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फ़ैलती मधुमेह की महामारी और जीने की चुनौतियाँ

आचार्य ललित मुनि

सुबह की पहली किरण जब कमरे में झांकती है, तो अरविंद की आंखें खुल जाती हैं। दिल्ली के एक छोटे से अपार्टमेंट में रहने वाले यह 35 वर्षीय सॉफ्टवेयर इंजीनियर हर सुबह इंसुलिन का इंजेक्शन लगाते हैं, नाश्ते में सावधानी से चुने गए अनाज को चबाते हैं और मन ही मन प्रार्थना करते हैं कि आज का दिन बिना किसी उतार-चढ़ाव के बीते। अरविंद टाइप 2 मधुमेह के मरीज हैं। उनकी कहानी भारत की उन करोड़ों कहानियों में से एक है, जो हर साल 14 नवंबर को मनाए जाने वाले विश्व मधुमेह दिवस पर सुनाई देती हैं। यह दिन, जो फ्रेडरिक बैंटिंग की जयंती पर मनाया जाता है, वह वैज्ञानिक जिन्होंने इंसुलिन की खोज की थी। यह आलेख  न केवल आंकड़ों की कठोर सच्चाई दिखाता है, बल्कि उन अनगिनत चेहरों की झलक भी देता है जो इस बीमारी से हर दिन जूझते हैं।

2025 में विश्व मधुमेह दिवस की थीम “मधुमेह और कल्याण” है। इसका उद्देश्य है यह समझना कि मधुमेह केवल शरीर की बीमारी नहीं, बल्कि एक सामाजिक और मानसिक चुनौती भी है। यह विशेष रूप से कार्यस्थल पर मधुमेह से जूझ रहे लोगों की दिक्कतों पर ध्यान केंद्रित करता है। कार्यस्थल की व्यस्तता, तनाव, लंबा कार्य समय और असंतुलित जीवनशैली मधुमेह को बढ़ावा देने वाले प्रमुख कारक बन गए हैं। आज जब दुनिया में हर नौवां व्यक्ति किसी न किसी रूप में इस बीमारी से प्रभावित है, तब यह दिन सिर्फ जागरूकता का नहीं, बल्कि आत्मचिंतन का भी अवसर बन गया है।

अंतरराष्ट्रीय मधुमेह महासंघ (IDF) के अनुसार, 2024 में दुनिया भर में 589 मिलियन वयस्क (20 से 79 वर्ष आयु वर्ग में) मधुमेह से पीड़ित थे, यानी हर नौवां व्यक्ति। यह संख्या 2050 तक बढ़कर 853 मिलियन तक पहुंच सकती है। हर नौ सेकंड में मधुमेह या उसकी जटिलताओं से एक व्यक्ति की मृत्यु हो रही है, और 2024 में यह संख्या 3.4 मिलियन तक पहुंच गई थी। चिंताजनक तथ्य यह है कि इन मरीजों में से लगभग 240 मिलियन लोग ऐसे हैं जिन्हें अभी तक पता भी नहीं कि उन्हें यह बीमारी है। इसका सबसे बड़ा असर निम्न और मध्यम आय वाले देशों पर पड़ रहा है, जहां स्वास्थ्य सेवाओं की पहुंच सीमित है और जागरूकता का स्तर कम।

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यह बीमारी न केवल लोगों की सेहत छीन रही है, बल्कि वैश्विक अर्थव्यवस्था पर भी भारी बोझ डाल रही है। आज मधुमेह पर स्वास्थ्य खर्च 1 ट्रिलियन डॉलर से अधिक हो चुका है। पिछले सत्रह वर्षों में इसमें 338% की वृद्धि हुई है। कार्यस्थलों पर इसका सीधा असर दिखाई देता है: उत्पादकता घटती है, अनुपस्थिति बढ़ती है, और कर्मचारियों के मनोबल पर गहरा असर पड़ता है। WHO के अनुसार, दुनिया में 430 मिलियन कामकाजी उम्र के लोग इस बीमारी से प्रभावित हैं, जिनमें से अधिकांश को पर्याप्त उपचार नहीं मिल रहा।

भारत की स्थिति इससे भी अधिक चिंताजनक है। अंतरराष्ट्रीय मधुमेह महासंघ के 2025 एटलस के अनुसार, भारत में 89.8 मिलियन वयस्क मधुमेह से पीड़ित हैं, जो कुल आबादी का लगभग 10.5% है। इनमें से करीब 43% को अपने रोग की जानकारी तक नहीं। शहरी इलाकों में प्रचलन दर 14.2% है, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में यह 8.3% तक पहुंच चुकी है। वैज्ञानिकों का मानना है कि भारतीय आबादी आनुवंशिक रूप से अधिक संवेदनशील है। जिसे “एशियन इंडियन फेनोटाइप” कहा जाता है। इस कारण भारतीय कम उम्र में ही इंसुलिन प्रतिरोध विकसित कर लेते हैं।

