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इतिहास के सबसे विचित्र और निरर्थक युद्ध, जब तुच्छ विवादों ने इतिहास में खून बहाया

आचार्य ललित मुनि

इतिहास केवल विजयों और साम्राज्यों का बखान नहीं करता, यह मानव स्वभाव का दर्पण भी है। इसमें जहाँ वीरता और बुद्धिमत्ता की कहानियाँ दर्ज हैं, वहीं ऐसी घटनाएँ भी हैं जो हमें हैरान कर देती हैं जहाँ तुच्छ कारणों ने हजारों जिंदगियों को लील लिया। इन घटनाओं को आज हम ‘फालतू युद्ध’ कह सकते हैं, पर इनके पीछे छिपे अहंकार, जिद, सम्मान का जुनून और संवाद की कमी जे भाव आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने सदियों पहले थे।

इतिहास के पन्नों पर नज़र डालें तो हम पाएंगे कि कई बार एक मामूली घटना, एक फल, एक बाल्टी या एक जानवर तक ने राजाओं को तलवारें खिंचवाने पर मजबूर कर दिया। राजस्थान की ‘मतीरे की राड़’ और इटली के ‘बाल्टी के युद्ध’ जैसी घटनाएँ न केवल विचित्र हैं, बल्कि यह सोचने पर मजबूर करती हैं कि आखिर इंसान कब अपनी जिद से ऊपर उठकर समझदारी से सोचना सीखेगा।

राजस्थान का ‘मतीरे की राड़’: एक तरबूज से शुरू हुआ खूनी संघर्ष

17वीं शताब्दी का राजस्थान, जब मुगल सम्राट शाहजहां का शासन था, रियासतों की शान-ओ-शौकत और परस्पर ईर्ष्या से भरा हुआ था। बीकानेर और नागौर जैसी रियासतें बाहरी रूप से शांत दिखाई देती थीं, पर भीतर ही भीतर सीमावर्ती विवादों और व्यक्तिगत अभिमान की आग सुलग रही थी।

1644 ईस्वी की गर्मियों में बीकानेर के सीलवा गांव और नागौर के जाखणियां गांव के बीच एक ऐसा विवाद छिड़ा, जिसने इतिहास में अपनी अलग पहचान बना ली। यह विवाद किसी जमीन, किले या खजाने के लिए नहीं, बल्कि एक तरबूज के लिए था।

राजस्थान की तपती रेत पर जब जल और छांव की कीमत जान से भी बढ़ जाती थी, तब तरबूज केवल फल नहीं, जीवन का प्रतीक था। सीलवा गांव के एक किसान के खेत में उगी तरबूज की बेल ने अनजाने में अपनी एक लता पड़ोसी गांव जाखणियां की सीमा में फैला दी। कुछ ही दिनों में उस लता पर एक बड़ा, रसीला तरबूज पक गया। बीकानेर के किसानों ने दावा किया कि बेल उनकी भूमि पर उगी है, इसलिए फल उनका है। नागौर के किसानों ने तर्क दिया कि फल उनकी जमीन पर पड़ा है, इसलिए उनका अधिकार बनता है।

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जो झगड़ा कुछ किसानों के बीच शुरू हुआ, वह जल्द ही दोनों गांवों की प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया। चौकीदारों और सैनिकों ने दखल दिया, और विवाद में हथियार खिंच गए। जब खबर रियासतों तक पहुंची, तो दोनों पक्षों ने अपनी सेनाएँ तैनात कर दीं।

बीकानेर की ओर से रामचंद्र मुखिया ने सेना की कमान संभाली, जबकि नागौर की ओर से सिंघवी सुखमल ने मोर्चा संभाला। शुरुआती मुठभेड़ें सीमित थीं, पर जल्द ही यह एक बड़े युद्ध में बदल गईं। तलवारें चमकीं, घोड़े दौड़े, और रेगिस्तान की रेत खून से लाल हो गई। इतिहासकारों का अनुमान है कि इस संघर्ष में दो से पाँच हजार सैनिकों ने प्राण गंवाए।

विडंबना यह थी कि जिस तरबूज के लिए यह सब हुआ, वह तब तक या तो सड़ चुका था या जानवरों का भोजन बन गया था। जब बीकानेर के महाराजा करण सिंह और नागौर के राजा अमर सिंह को मुगल दरबार से लौटने पर सच्चाई पता चली, तो वे खुद शर्मिंदा रह गए। शाहजहां ने दोनों को फटकार लगाई और सीमाओं का स्पष्ट निर्धारण करने का आदेश दिया।

राजस्थान की लोकभाषा में यह घटना “मतीरे की राड़” के नाम से अमर हो गई। आज भी लोग कहते हैं—“मतीरे जोगी राड़ मत छेड़ो” यानी छोटी बात पर बड़ा झगड़ा मत करो। यह कहानी हँसी में सुनाई जाती है, पर भीतर से यह गहरी सीख देती है, जिद, चाहे व्यक्ति की हो या राज्य की, अंततः विनाश ही लाती है।

इटली का ‘बाल्टी का युद्ध’: जब एक लकड़ी की बाल्टी बन गई अपमान का प्रतीक

राजस्थान की तरह यूरोप का मध्यकाल भी अपने भीतर कई विचित्र युद्धों की कहानी समेटे है। 1325 ईस्वी में इटली के बोलेग्ना और मॉडेना शहर-राज्यों के बीच जो युद्ध हुआ, उसे दुनिया “War of the Bucket” यानी ‘बाल्टी का युद्ध’ के नाम से जानती है।

