्तानी पवन बनकर अदृश्य हो जाते। उनका यह संघर्ष एक योद्धा नहीं, बल्कि पूरे मारवाड़ की आत्मा का प्रतिरोध था।
इस दौरान कूटनीति भी दुर्गादास का सबसे बड़ा हथियार बनी। उन्होंने मेवाड़ के राणा राज सिंह से गठबंधन किया। शहजादा अकबर ने जब अपने पिता के खिलाफ बगावत की, तब दुर्गादास ने उसे शरण दी और नाडोल में बादशाह घोषित कर दिया। इस कदम से औरंगजेब बुरी तरह चिंतित हो गया। अकबर बाद में फारस भाग गया, लेकिन उसके बच्चे दुर्गादास की जिम्मेदारी बने रहे। औरंगजेब ने जब अपने पोते वापस मांगे, तब दुर्गादास ने उन्हें लौटा दिया, लेकिन मारवाड़ की गद्दी देने से इनकार कर दिया। यह उनके चरित्र की अद्वितीय विशालता और राजनीतिक समझ का परिचायक था। वे जानते थे कि लड़ाई केवल हथियार से नहीं जीती जाती; नीति और नैतिकता का खेल भी उतना ही निर्णायक होता है।
1707 में औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुगल साम्राज्य अस्थिर हो गया। दुर्गादास ने यह अवसर पहचाना और जोधपुर पर दोबारा अधिकार स्थापित किया। अजीत सिंह को गद्दी पर बैठाया गया, मंदिर पुनर्निर्मित हुए, और मारवाड़ ने अपनी स्वतंत्र सांस ली। यह विजय केवल सैन्य सफलता नहीं थी, बल्कि एक ऐसे संघर्ष का परिणाम थी जिसमें तीन दशक तक दृढ़ता, त्याग और धैर्य की परीक्षा होती रही।
लेकिन दुर्गादास का जीवन हमेशा सम्मान और सुख से नहीं भरा रहा। अजीत सिंह, जो उनके लिए पुत्र समान था, सत्ता के नशे में आकर उन्हीं का विरोधी बन बैठा। ईर्ष्या ने उसे इतना अंधा कर दिया कि दुर्गादास जैसे महावीर को राज्य से बाहर कर दिया गया। यह वह क्षण था जो किसी भी योद्धा के लिए सबसे बड़ा घाव हो सकता है। लेकिन दुर्गादास ने शिकायत नहीं की। वे मेवाड़ और सादड़ी पहुंचे, फिर उज्जैन जाकर महाकाल की शरण ले ली। उन्होंने अपने शेष जीवन में किसी प्रकार की कटुता नहीं पालकर यह सिद्ध किया कि सच्चा वीर वही है जो परिस्थितियों के सामने झुकता नहीं, बल्कि अपने चरित्र का बल बनाए रखता है।
22 नवंबर 1718 को 81 वर्ष की आयु में शिप्रा नदी के तट पर दुर्गादास ने देह त्यागी। आज भी चक्रतीर्थ पर उनकी लाल पत्थर की छतरी खड़ी है, जो आने वाली पीढ़ियों को यह याद दिलाती है कि इतिहास में सम्मान बल से नहीं, आचरण से मिलता है। दुर्गादास का जीवन हमें यह समझाता है कि राष्ट्र और कर्तव्य के प्रति समर्पण किसी भी युग में सर्वोच्च मूल्य रखते हैं।
राजस्थान में आज भी एक दोहा सुनाई देता है—
“माय एड़ा पूत जण, जेहड़ा दुर्गादास।
बांध मुंडासे राखियो, बिन थांबे आकास।”
अर्थात, ऐसी मां धन्य है जिसने दुर्गादास जैसा पुत्र जन्मा, जिसने बिना खंभे के आकाश को थाम लिया।
दुर्गादास राठौड़ केवल एक योद्धा नहीं थे। वे कर्तव्य के प्रतीक थे, स्वामिभक्ति का उदाहरण थे, और इतिहास में उन दुर्लभ पुरुषों में से एक थे जिनके लिए मृत्यु भी गौरव का वरण करती है। मुगल साम्राज्य की कठोर नीतियों के सामने उन्होंने जिस साहस से संघर्ष किया, वह भारत की स्वतंत्रता, अस्मिता और स्वाभिमान की अनंत गाथाओं में सदैव अमर रहेगा। उनकी पुण्यतिथि पर उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि।

