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धर्मांतरण के विरुद्ध सांस्कृतिक चेतना की क्रांति करने वाले धरती आबा बिरसा मुंडा

आचार्य ललित मुनि

झारखंड के जंगलों में जब ब्रिटिश शासन अपने पैर पसार रहा था, उसी समय एक और खतरा आकार ले रहा था, ईसाई मिशनरियों का सांस्कृतिक आक्रमण। वे शिक्षा, भोजन और चिकित्सा के नाम पर आए, लेकिन उनके पीछे छिपा था धर्मांतरण का एजेंडा, जो आदिवासियों की आस्था, परंपरा और पहचान को मिटाने पर केंद्रित था। इस अंधकार में एक युवा बिरसा मुंडा ने धर्मांतरण के विरुद्ध आवाज उठाई। उन्होंने देखा कि कैसे सिंगबोंगा और जाहेर एरा जैसे जनजातीय देवताओं को झूठा कहा जा रहा है, और कैसे उनके अपने लोग लालच और भय में फंसकर अपनी जड़ों से कटते जा रहे हैं। इसी अन्याय के खिलाफ बिरसा खड़े हुए, और धर्मांतरण के इस सांस्कृतिक युद्ध को उन्होंने अपनी चेतना से लड़ा। उनका संघर्ष किसी मत या संप्रदाय के लिए नहीं, बल्कि अपने अस्तित्व, अपनी धरती और अपनी आत्मा के सम्मान के लिए था।

 15 नवंबर, जो अब जनजातीय गौरव दिवस के रूप में मनाया जाता है, केवल एक तिथि नहीं है, बल्कि एक विचार है, एक चेतना है जिसने जनजातीय समाज को पहचान, आत्मसम्मान और प्रतिरोध की दिशा दी। यह दिन धरती आबा बिरसा मुंडा के जन्म का दिन है, उस योद्धा का, जिसने ब्रिटिश साम्राज्य की जंजीरों को तोड़ने के साथ-साथ अपनी संस्कृति को मिटाने की कोशिशों के विरुद्ध भी बगावत की।

19वीं सदी के उत्तरार्ध का वह समय, जब झारखंड के घने जंगलों में जनजातीय समुदाय अपनी जमीन और जंगल की रक्षा के लिए संघर्षरत थे। ब्रिटिश शासन के साथ-साथ ईसाई मिशनरियों की सक्रियता बढ़ रही थी। वे शिक्षा और चिकित्सा के बहाने जनजातीयों की संस्कृति और आस्था को बदलने का प्रयास कर रहे थे। मिशनरी गांवों में आते, स्कूल खोलते, और धर्मांतरण के लिए लालच देते। गरीब, असहाय और निरक्षर वनवासी, जो पहले ही करों और शोषण से टूट चुके थे, इस छलावे में आ जाते। बिरसा मुंडा ने जब यह सब देखा, तो उनके भीतर आग जल उठी।

उलिहातु गांव में 15 नवंबर 1875 को जन्मे बिरसा साधारण किसान परिवार के बेटे थे। पिता सुगना मुंडा मेहनतकश किसान थे और मां करमी हातू घर संभालने वाली एक नारी। बचपन से ही बिरसा ने देखा कि किस तरह अंग्रेजों ने उनकी सामूहिक खेती की प्रथा ‘खूंटकट्टी’ को समाप्त कर दी थी। भूमि जमींदारों के हाथ में चली गई और जनजातियों का अधिकार छिन गया। लेकिन इससे भी बड़ा खतरा था मिशनरियों की वह योजनाबद्ध कोशिश, जो वनवासियों की आत्मा पर कब्जा करना चाहती थी।

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बिरसा ने खड़िया मिशन स्कूल में पढ़ाई की, पर वहां उन्हें सिर्फ अंग्रेजी शिक्षा नहीं मिली, बल्कि यह संदेश भी मिला कि उनके अपने देवता और परंपराएं “अंधविश्वास” हैं। सिंगबोंगा, जाहेर एरा जैसे देवताओं का मजाक उड़ाया जाता। यही वह पल था जब किशोर बिरसा का हृदय विद्रोह से भर गया। उन्होंने अनुभव किया कि यह सिर्फ शिक्षा का सवाल नहीं, बल्कि अस्तित्व का संकट है। “हमारी धरती, हमारी भाषा, हमारे देवता, क्या सब मिट जाएंगे?” यही प्रश्न उनके भीतर एक क्रांति का बीज बन गया।