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उस दौर में इटली दर्जनों छोटे-छोटे स्वतंत्र नगर राज्यों में बँटा था। बोलेग्ना पोप समर्थक ‘गुएल्फ़्स’ के पक्ष में था, जबकि मॉडेना ‘गिबेलिन्स’ के रूप में रोमन सम्राट का समर्थन करता था। दोनों में वैचारिक मतभेद थे जो अक्सर सीमावर्ती छापामार लड़ाइयों में बदल जाते थे।

नवंबर 1325 की एक सुबह मॉडेना के कुछ सैनिक बोलेग्ना के बाहरी क्षेत्र में घुस आए। वहाँ उन्होंने एक कुएं से ओक की लकड़ी की बाल्टी निकाल ली, शायद मज़ाक या विजय की निशानी के तौर पर। बोलेग्ना ने इसे अपमान माना और पूरे शहर में प्रचार कर दिया कि मॉडेना ने उनके सम्मान की वस्तु चुरा ली है।

गुस्से से लाल बोलेग्ना ने 32,000 सैनिकों की सेना जुटाई, जबकि मॉडेना के पास केवल लगभग 8,000 योद्धा थे। फिर भी दोनों सेनाएँ 8 नवंबर को जापोलिनो नामक मैदान में आमने-सामने हुईं।

संख्या में कम होने के बावजूद मॉडेना के योद्धाओं ने अनुशासन और रणनीति से बोलेग्ना को पराजित कर दिया। बोलेग्ना के करीब चार हजार सैनिक मारे गए, जबकि मॉडेना की क्षति बहुत कम थी। युद्ध के बाद विजयी मॉडेना ने न केवल बाल्टी को ट्रॉफी की तरह अपने शहर में रख लिया, बल्कि आज भी वह बाल्टी सैन जियाकोमो मैगोर चर्च में सुरक्षित है,मानव अहंकार की मूर्त याद के रूप में।

बाल्टी का यह युद्ध इतिहास में हास्यास्पद लग सकता है, पर इसके भीतर वही मनोवृत्ति छिपी थी जिसने ‘मतीरे की राड़’ जैसी घटनाओं को जन्म दिया। सम्मान की अंधी रक्षा, संवाद की कमी और सामूहिक विवेक का अभाव, इन तीनों ने मिलकर सभ्यता को खून से रंग दिया।

अन्य ‘तुच्छ’ युद्ध: जब दुनिया ने सीखा, पर फिर भी नहीं सीखा

इतिहास में ऐसे कई प्रसंग हैं जहाँ छोटी-छोटी बातों ने देशों को आमने-सामने ला दिया।

  • 1859 की पिग वॉर: अमेरिका और ब्रिटेन के बीच, जब एक सूअर ने पड़ोसी की फसल खा ली। सौभाग्य से इस युद्ध में एक भी गोली नहीं चली।

  • 1925 की स्ट्रे डॉग वॉर: ग्रीस और बुल्गारिया के बीच, जब एक सैनिक अपने भागे हुए कुत्ते के पीछे सीमा पार कर गया और गोली चल गई।

  • 1739 की जेन्किन्स ईयर वॉर: ब्रिटेन और स्पेन के बीच, एक नाविक के कटे हुए कान को लेकर शुरू हुआ युद्ध।

  • 1838 की पैस्ट्री वॉर: फ्रांस और मेक्सिको के बीच, एक फ्रांसीसी पेस्ट्री शेफ की दुकान के नुकसान के मुआवजे के विवाद से भड़की लड़ाई।

  • 1784 की केटल वॉर: नीदरलैंड्स और ऑस्ट्रिया के बीच, जिसमें केवल एक तोप दागी गई और उसका निशाना था एक केतली।

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इन घटनाओं में हास्य है, लेकिन इनके भीतर एक सार्वभौमिक सत्य छिपा है तर्क खो जाने पर मनुष्य तुच्छ बातों पर भी युद्ध छेड़ देता है।

संवाद ही शांति का मार्ग है

‘मतीरे की राड़’ और ‘बाल्टी का युद्ध’ हमें यह सिखाते हैं कि युद्ध का कारण कभी वस्तु नहीं होता, कारण हमेशा मन होता है जो अहंकार और प्रतिष्ठा की आग में जलता है। संवाद, संयम और सहिष्णुता किसी भी समाज की सबसे बड़ी ताकत हैं।

आज जब दुनिया डिजिटल युद्धों में उलझी है सोशल मीडिया की बहसें, सीमाओं के छोटे विवाद, धार्मिक या भाषाई मतभेद तब इन पुरानी घटनाओं से सबक लेना जरूरी है। जिस तरह एक तरबूज या बाल्टी ने इतिहास में खून बहाया, उसी तरह आज एक ट्वीट या पोस्ट लोगों को बाँट सकता है। फर्क केवल माध्यम का है, स्वभाव वही है।

हमें यह समझना होगा कि सच्ची जीत किसी की हार में नहीं, बल्कि संवाद में छिपी शांति में है। मतभेद होना स्वाभाविक है, पर हिंसा कभी समाधान नहीं। इतिहास का यही सबसे बड़ा सबक है अगर हम इससे नहीं सीखेंगे, तो भविष्य में फिर कोई ‘मतीरा’ या ‘बाल्टी’ हमारे विवेक की परीक्षा लेगा।