शहरीकरण, तनावपूर्ण जीवनशैली, असंतुलित आहार और शारीरिक निष्क्रियता ने इस बीमारी को और गहरा कर दिया है। महामारी के बाद मोटापा, उच्च रक्तचाप और मानसिक तनाव के मामले बढ़े हैं, जो मधुमेह के प्रमुख कारणों में शामिल हैं। भारत में इसे “साइलेंट महामारी” कहा जा सकता है, जो धीरे-धीरे हर घर में दस्तक दे रही है। ग्रामीण इलाकों में इसकी मार और गहरी है, जहां स्वास्थ्य सुविधाएं सीमित हैं और एक मरीज के इलाज पर परिवार की सालों की बचत खत्म हो जाती है।

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कार्यस्थल पर मधुमेह का असर और गहरा है। कई बार कर्मचारी बीमारी को छिपाने को मजबूर होते हैं क्योंकि उन्हें भेदभाव या सहानुभूति के नाम पर अवसरों से वंचित किए जाने का डर होता है। एक सर्वे के मुताबिक, 32% प्रभावित कर्मचारी नौकरी छोड़ने पर विचार करते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि उनका स्वास्थ्य करियर की प्रगति में बाधा बनेगा। भारत में जहां लंबे कार्य घंटे सामान्य बात है, वहां यह समस्या और जटिल हो जाती है। नियोक्ताओं द्वारा लचीले कार्य समय, नियमित स्वास्थ्य जांच और मानसिक समर्थन जैसे कदम उठाए जाएं तो यह बोझ कुछ कम हो सकता है।

फिर भी, इस अंधेरे में उम्मीद की किरणें हैं। शोध बताते हैं कि टाइप 2 मधुमेह के 58% मामलों को केवल स्वस्थ जीवनशैली से रोका जा सकता है। नियमित व्यायाम, संतुलित आहार और समय-समय पर जांच करवाना इसके खिलाफ सबसे मजबूत रक्षा कवच है। भारत सरकार ने “नेशनल प्रोग्राम फॉर प्रिवेंशन एंड कंट्रोल ऑफ कैंसर, डायबिटीज, कार्डियोवस्कुलर डिजीज एंड स्ट्रोक” (NPCDCS) जैसी पहल शुरू की है, जिसके तहत लाखों लोगों की स्क्रीनिंग की जा रही है। WHO का 80-80-80 टारगेट भी इसी दिशा में एक वैश्विक प्रयास है, 80% लोगों का निदान, 80% का नियंत्रण और 80% जटिलता प्रबंधन।

लेकिन समस्या केवल चिकित्सा तक सीमित नहीं है। यह सामाजिक और मनोवैज्ञानिक स्तर पर भी गहराई से जुड़ी हुई है। भारत में विवाह, रोजगार और सामाजिक संबंधों में मधुमेह पीड़ितों को अक्सर कलंक झेलना पड़ता है। अरविंद जैसे कई युवाओं को शादी के प्रस्ताव ठुकरा दिए जाते हैं क्योंकि “मधुमेह वाला लड़का या लड़की बोझ बन जाएगी।” यह सोच न केवल व्यक्ति को बल्कि समाज को भी कमजोर करती है। वहीं दूसरी ओर, कुछ उदाहरण प्रेरक भी हैं, जैसे अहमदाबाद की मैत्री, जो टाइप 1 मधुमेह के बावजूद ग्रीस की व्हाइट माउंटेंस फतह कर चुकी हैं और दूसरों को भी प्रेरित कर रही हैं।

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यह बीमारी केवल व्यक्ति की नहीं, पूरे परिवार की लड़ाई बन जाती है। मरीज को हर दिन अपने खान-पान, नींद, काम और दवाओं का ध्यान रखना पड़ता है। परिवार के सदस्य भी उसके साथ अपनी आदतें बदलते हैं ताकि मरीज को अकेलापन महसूस न हो। यही एकजुटता इस बीमारी से लड़ने की असली ताकत है।

आज, जब विश्व मधुमेह दिवस की थीम “मधुमेह और कल्याण” हमें सोचने पर मजबूर करती है, तो यह केवल आंकड़ों की बात नहीं। यह एक ऐसी सामूहिक चेतना का आह्वान है जिसमें व्यक्ति, परिवार, समाज, सरकार और कार्यस्थल—सभी की जिम्मेदारी है। हमें यह समझना होगा कि मधुमेह का मुकाबला केवल दवाओं से नहीं, बल्कि जागरूकता, सहानुभूति और जीवनशैली में सुधार से किया जा सकता है।

अरविंद जब शाम को अपनी छत पर टहलते हुए सूरज को डूबते देखते हैं, तो उन्हें याद आता है कि हर दिन एक जीत है। इंसुलिन की हर डोज, हर सावधानी, हर कोशिश जीवन की दिशा में उठाया गया एक कदम है। यह केवल एक बीमारी की कहानी नहीं, बल्कि उस उम्मीद की कहानी है जो हमें याद दिलाती है कि अगर हम साथ चलें, तो कोई भी चुनौती बड़ी नहीं होती। यही इस विश्व मधुमेह दिवस का असली संदेश है।