ब्रिटिश शासन ने मिशनरियों को संरक्षण दिया। यह दोहरा हमला था, एक तरफ आर्थिक शोषण, दूसरी तरफ सांस्कृतिक नियंत्रण। मिशनरियों ने कहा कि ईसाई बनने पर शिक्षा, नौकरी, और भोजन मिलेगा। लेकिन इसके बदले वनवासियों को अपनी जड़ों से कटना पड़ता। उनके त्योहारों को “पगान” बताया जाता, पूजा स्थलों को तोड़कर चर्च बनाए जाते। धीरे-धीरे गांवों में विभाजन पैदा हुआ—‘ओढ़िया’ कहलाने लगे वे जो धर्म बदल चुके थे, और बाकी लोग उनसे कटने लगे। बिरसा ने देखा कि कैसे उनके अपने लोग लालच में आकर अपनी पहचान खो रहे हैं।

एक दिन जब एक परिवार ने चावल और कपड़ों के लालच में अपने पूजा स्थल को तोड़ दिया, तो बिरसा ने क्रोध में कहा “यह हमारी आत्मा का अपहरण है।” इस क्षण ने उन्हें ‘धरती आबा’ बनने की राह दिखाई। वे गांव-गांव घूमने लगे, लोगों को जगाने लगे “हमारे देवता, हमारी धरती, हमारा धर्म ही हमारी पहचान है।” उन्होंने कहा कि विदेशी धर्म हमारे जीवन को नहीं समझ सकते, क्योंकि वे धरती की भाषा नहीं बोलते।

1895 के आसपास उन्होंने ‘बिरसैत’ धर्म की स्थापना की, एक ऐसा आंदोलन जो जनजातीय संस्कृति के पुनर्जागरण का प्रतीक बना। बिरसैत का अर्थ था “बिरसा का मार्ग” सादगी, अनुशासन और आत्मगौरव का मार्ग। उन्होंने सिंगबोंगा को सर्वोच्च माना, शराब और मांसाहार त्यागने का संदेश दिया, और एक पत्नी की प्रथा को बढ़ावा दिया। लेकिन इन सबके केंद्र में था विदेशी धर्मों के प्रभाव से मुक्ति का विचार। बिरसा ने कहा “हमारी पूजा किसी चर्च में नहीं, हमारे जंगलों में है; हमारी बाइबल पेड़ों की हरियाली में है।”

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यह विचार तेजी से फैला। सैकड़ों गांवों में बिरसा का नाम आदर से लिया जाने लगा। वे सिर्फ धार्मिक नेता नहीं रहे, बल्कि सामाजिक सुधारक बन गए। मिशनरियों के खिलाफ यह सबसे बड़ा शांतिपूर्ण आंदोलन था। उनके अनुयायी चर्चों में नहीं, सिंगबोंगा के नाम पर नाचते-गाते। मिशनरी डरने लगे—उनकी रिपोर्टों में लिखा जाने लगा कि “बिरसा सबसे बड़ा बाधक है।” लेकिन बिरसा का उद्देश्य किसी से नफरत नहीं, बल्कि आत्मजागरण था। वे कहते, “वापस अपनी मिट्टी से जुड़ो, यही सच्चा धर्म है।”

1899 में यह आंदोलन ‘उलगुलान’ में बदल गया अर्थात ‘महाविद्रोह’। अब यह केवल धार्मिक नहीं, बल्कि राजनीतिक और सामाजिक क्रांति थी। बिरसा ने घोषणा की “अबुआ राज एते जना” याने अबुआ (वनवासियों) का राज आएगा, विदेशी सत्ता का अंत होगा। हजारों मुंडा, ओरांव और संथाल इस आंदोलन में शामिल हुए। उनके पास हथियार नहीं थे, पर साहस था। उन्होंने जमींदारों और अंग्रेजी अधिकारियों को चुनौती दी। कई मिशनरी केंद्रों को भी विरोध का सामना करना पड़ा। बिरसा ने धर्म बदल चुके लोगों को “भटके हुए भाई” कहा और उन्हें वापस अपने समुदाय में लौटने का आग्रह किया।

अंग्रेजों के लिए यह विद्रोह खतरे की घंटी था। उन्होंने बिरसा को गिरफ्तार कर लिया। 3 जनवरी 1900 को वे पकड़े गए और रांची जेल में बंद कर दिए गए। 9 जून 1900 को, मात्र 24 वर्ष की आयु में, उनकी मृत्यु हो गई। कहा गया कि उन्हें कॉलरा हुआ, लेकिन कई इतिहासकारों का मानना है कि उन्हें जहर दिया गया। मृत्यु के बाद भी बिरसा की गूंज थमी नहीं, उनका नाम प्रतीक बन गया उस संस्कृति का, जो मिटाई नहीं जा सकती।

बिरसा मुंडा की यह कहानी सिर्फ झारखंड की नहीं, पूरे भारत की आत्मा से जुड़ी है। उन्होंने दिखाया कि किसी भी राष्ट्र की असली ताकत उसकी संस्कृति, भाषा और विश्वास में होती है। विदेशी ताकतें चाहे कितनी भी शक्तिशाली क्यों न हों, वे उस धरती को नहीं झुका सकतीं जहाँ लोग अपनी परंपराओं को आत्मा मानते हैं।

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आज जब देशभर में 15 नवंबर को जनजातीय गौरव दिवस मनाया जाता है, तब यह केवल उत्सव नहीं बल्कि स्मरण है उस चेतना का जो बिरसा ने जगाई थी। झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़ और अन्य राज्यों में आज भी उलगुलान यात्राएं निकलती हैं, गीत गाए जाते हैं, नृत्य होता है। हर स्वर में वही संदेश ‘अपनी जड़ों को मत भूलो।’

2024 में बिरसा मुंडा को भारत रत्न से सम्मानित किया गया, पर उनका असली सम्मान तो हर उस व्यक्ति के दिल में है जो अपनी संस्कृति से प्रेम करता है। उन्होंने सिखाया कि धर्मांतरण केवल विश्वास का सवाल नहीं, बल्कि पहचान का संकट है। उन्होंने दिखाया कि धार्मिक स्वतंत्रता का मतलब दूसरों के प्रभाव में आना नहीं, बल्कि अपनी परंपरा को समझना और जीना है।

आज भी जनजातीय इलाकों में मिशनरियों की गतिविधियाँ जारी हैं। कभी शिक्षा के नाम पर, कभी सेवा के बहाने। लेकिन बिरसा की चेतावनी आज भी उतनी ही प्रासंगिक है “संस्कृति की रक्षा ही सच्चा धर्म है।” धरती आबा का संदेश यही था कि अपने जल, जंगल, जमीन और जन की रक्षा ही ईश्वर की आराधना है।

जनजातीय गौरव दिवस सिर्फ इतिहास की स्मृति नहीं, बल्कि वर्तमान की चुनौती भी है। बिरसा हमें याद दिलाते हैं कि सभ्यता की असली जड़ें धरती में होती हैं, और जो अपनी जड़ों को नहीं पहचानता, वह किसी भी विकास का दावा नहीं कर सकता। आज जब हम आधुनिकता की दौड़ में हैं, तो शायद सबसे जरूरी यही है अपने भीतर के बिरसा को पहचानना।

धरती आबा की यह गूंज कभी नहीं थमेगी। जंगलों की हवा में, मिट्टी की खुशबू में, और हर आदिवासी गीत में उनका नाम गूंजता रहेगा—“अबुआ राज एते जना।” यह केवल एक नारा नहीं, बल्कि आत्मगौरव की घोषणा है। यही बिरसा मुंडा की सच्ची विरासत है, और यही भारत की सांस्कृतिक आत्मा की सबसे गहरी जड़।